उत्तराखंड हिमालय में विकास की बेतरतीब योजनाओं और शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते आज पहाड़ के कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों का अस्तित्व खतरे में है। पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र रही नैनी झील भी बुरी तरह प्रदूषणग्रस्त है। झील के वजूद को मिटते देख पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यकर्ता से लेकर आम आदमी तक सभी चिंतित हैं लेकिन सरकारी स्तर पर इसके संरक्षण एवं प्रबंधन के जो उपाय किये जा रहे हैं वे अब तक कारगर साबित नहीं हो पाये हैं। परिणामस्वरूप झील में निरंतर गंदगी समा रही है और इसका पानी प्रदूषित हो चुका है।
उत्तराखंड की कुमाऊं कमिश्नरी का मुख्यालय नैनीताल ब्रिटिशकाल से ही अपनी खूबसूरती और प्राकृतिक सौन्दर्य से पयर्टकों की पसंद रहा है। इसी से प्रभावित होकर ब्रिटिश नौकरशाहों ने इसे प्रशासनिक कामकाज चलाने का केन्द्र भी बनाया। समय के साथ अपनी जरूरत के मुताबिक उन्होंने इसका विकास भी किया। इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर पर्यटन के नक्शे में लाने की कोशिश हुयी। आजादी के बाद भी प्रशासकों की यह पहली पसंद रही। जनसंख्या के बढ़ने और विकास की नयी अवधारण ने इसके भू-गर्भीय और पर्यावरणीय सुरक्षा की हमेशा अनदेखी की है।
यही वजह है कि आज एक खूबसूरत झील की जहरीली सीरत सबके सामने है। झील में फैलती गंदगी किसी बड़े संकट को जन्म दे सकती है। नैनीताल में स्थित प्रसिद्ध नैनी झील तीन ओर से पर्वत श्रृंखलाओं से घिरी तथा किडनी का स्वरूप लिये हुये है। लगभग 1500 मीटर लंबे तथा 450 मीटर चौड़े क्षेत्रफल में फैली यह मनोहारी झील प्रतिवर्ष न केवल दुनिया के लाखों पर्यटकों को आकर्षित करती है बल्कि क्षेत्र की एक बड़ी जनसंख्या को आजीविका के साधन भी उपलब्ध कराती है। लेकिन दुखद यह है कि अपनी सुन्दरता के लिये मशहूर नैनी झील का जल निरंतर प्रदूषित होता जा रहा है। प्रतिवर्ष झील में 0.021 मिलियन क्यूबिक मीटर मलबा तथा अन्य सामग्री समा रही है।
वाहन चालकों, कुलियों, पर्यटकों तथा व्यवसायियों के लिये पर्याप्त शौचालयों की सुविधा न होने के कारण विसर्जित मूत्र एवं मल भारी मात्रा में झील में जा रहा है। सीवर लाइनें भी काफी हद तक इसके लिये जिम्मेदार हैं। ये प्रदूषण का असर ही है कि वर्ष के 12 महीनों में झील अपना रंग बदलती रहती है। दिसम्बर, जनवरी एवं फरवरी के महीनों में झील का रंग कुछ-कुछ हरा-भूरापन लिये होता है। अप्रैल में इसका रंग हल्का हरा, मई-जून में गहरा हरा और जुलाई, अगस्त एवं सितंबर में पीलापन लिये हरा हो जाता है। इसी तरह अक्टूबर में झील का रंग गहरा नीला तथा नवम्बर में नीलापन लिये हरा दिखायी देता है।
