डाक द्वारा गंगाजल आपके द्वार पर भेजने की ‘सुविधा’ सरकार शुरू करने जा रही है और इस सुविधा की आड़ में गंगा को बेचने की पहली कोशिश को साकार किया जा रहा है। साधु सन्तों ने इस सरकारी कोशिश के खिलाफ बिगुल बजा दिया है जिससे ये भ्रम पैदा होता है कि गंगा को अर्थ स्वरूप में बदले जाने की सबसे ज्यादा चिन्ता इन्हें ही है।
बहरहाल जो डाक घर चिट्ठी ठीक से नहीं पहुँचा सकते वे आपके घर गंगाजल पहुँचाएँगे इसमें सन्देह है। एक काँच की बोतल जो विशेष तौर पर डाक विभाग गंगाजल के लिये डिजाइन करवाएगा (प्लास्टिक की बोतल या पानी का पाउच जैसी पैकिंग से पर्यावरणविदों को एकदम नया कष्ट होगा।) इस बोतल के खर्चे के अलावा गंगाजल स्टोरेज का खर्चा आदि मिलाकर 251 रुपए से कम में गंगाजल आपके घर तक नहीं पहुँचेगा।
गंगा से पानी निकालकर पैक करने का काम किसी गुजराती व्यापारी के हाथों होगा जो बोतल में गंगाजल भरने के बहाने बाजार में अपना मिनिरल वाटर या स्प्रिंग वाटर जैसा प्रोडक्ट भी लांच करेगा। ये शंकाएँ काल्पनिक नहीं हैं।
योजना है कि गंगाजल को ऋषिकेश और हरिद्वार से भरा जाएगा, लेकिन कुछ ही महीनों में ऋषिकेश, हरिद्वार में पाया जाने वाला गंगाजल साधारण पानी से ज्यादा कुछ नहीं होगा और सरकार इस बात को जानती है। कैसे?
गंगा की चार मुख्य धाराएँ हैं जिनमें बैक्टेरियो फेज पाया जाता है यानी इन धाराओं का पानी खराब नहीं होता, पहली धारा है भागीरथी, जिसका बैक्टेरियो फेज यानी अमृत तत्व टिहरी में आकर ही खत्म हो जाता है यानी टिहरी झील से जब आप जल भरते हैं तो उसमें कुछ ही दिन में कीड़े पड़ जाते हैं। अब टिहरी से आगे जो पानी देवप्रयाग पहुँचता है वह साधारण पानी होता है गंगाजल नहीं। देवप्रयाग में भागीरथी से दूसरी महत्त्वपूर्ण धारा अलकनंदा मिलती है और दोनों धाराएँ मिलकर गंगा कहलाती हैं।
अलकनंदा अपने साथ दो अन्य धाराओं, पिंडर और मंदाकिनी को साथ लेकर आती है। अब देवप्रयाग पहुँचने से ठीक पहले अलकनंदा पर श्रीनगर डैम बनाया गया है, तीन साल पहले केदारनाथ हादसा नहीं हुआ होता तो आज श्रीनगर डैम अलकनंदा को पूरी तरह रोक चुका होता, हालांकि अगले कुछ महीनों में यह होगा यानी इसके बाद श्रीनगर डैम से निकलने के बाद अलकनंदा का जल भी साधारण पानी होगा ना कि गंगाजल। जब देवप्रयाग से दो साधारण जल वाली नदियाँ गंगा नामकरण के साथ आगे बढ़ेंगी तो ऋषिकेश या हरिद्वार में उनमें अमृत तत्व नहीं होगा।
एक दूसरा पक्ष साधु सन्तों का विरोध भी है, उनका कहना है कि सरकार को गंगा को बेचने का फरमान वापस लेना चाहिए अन्यथा सन्त समाज इसका प्रखर विरोध करेगा। आखिर इसी गंगाजल के भरोसे तो कइयों की दुकानें चलती हैं, श्रद्धालु गंगा स्नान करेगा, संकल्प लेगा, दक्षिणा देगा तब गंगाजल आस्था के प्लास्टिक में भरकर ले जाएगा।
अब डाक विभाग की इस योजना के बाद सारी परम्परा ही दाव पर लग गई है। लेकिन इन कारणों के अलावा गंगा को बेचने की दूसरी कोशिशें ज्यादा सफल हैं और पुरानी है, बानगी देखिए, पटना के आगे गंगा के बहाव की दिशा में लखीसराय जिले में सेमरिया घाट पड़ता है, पिछले एक दशक में सेमरिया घाट उत्तरी बिहार का कुम्भ बन गया है, राज्य सरकार के लिये गंगा का ये घाट उस दुधारु गाय की तरह है जिसके खान पान पर कुछ भी निवेश नहीं किया जाता।
इस साल सेमरिया घाट का ठेका दो करोड़ का है, अब दो करोड़ देने वाला ठेकेदार ही तय करता है कि कितनी दुकानें लगेगी और उनसे कितना किराया लिया जाएगा एक छोटे से तख्त या चौकी पर किनोपी लगाकर फूल माला और छोटे-मोटे प्लास्टिक का सामान बेचने वाली दुकान का किराया दस से पन्द्रह हजार रुपए महीना है। ऐसी ही करीब दो सौ दुकानें हैं, खाने-पीने के होटल, पार्किंग से भी भारी कमाई है यहाँ तक की जमीन पर बैठकर काम करने वालों से भी किराया वसूला जाता है।
इतना ही नहीं गंगाजल का अर्थशास्त्र यहाँ एकदम अलग है, पूरे घाट पर दस बाई दस की एक दुकान पर ही आपको गंगाजल भरने के लिये प्लास्टिक की बोतल मिलेगी, 20 रुपए वाली बोतल की कीमत है 100 रुपए और कितना भी बहस करिए दुकानदार एक रुपया भी कम नहीं करेगा, आखिर वह इस छोटी दुकान के किराए के रूप में ठेकेदार को 60 हजार रुपए महीना देता है। कमोबेश गंगा के हर घाट पर गंगाजल का ये गणित काम करता है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रशासन या पंडे इसे नियंत्रित करते हैं।
अब इस पूरे अर्थशास्त्र पर असर डालने वाली डाक विभाग की घोषणा के विरोध में गंगा की चिन्ता ना के बराबर है। बेशक सरकार की नियत शायद साफ हो और उसने यहाँ तक ना सोचा हो लेकिन गंगा को लेकर कोई भी कदम बिना सोचे समझे उठाना घातक हो सकता है। वैसे भी गंगा की होम डिलीवरी के बजाय इस बात की कोशिश होनी चाहिए कि गंगाजल का अमृत तत्व बचा रहे और वो पूरी आस्था के साथ हर घर में मौजूद हो।
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