किसान, उपभोक्ता एवं पर्यावरण हितैषी प्राकृतिक कृषि

जैविक खेती,फोटो क्रेडिट- लोक सम्मान
जैविक खेती,फोटो क्रेडिट- लोक सम्मान

औद्योगिक क्रांति से पहले रासायनिक खेती और उससे भी अधिक खतरनाक जैविक खेती का उद्गम ही नहीं हुआ था। परम्परागत गोबर खाद पर आधारित खेती थी । प्लास्टिक नहीं था, औद्योगीकरण नहीं था। रसायन निर्माण के कारखाने नहीं थे। वैश्विक तापमान बढ़ने का कोई संकट भी नहीं था। नदियों में कोई भी प्रदूषण नहीं था, उनका पानी पवित्र था। बचपन में हम गांव में खेत में काम करते समय पड़ोस में बहती नदी का पानी पीते थे, लेकिन हमें पेट की कोई भी बीमारी नहीं होती थी। तब भूमि अंतर्गत जल स्त्रोत समृद्ध थे। क्योंकि अच्छी बारिश होती थी, नलकूप नहीं थे और सिंचन केवल सब्जियां और गुड़ निर्माण के लिये थोड़ा गन्ना लेने के लिये होता था। ऐसे में मानवी जीवन के लिये जितना सालाना पानी चाहिये, उससे कई गुणा ज्यादा पानी भूजल में संग्रहित होता था। पानी की कमाई अधिक थी और खर्चा कम था।

पुरातन काल में फसल के सूखे पत्ते भूमि पर गिरकर आच्छादन तैयार करते थे और फसल कटाई के बाद गांव का सभी देशी गोधन खेत में दिन भर चरता था। तब उनका गोबर - गोमूत्र भूमि पर अपने आप गिरता रहता था। इससे भूमि निरंतर जीवाणु समृद्ध होती थी। आच्छादन और देशी गाय का गोबर, दोनों के प्रभाव से भूमि में देशी केंचुये दिन-रात नीचे - ऊपर करते-करते भूमि में अनंत करोड़ छेद कर देते थे और अपने शरीर में से चिकना स्राव स्रवित करके उससे इन छेदों की अंदर की दीवारों को लीप देते थे। 

इससे ये छेद पक्के मजबूत बन जाते थे। इस तरह इन छेदों का विशाल मायाजाल भूमि में तैयार हो जाता था। फिर कितनी भी तेज बारिश आये, चाहे बादल भी फटे, बारिश का पूरा पानी भूमि में रिसकर इन छेदों में से भूजल में संग्रहित हो जाता था। इससे यह भूजल भूमि अंतर्गत झरनों से नदियों में साल भर आता ही रहता था और नदियां पूरे साल बहती रहती थीं। वर्षाकाल समाप्ति के बाद यह भूजल इन्हीं छेदों में से निरंतर ऊपर तक आकर वनस्पति की जड़ों को पानी उपलब्ध कराता था। जब यह भूजल छिद्रों के जरिये ऊपर तक आता था तब उसमें घुलकर भूमि के अंदर के सारे खनिज तत्व पेड़-पौधों की जड़ों तक पहुंच जाते थे। इसीलिये पेड़-पौधे अकाल में भी सूखते नहीं थे । रासायनिक खेती में जो रासायनिक खाद भूमि में डाली जाती है, उन सभी खादों में अधिकांश मात्रा में क्षार भर दिये जाते है। जैसे यूरिया में 46 प्रतिशत नाइट्रोजन है, बाकी 54 प्रतिशत क्षार ही भरे हैं। इसी तरह बाकी खादों में भी अधिकांश क्षार भरे जाते हैं। यानी जब-जब किसान रासायनिक खाद डालते हैं, क्षार भूमि में स्थित उन छेदों में संग्रहित होते रहते हैं। ये क्षार भूमि-छिद्रों में सीमेंट-कंक्रीट जैसा काम करते है । ये मिट्टी के कणों को जोर से पकड़ कर रखते हैं जिससे भूमि बहुत ही सख्त बन जाती है। परिणामस्वरूप, सारे छेद इन क्षारो से बंद हो जाते हैं। इसीलिए बारिश का पानी भूमि में रिसकर भूजल में संग्रहित नहीं होता, बल्कि भूमि की ऊपरी सतह से बहकर झरने - नालो से होते हुए नदियों में चला जाता है। इससे बाढ़ आती है और व्यापक नुकसान होता है। इसके अलावा, बारिश की समाप्ति के बाद भूजल नदियों में नहीं आता और परिणाम यह होता है कि दीपावली के बाद नदियां सूखने लगती हैं। इससे भयावह जल संकट का निर्माण होता है और मानव निर्मित यह अकाल सबको अपने आगोश में लपेट लेता है। 