शहर के चारों तरफ बढ़ते अनियंत्रित निर्माण तथा बढ़ती आबादी के कारण अधिकांश सीवर लाइनें क्षमता को पार कर गयी हैं। निर्माण कार्यों के कारण बरसात के दौरान बहुत सारी गाद झील में समा रही है। झील के रख-रखाव के लिये गठित झील विकास प्राधिकरण का कहना है कि `पर्वतीय ढलानों पर ब्रिटिश शासनकाल में बनी हुयी नालियों को अवैध निर्माण से अधिकांश स्थानों पर कवर कर पानी के बहाव को रोक दिया गया है, जिसके कारण बरसात का पानी अन्य स्थानों से भी गाद को बहाकर झील में ले जाता है।´ बरसात में हालात इतने गंभीर हो जाते हैं कि सीवर लाइनें ओवर-फ्लो होकर सीधे झील में समा जाती हैं। इसको लेकर काफी हो-हल्ला होता है लेकिन प्रशासन ने सीवर लाइनों की क्षमता बढ़ाये जाने के लिये कोई ठोस पहल नहीं की है। बरसात बीत जाने के बाद स्थिति सामान्य सी लगने लगती है लेकिन अगली बरसात में फिर वही हालात नजर आने लगते हैं। यह लोगों की मजबूरी है कि वे पूरी तरह इतने प्रदूषित जल पर निर्भर हैं।
खास बात यह है कि सीवर लाइनों को दुरुस्त करने के नाम पर अब तक करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं। सीवर प्रबंधन के लिये 1586.64 लाख रुपये स्वीकृत किये गये। इसमें से अब तक 818.96 रुपये अवमुक्त हुये हैं और 516.81 का उपभोग किया जा चुका है। सीवर लाइन एवं सीवर ट्रीटमेंट प्लांट के लिये तीन कार्यदायी संस्थाओं (उत्तराखण्ड पेयजल निगम, जल संस्थान, नगर पालिका परिषद) को नियुक्त किया गया है। पुरानी लाइनों के रख-रखाव के लिये स्वीकृत 21.37 लाख रुपये का उपभोग तो पूर्णत: कर लिया गया है लेकिन आये दिन सीवर लाइनों में ब्लॉकेज के चलते ओवर फ्लो होना जारी है। सामान्य दिनों में भी सीवर लाइनों के ऐसे हालात सरकारी कार्यों की गुणवत्ता की पोल खोलने के लिये काफी हैं। इसके अलावा प्रत्येक भवन में स्थित शौचालय रसोईघर एवं बाथरूम को सीवर लाइन से जोड़े जाने का प्रस्ताव तो है, लेकिन इस बाबत केवल अब तक लोगों को ही प्रोत्साहित करने का कार्य किया जा सका है। धरातल पर इस प्रोजेक्ट को कब से शुरू किया जायेगा, इसकी कोई जानकारी नहीं है।
शहर के आस-पास के कई टूटे-फूटे शौचालयों का सारा मल-मूत्र नालों के माध्यम से सीधे झील में जा रहा है। अधिकांश शौचालय सड़क से जुड़े हैं। खुले एवं गंदे पड़े इन शौचालयों की दुग±ध स्थानीय लोगों एवं सैलानियों को बहुत खटकती है। बीडी पाण्डे चिकित्सालय के नीचे तथा मोहन चौराहे के पास फड़नुमा शौचालय शहर के शौचालयों की दयनीय स्थिति को उजागर करने के लिये पर्याप्त है। शहर में शौचालयों के निर्माण का जिम्मा झील विकास प्राधिकरण के पास है। इस कार्य को सीवर प्रबंधन के अंतर्गत रखा गया है। शौचालयों के निर्माण के लिये 354.24 लाख रुपये स्वीकृत तथा 127.21 अवमुक्त किये गये हैं। प्रस्तावित 31 शौचालयों में से अब तक 9 का कार्य पूरा हो पाया है। विकास प्राधिकरण से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 3 शौचालयों का कार्य अंतिम चरण में है तथा 11 का कार्य प्रगति पर है। शेष बचे शौचालयों का निर्माण-कार्य अब तक शुरू ही नहीं हो पाया है। विकास प्राधिकरण अब तक केवल 53.67 लाख रुपये का ही कार्य करा पाया है। अभिलेखों में विकास प्राधिकरण ने अक्टूबर 2007 तक लक्ष्य पूरा करने की बात तो कही है लेकिन इतने कम समय में यह लक्ष्य कैसे पूरा होगा समझ से परे है। फिलहाल इस सीजन में यहां आ रहे सैलानी खुले पड़े इन शौचालयों से आने वाली दुर्गंध से त्रस्त हैं।
