छतरपुर के गांधी आश्रम में जैविक खेती का अद्भुत प्रयोग
यहां जैविक, परंपरागत और टिकाऊ खेती की किताबी बातें नहीं की जातीं बल्कि जमीन पर नजर भी आती हैं। कड़कड़ाती ठंड और पाला भी इस इलाके में लगी दलहनी फसलों को नुकसान नहीं पहुंचा पाया। पेड़-पौधों की रंगत देखकर ही लगता है कि यहां की मिट्टी ने अपनी खोयी ताकत और ऊर्जा फिर पा ली है। यह कोई वर्षों की मेहनत नहीं बल्कि केवल चार साल की लगन का नतीजा है। मिसाल पेश करने वाले हैं - संजय और दमयंती। जिस बुदेलखंड में पिछले पांच सालों में भयंकर सूखे से किसानों की कमर टूट गई है, उसी धरती पर एक जगह ऐसी भी है, जहां खुशियों की खेती लहलहा रही है। विदर्भ के बाद मध्यप्रदेश में किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के बीच खेती का यह प्रयोग एक मिसाल पेश करता है। यहां जैविक, परंपरागत और टिकाऊ खेती की किताबी बातें नहीं की जातीं बल्कि जमीन पर नजर भी आती हैं। कड़कड़ाती ठंड और पाला भी इस इलाके में लगी दलहनी फसलों को नुकसान नहीं पहुंचा पाया। पेड़-पौधों की रंगत देखकर ही लगता है कि यहां की मिट्टी ने अपनी खोयी ताकत और ऊर्जा फिर पा ली है। यह कोई वर्षों की मेहनत नहीं बल्कि केवल चार साल की लगन का नतीजा है। मिसाल पेश करने वाले है संजय और दमयंती और जगह है छतरपुर।
टिकाऊ खेती की बात से पहले आपको थोड़ा सा इतिहास जानना जरूरी होगा। गांधी आश्रम छतरपुर ऐतिहासिक महत्व की जगह है। अंग्रेजी शासन काल के बाद दीवान साहब के बंगले से यह जगह गांधी विचारों को आगे ले जाने का एक केन्द्र बनी। तत्कालीन दीवान ने विनोबा के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर इस बंगले और बंगले से लगी जमीन को गांधी विचारों के लिए समर्पित कर दिया। उसके बाद इसे गांधी आश्रम के नाम से विकसित किया गया। सांस्कृतिक-साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों को यहां से संचालित किया जाता रहा। सत्तर के दशक में जब चंबल में डाकुओं का आतंक अपने चरम पर पहुंचकर आत्मसमर्पण की ओर बढ़ा तब इस प्रक्रिया की बुनियाद इसी आश्रम के पुस्तकालय से पड़ी। जयप्रकाश नारायण के साथ यहां डाकुओं की बातचीत हुई और इसके बाद डाकुओं ने आत्मसमर्पण भी किए। गांधी का ग्रामस्वराज, बुनियादी तालीम और टिकाऊ विकास की अवधारणाओं की झलक इस छोटे से आश्रम में दिखाई देती है। बीच में एक लंबा दौर ऐसा भी आया जब यह आश्रम भूमाफियों और सामाजिक गतिविधियों के केन्द्र में तब्दील हो गया।
2006 में गांधी विचारों से जुड़े संजय और दमयंती जब इस जगह आए तो उन्होंने ठान लिया कि यहां की तस्वीर को बदलने के लिए वह कठिन परिश्रम करेंगे। खेती-किसानी और प्रकृत्ति प्रेमी भाई ने इस आश्रम से लगे लगभग चालीस एकड़ खेत में जैविक खेती के प्रयोग को शुरू करने की योजना बनाई। एक ओर जहां नकद फसलों ने फसलों की विविधता को खत्म कर दिया है वहीं इस आश्रम में उन्होंने अलग-अलग फसलों को अपनाया। इस छोटी सी जमीन पर गेहूं, चना, सरसों, अरहर, ज्वार, मक्का, जौं सहित ऐसी फसलें लीं जो सीधे-सीधे किसान अपने खाने के लिए भी उपयोग करते हैं। दरअसल खेती का परंपरागत तरीका था भी यहीं कि किसान ज्यादातर खाद्यान्न और मसाले अपने खेतों में पैदा किया करते थे और उन्हें हर चीज के लिए बाजार की ओर मुंह नहीं देखना पड़ता था, अब किसान गेहूं-सोयाबीन पैदा तो खूब कर रहे हैं, लेकिन दाल-मसालों के लिए वह बाजार पर निर्भर है। खेती की इस विविधता से आश्रम की व्यवस्थाएं भी स्वतः संचालित होती है। यहां तक की सब्जी और फलों का उत्पादन भी आश्रम से ही हो जाता है। इस खेती की सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले चार सालों से यहां रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर एक पैसा भी खर्च नहीं किया गया। वर्मी कम्पोस्ट और गोमूत्र के जरिए यहां की फसलों को जान मिलती है। 40 एकड़ के इस क्षेत्र को आश्रम के केवल सात कार्यकर्ता अंजाम देते हैं। संजय भाई बताते हैं कि आज के इस दौर में जैविक खेती करना थोड़ा कठिन जरूर लग सकता है पर यह असंभव कतई नहीं है। हम अपने खेतों में उतना ही समय खर्च करते हैं जितना दूसरे किसान। पर यहां आपको यह समझना होगा कि जमीन क्या चाहती है। किस तरह की जमीन पर किस तरह के फसल ठीक रहेगी यह समझना होगा।
इस आश्रम की एक खास बात यह है कि आप यहां पूरी तरह जैविक भोजन का आनंद ले सकते हैं। यहां तक की दाल-मसाले और तेल भी खुद की उगाई गई तिल का। इस आश्रम में चल रही खेती के प्रयोग को समझने फ्रांस के निकोलस आए हैं। निकोलस कहते हैं कि ‘वह भारत में जैविक खेती के अलग-अलग प्रयोगों को उन्होंने देखा, लेकिन यह प्रयोग सबसे अद्भुत है। इसलिए भी क्योंकि यह गांधी के विचारों से जुड़ा हुआ है। गांधी ग्राम स्वराज की बात करते थे और गांव की अर्थव्वयवस्था के एक मॉडल की बात करते थे जहां कि ग्रामवासी आपसी व्यवहार में अपने साझा जीवन को अंजाम देते थे। यह प्रयोग अपने आप में दिलचस्प है।’ यही कारण है कि वह न केवल इस खेती पर अध्ययन कर रहे हैं बल्कि इस प्रयोग के साथ इतना रम गए हैं कि वह खुद खेतों में पसीना बहाते हैं। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता भावेश भी इस प्रयोग के साथ जुड़कर काम कर रहे हैं। वह कहते हैं कि कम लागत की इस खेती को जीवन के साथ जोड़कर भी देखा जाना जरूरी है।
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