अगर हमें हमारी नदियों में पूरे साल जल की समृद्ध मौजूदगी कायम रखनी है तो भूमि को क्षारों से बरबाद करके जल संकट खड़ा करने वाली रासायनिक खेती पर पाबंदी लगानी ही पड़ेगी। सुभाष पालेकर आध्यात्मिक खेती में जब हम भूमि पर आच्छादन बिछाते हैं और देशी गाय के गोबर - गोमूत्र से बनाया जीवामृत, घनजीवामृत भूमि में डालते हैं, तब समाधीस्थ देशी केंचुये अपनी समाधि भंग करके अपने आप जीवामृत के तरफ खिंचकर भूमि में अपना नीचे - ऊपर नीचे - ऊपर का निरंतर आवागमन करके उसमें अनंत करोड़ छेद करते हैं, छेदों का जाल निर्माण करते हैं और इन छेदों में से बारिश का पूरा पानी भूजल में संग्रहित हो जाता है। झरनों के माध्यम से यह भूजल नदियों मे आता है और नदियां बारह मास बहने लगती हैं। केशाकर्शन शक्ति से यह भूजल लगातार साल भर जड़ों तक आकर जड़ों  को उपलब्ध होता रहता है। इसलिये अकाल में पड़ोस के रासायनिक खेती में फल पेड़ सूखते है, लेकिन हमारे सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती के फल-पेड़ नहीं सूखते। अकाल में जंगल कभी सूखते हैं क्या ? इसलिये नदियों को बारह महीने जल समृद्ध रखना है तो प्राकृतिक कृषि पर अमल करना ही पड़ेगा। हमारे इस विकल्प को स्वीकार करना ही पड़ेगा, चाहे किसी की इच्छा हो या न हो । अन्य कोई विकल्प नहीं है। अगर है तो हमें भी दिखाइए, हम उसे स्वीकारेंगे।

यूरोपीय-अमेरिकन देशों में वहां की भूमि साल के सात-आठ महीने बर्फ से ढकी रहती थी। इस कारण वहां बर्फ पिघलने के बाद केवल चार महीने खेती होती है। इसीलिये इन देशों की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित नहीं, बल्कि उद्योग आधारित थी। इसलिये उन देशों ने उद्योग खड़े करके, उसके लिये आवश्यक कच्चा माल गरीब देशों से लूटकर उत्पादन किया और अपने उत्पादन महंगे दाम पर गरीब देशों को बेचकर अपार धन-संपत्ति कमाई । इसी संपत्ति से यूरोप-अमेरिका धन संपन्न बने। इस आर्थिक साम्राज्यवादी औद्योगीकरण से खड़े किये गये कारखानों ने वस्तु उत्पादन के बाद उत्सर्जित जहरीले प्रदूषकों से भरे रासायनिक मलबे को नदियों में छोड़ना शुरू किया। यही कारण है कि कभी अमृत समान गुण वाले पवित्र गंगा जल या अन्य नदियों का जल इतना भयावह प्रदूषित हो गया कि वह पीने और खेती के लिये जहर बन गया।