इसी तरह कूड़ा निस्तारण के लिये स्वीकृत 81.00 लाख रुपये में से अवमुक्त 26.77 लाख रुपये में से 20.77 लाख रुपये का उपभोग कर लिया गया है। इस राशि में से एक डम्पर प्लेसर खरीदा जा चुका है। योजना के तहत अवशिष्ट को एक स्थान पर एकत्र कर उसकी रिसाइकिलिंग की जानी है जिसके लिये काठगोदाम में एक डेंसीफायर प्लांट की स्थापना की जायेगी। इसके लिये भूमि चयन का प्रस्ताव वन विभाग के पास भेजा जा चुका है। भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया चल रही है जबकि लक्ष्य के हिसाब से कार्य को नवम्बर 2007 तक पूरा होना है। नगर में सफाई व्यवस्था को बनाये रखने के लिये नगर-पालिका परिषद का अलग से दायित्व बनता है। इस बारे में नगर-पालिका अध्यक्ष सरिता आर्य दलील देती हैं कि `सरकार ने हमें आदेशित किया है कि कूड़े के निस्तारण के लिये समितियां बनाओ। दो वार्डों में तो इन्हें बना दिया गया है लेकिन शहरी वार्डों में इनको गठित करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। जहां तक ऊपरी इलाकों से कूड़ा निस्तारण का प्रश्न है तो हमारे पास अपनी यूटीलिटी वैन न होने के कारण इन जगहों से कूड़ा नीचे लाना बहुत मुश्किल हो जाता है।´
नैनी झील में पोषक तत्वों की अधिकता होने से पादप प्लवक की प्रचुरता भी अधिक है। इस कारण झील में शैवालीय प्रदूषण की समस्या बनती जा रही है। इसके चलते झील में ऑक्सीजन की मात्रा कम होने लगी है एवं गैसों की आर्द्रता बढ़ने लगी है। जीव-जंतुओं के लिये भी खतरा पैदा होता जा रहा है। मछलियां असमय मर जाती हैं। भारतीय मूल की मछली विलुप्त हो गयी है। झील के प्रदूषित हुये जल को पुन: जीवित करने एवं इसमें ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने की योजना के अंतर्गत दो प्रमुख कार्य प्रस्तावित हैं, जिनकी अब तक केवल रूपरेखा ही तैयार की जा सकी है। ये दोनों कार्य झील विकास प्राधिकरण के मत्थे हैं। पहला कार्य झील की ऊपरी सतह से 15 मीटर नीचे की सतह में हाइपोलिमिनियम प्रक्रिया के कारण दूषित हुये पानी को साइफन विधि के माध्यम से बलिया नाले में निकाला जाना है।
लेकिन पिछले तीन सालों से केवल कार्य को किस तरह कराया जाये इस पर ही बहस हो रही है। एक संस्था द्वारा कार्य के लिये बिड में प्रस्तुत धनराशि स्वीकृत राशि से अधिक होने के कारण प्रकरण को विशेष सचिव, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को प्रस्तुत किया गया, लेकिन फैसला हुआ कि योजना के अंतर्गत दूसरे प्रमुख कार्य `एयरेशन´ से प्राप्त होने वाले परिणाम को देखते हुये ही `साइफनिंग´ का कार्य किया जाये। साइफनिंग के लिये 90.81 लाख रुपये स्वीकृत हैं एवं एयरेशन के लिये 495 लाख रुपये स्वीकृत हैं। इसके लिये पूरी धनराशि अवमुक्त कराई जा चुकी है। 157.04 लाख रुपये का उपभोग भी किया जा चुका है, लेकिन यह कार्य भी अधर में ही लटका हुआ है।
एयरेशन विधि द्वारा झील में ऑक्सीजन की मात्रा को बढ़ाया जाना है। इसके लिये झील के किनारे कुछ कमरे बनाये गये हैं, लेकिन इनकी क्षमता जवाब देने लगी है। बरसात के दौरान इनके टपकने का सिलसिला शुरू होने लगा है। तीन सालों से अधर में लटकी इस योजना को अप्रैल 2007 से शुरू हो जाना चाहिये था लेकिन उपकरण लगाने का कार्य अब तक प्रारंभ नहीं हो सका है।
बायोमेनिपुलेशन का कार्य भी किया जाना है, जिसके लिये 50 लाख स्वीकृत एवं 25 लाख रुपये अवमुक्त हो चुके हैं। लेकिन कार्यदायी संस्था मत्स्यकी विभाग, जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक संस्थान पंतनगर द्वारा अब तक कुछ भी नहीं किया जा सका है।
योजना के तहत चल रहे करोड़ों रुपये के कार्य या तो अधर में लटके हैं या फिर शुरू ही नहीं हो पाये हैं। इससे नोडल एजेंसी के रूप में काम कर रहे झील विकास प्राधिकरण की कार्यशैली पर प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं। स्पष्ट है कि प्राधिकरण ने अपनी क्षमता से अधिक कार्य कराने के लिये करोड़ों रुपये बेकार ही अपने पास दबा रखे हैं। पूर्व में घोड़ों की लीद भी काफी अधिक मात्रा में झील में जाती रही थी लेकिन अस्तबल के लैंडसैंड में स्थानांतरित होने से इस गंभीर समस्या से निजात मिल गयी बावजूद इसके शहर के चारों तरफ हो रहे निर्माण कार्यों में निर्माण सामग्री को ढो रहे खच्चरों की लीद ने दोबारा इस समस्या को जीवित कर दिया है। ऊंचाई वाले इलाकों में हो रहे निर्माण कार्यों में सारा माल खच्चरों के माध्यम से ढोया जाता है। इनकी संख्या सैकड़ों में है। इन खच्चरों की लीद नालों से होकर सीधे झील में पहुंचती है। इस समस्या की ओर झील विकास प्राधिकरण का ध्यान नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार की तरह ही उत्तराखण्ड की अब तक की सरकारें झील के प्रति लापरवाह रही हैं। झील के अस्तित्व को बचाने और नैनीताल नगर में जनसंख्या का भार कम करने के लिये विकास भवन की स्थापना की गयी, लेकिन हाईकोर्ट के नैनीताल आने से उक्त समस्या जैसी की तैसी ही बनी है।
विकास प्राधिकरण की कार्यशैली के साथ-साथ उसकी क्षमता पर भी प्रश्न उठना स्वभाविक है। प्राधिकरण के अध्यक्ष आयुक्त एवं सचिव एडीएम हैं, जिनके पास प्रशासनिक कार्यों का भी काफी भार होता है। अच्छा तो यह होता कि ये कार्यभार किसी ऐसे विशेषज्ञ को दिया जाता जो भू-गर्भीय दृष्टिकोण तथा अन्य बिन्दुओं को ध्यान में रखकर इसका संचालन करे।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के आवश्यक निर्देश हैं कि किसी भी कार्य को करने से पूर्व इस क्षेत्र के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का जायजा लिया जाना चाहिये। लेकिन नैनीताल में इसकी परवाह किये बिना अधिकारी अपने हिसाब से निर्णय लेते रहे हैं। हाल ही के दिनों में झील में गंबूसिया प्रजाति की मछलियां डाल दी गयी थी। ये मछलियां अन्य मछलियों के लिये खतरा बनी हुई हैं। सामान्यत: ये मछलियां मच्छर उन्मूलन के लिये उपयोग में लायी जाती हैं। नैनीताल में मच्छर अपेक्षाकृत कम हैं। स्पष्ट है कि यह कार्य बिना किसी ठोस योजना के किया गया है।
Tags –Naini Lake means in Hindi, Pradusngrst means in Hindi, poisonous lake means in Hindi, constantly polluted water means in Hindi, Lake Development Authority means in Hindi, polluted water means in Hindi, sewer lines means in Hindi, sewer treatment plant means in Hindi, Water Institute means in Hindi, Shaiwaliy pollution in the lake means in Hindi, reduce the amount of oxygen in the lake means in Hindi, the amount of oxygen,
साभार – द संडे पोस्ट
/articles/khauubasauurata-jhaila-kai-jaharailai-sairata