इन उद्योगों में अन्य उत्पादों के साथ बीज उद्योग, रासायनिक खाद उद्योग, रासायनिक कीटनाशी दवा उद्योग, खरपतवार नाशी दवा उद्योग,
हार्मोन्स निर्मित उद्योग, मानवी एलोपॅथी या उद्योग, चमड़ा उद्योग, ट्रैक्टर और खेती औजार निर्मित उद्योग, चीनी मिल, कृषि उपज प्रक्रिया उद्योग, रिफाइंड खाद्य तेल उद्योग और अन्य उद्योग शामिल हैं, जिनकी मानवी जीवन के लिये कोई आवश्यकता ही नहीं है। ये सभी उद्योग अपना जहरीला अत्यंत घातक प्रदूषित मलबा नदियो में डालकर और कानून को ताक पर रखकर पानी को जहर बनाते रहे और सरकारी तंत्र इसे चुपचाप देखता रहा ।

नदियों के पानी को गंदा, प्रदूषित एवं अपवित्र करने में रासायनिक कृषि के संसाधन निर्मित उद्योगों की सबसे बड़ी भूमिका है। साथ में कॅडमीयम,आर्सेनिक, पारा, और सीसा जैसे अत्यंत जहरीले पदार्थ और विकिरण फैलाने वाले तत्व जैविक खेती से भूजल और नदियों में आते हैं। इसका अर्थ है कि अगर नदियों का पानी शुद्ध करना है तो रासायनिक खेती और जैविक खेती के संसाधन निर्मित करने वाले उन उद्योगों को बंद करना होगा। रासायनिक कृषि संसाधनों - संकर बीज, रासायनिक खाद, कीटनाशी दवा, खरपतवार नाशी दवा और ट्रैक्टर आदि का उपयोग करने वाली रासायनिक खेती और जैविक खेती पर भी पाबंदी लगानी होगी।

जब रासायनिक खाद भूमि में डाले जाते हैं तो उनमें मौजूद बहुत कम रासायनिक खाद्य तत्वों की जड़ें उपयोग होती हैं। शेष बहुतांश रासायनिक खाद के सारे जहरीले अवशेष भूमि में संग्रहित होते रहते हैं। ये तत्व वर्षा काल में वर्षा जल में घुलकर या सिंचाई के पानी में घुलकर आखिर में झरनों-नालों के माध्यम से नदियों के पानी में आ जाते हैं। नदियों का पानी इन अवशेषों से भयावह रूप से प्रदूषित हो जाता है। साथ में जहरीले कीटनाशी और फफूंदनाशी दवाओं के अवशेष, उसके साथ हार्मोन्स और जहरीले खरपतवार दवाओं के अवशेष भी विशाल मात्रा में बारिश के पानी के साथ या सिंचन के पानी में घुलकर अंत में नदियों के पानी में आ जाते हैं और नदियों का पानी प्रदूषित करते रहते है। उसी तरह जैविक खेती में से भी जहरीले जड़ पदार्थ अवशेष के रूप में नदियों के पानी में घुलकर आते रहते हैं। जब तक रासायनिक खेती और जैविक खेती चलती रहेगी, तब तक गंगा, यमुना और अन्य सभी नदियों का जल इन अत्यधिक जहरीले प्रदूषकों से प्रदूषित, जहरीला और गंदा बनता रहेगा।


अगर सरकारों को और नदियों की निर्मलता - अविरलता पर काम करने वाले लोकभारती जैसे अनेक सेवाभावी या गैर सरकारी संगठनों को सही मायने में नदियों को  प्रदूषण मुक्त करना है, तो रासायनिक खेती और जैविक खेती पर पाबंदी लगानी ही पड़ेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सरकार और देशी-विदेशी फंडिंग एजेंसियों से आर्थिक मदद के रूप में मिलने वाला अरबों रुपया, जो अभी नदी जल शुद्धीकरण के लिये लग रहा है वह पूरा बरबाद होगा, हो रहा है। रासायनिक खेती और उससे भी खतरनाक जैविक खेती जब तक चलती रहेगी, तब तक गंगा, यमुना और अन्य नदियां कभी भी प्रदूषण मुक्त, औषधीय और पवित्र नहीं बनेगी। इस वास्तविकता को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि में एक देशी गाय के गोबर गोमूत्र से तीस एकड़ की खेती होती है। इसमें कोई गोबर की खाद नहीं डालनी है, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट खाद नहीं डालनी है, कोई जैविक खाद बाजार से खरीद कर नहीं डाली जाती।अखाद्य खल्लियां नहीं डालनी, नाडेप खाद नहीं, वेस्ट डिकंपोजर नहीं, ईएस सोलुशन नहीं, गार्बेज एंजाइम नहीं, पंचगव्य नहीं, अग्निहोत्र नहीं । यानी जैविक खाद का कुछ भी नही डालना है । साथ में कोई भी रासायनिक खाद नहीं डालनीं है। सूक्ष्म खाद्य खाद नहीं, द्रवरूप रासायनिक खाद नहीं, जीवाणू खाद नहीं.. यानी खाद नाम की कोई चीज डालनी ही नहीं। उसी तरह जहरीली रासायनिक कीटनाशी दवा और फफूंदनाशी दवा नहीं छिड़कनी है, खरपतवारनाशी दवा का उपयोग नहीं करना है, कोई भी रासायनिक संजीवक माने हार्मोन्स का उपयोग नहीं करना है। यानी प्राकृतिक खेती में किसान को कोई भी रसायन खरीदकर छिड़कना नहीं पड़ता। लेकिन इसके बाद भी उत्पादन रासायनिक खेती से और खतरनाक असल विदेशी जैविक खेती से कम नहीं, बल्कि ज्यादा मिलता है।

पहले ही साल से उत्पादन अधिक मिलने लगता है। रासायनिक खेती की तुलना में मेरी विधि में केवल दस प्रतिशत पानी और बिजली लगती है, दोनों की नब्बे प्रतिशत बचत है। क्योंकि हम भूमि से पानी कम लेते हैं, हवा से पानी ज्यादा लेते हैं। चूंकि हमारा प्राकृतिक कृषि उत्पादन जहरमुक्त, पोषण मूल्यों से भरपूर और औषधि तुल्य है, इसलिए शहरी उपभोक्ता हमें बड़ी खुशी से बाजार मूल्य से डेढ़ या दोगुने दाम दे देते हैं। सरकार किसानों की आय दोगुनी करने की कोशिश कर रही है, लेकिन हमारी प्राकृतिक कृषि विधि में किसान को इससे भी अधिक आय होती है। क्योंकि लागत का मूल्य शून्य है, इसलिए किसानों की आत्महत्या का सवाल ही पैदा नहीं होता । जब कर्ज लेना ही नहीं, तो कर्ज में डूबने या कर्ज माफी का सवाल ही नहीं है। जब कोई रासायनिक खाद डालनी ही नहीं है, कोई रासायनिक खाद्य ,जहरीली कीटनाशी दवा और खरपतवारनाशी दवा का उपयोग करना ही नहीं है, तो नदी के पानी में उनके अवशेष जाकर जल प्रदूषण का सवाल ही पैदा नहीं होता । मौजूदा कृषि और पर्यावरणीय संकटों से निपटने के लिये सरकारों के प्रयासों के साथ - साथ बहुत बड़े जन आंदोलन की भी आवश्यकता है। यह काम हमने आरंभ कर दिया है, आपका भी हार्दिक स्वागत है ।

 

डॉ सुभाष पालेकर ,लेखक प्राकृतिक कृषि विधि के प्रेरक एवं प्रवर्तक

सोर्स - लोक सम्मान

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Post By: Shivendra
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