और एक दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया। आखिर कब तक सहता। पढ़ाई खत्म होने के बाद वर्षों की बेकारी से माँ के तीखे वचनों से मन आहत होता। पिता जो नसीहतें देते उसमें भी उसकी असफता के ताने ही होते। वह समझ चुका था कि संसार में सफल आदमी को ही सम्मान मिलता है। डूबते सूरज को कौन नमस्कार करता है।
इस डूबते सूरज के पास एक गरीब कम उम्र की लड़की का रिश्ता आया। वह तैयार न था। लेकिन संयुक्त रूप से माता-पिता की यही सलाह थी, समझाइश थी चेतावनी थी। ये तो तुम्हारी किस्मत अच्छी है कि लड़की वाले अति दरिद्र हैं। अन्यथा एक बेकार व्यक्ति को कौन अपनी लड़की देता है। लड़की वालों के पास देने को दहेज होता तो इस घर में रिश्ता लेकर आते। जिसका लड़का बेरोजगार है। जिसकी नौकरी के साथ-साथ विवाह की उम्र भी निकल चुकी है।
जबकि उसका कहना था कि उम्र का इतना अन्तराल बाद में घातक हो सकता है। फिर ऐसा रिश्ता करना किसी की मजबूरी का फायदा उठाना हुआ। प्राइवेट जाॅब करके वह कुछ कमा लेता था लेकिन अर्द्धबेरोजगारी जैसी स्थिति थी। लेकिन परिवार के दबाव के आगे झुकना पड़ा। बड़ा भाई सम्पन्न था। वह अपनी पत्नी को लेकर अलग हो गया। भाई और भाभी की संयुक्त सोच यही थी। हम सम्पन्न हैं। ऊँची नौकरी में हैं दोनों इन दरिद्रों के मध्य अपना जीवन क्यों बर्बाद करें। हमें अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के लिये अलग रहना होगा। और वे अलग हो गए। पिता को थोड़ी सी पेंशन मिलती थी। गरीबी, अभाव में होते कलह से वह कमजोर पड़ रहा था। दिन-प्रतिदिन ऐसे में ही वह एक दिन उसकी आँखों ने वो बेशर्म दृश्य भी देख लिया जो उसे नहीं देखना चाहिए था। पत्नी ने माफी, शर्मिन्दगी की बजाय पलटकर उत्तर दिया। अपने से 22 वर्ष छोटी लड़की से विवाह का अन्जाम तो यही होना था। वह टूट चुका था। रिश्ते-नातों पर से उसका विश्वास उठ चुका था। अगर आप देने में सक्षम हैं तो सब आपके हैं। यदि आप अक्षम हैं तो आपका कोई नहीं है। उसका सगा बड़ा भाई यदि रास्ते में मिल जाता तो मुँह घुमाकर निकल जाता इस डर से कि कहीं कुछ माँगने न लगे।
42 वर्ष की उम्र में अपनी दुर्बल काया को लेकर संसार से टूटा हुआ वह एक दिन पलायन कर गया। इस तरह के हताश व्यक्तियों के लिये धर्म ही एक मात्र विकल्प बचता है। जबकि वह जानता था कि ईश्वर प्रेम से मिलता है। टूटे मन, निराशा और पलायन से नहीं। लेकिन कोई और चारा न था उसके पास। वह संसार की मार से अधमरा धर्म की शरण में गया। पहले वह उन विख्यात आश्रमों में गया जहाँ ज्ञान, ध्यान की कक्षाओं के कोर्स करवाए जाते थे भारी फीस लेकर। ऐसा लगता था ये ध्यान धर्म के केन्द्र नहीं बल्कि कोचिंग सेन्टर हों। बाजारवाद से ग्रस्त आश्रमों से अन्य आश्रमों में गया तो वहाँ पर भोग विलास का खेल जारी देखकर उसे लगा कि ये लोग सन्यास को, धर्म को क्यों बदनाम करते हैं। इससे अच्छा तो था कि ये विवाह कर लेते।
वह हिन्दु धर्म के गरीब सन्तों से मिला तो उसे समझ में आया कि आधे से अधिक तो उसी की तरह संसार से भागे हुए हैं। दुखी और निराश अपनों के घात से पीड़ित शान्त पानी की तरह उदास जैसे। कुछ ऐसे थे जिन्हें बनना ही साधु था। वे इसी साधुगिरी में मस्त थे। लेकिन उनका एक ही कहना था। विश्वास रखो। धर्म में सन्देह के लिये कोई स्थान नहीं। तर्क मत करो। आँखें बन्द करके केवल श्रद्धा रखो। क्या मिला क्या नहीं मिला ये बात मन में मत लाओ। हरि कथा कहो। दक्षिणा लो। गुजारा करो। जब उसे ये बात नहीं जमी तो वह इस्लाम की और बढ़ा। भाईचारे वाले धर्म में भाई-भाई का गला काट रहा है। ईसाई धर्म की ओर बढ़ा। तो वहाँ भी वर्चस्व और श्रेष्ठता की होड़ थी। ध्येय सभी का एक था। पैसा, सुख, सुविधाएँ, सम्मान हासिल करना। जो संसार का हाल था। वहीं धर्म की स्थिति थी। सच्चा कोई नहीं। सब बगलाभगत।
सबकी स्थिति वैसी ही थी जैसे दूषित भोजन से शरीर की और दूषित मन से मन और मस्तिष्क की होती है। वह वहाँ भी न रुका और आगे बढ़ता गया अकेला। मन की शान्ति, परमात्मा के दर्शन की तलाश में। भटकते-भटकते वह एक गाँव में पहुँचा। वह भिक्षा माँगता और एक समय तो भक्तगण अपनी समस्याएँ लेकर आये। लेकिन जब उसने स्पष्ट किया कि वह स्वयं अपनी समस्या में है। आप लोगों की समस्याएँ हल करना मेरे वश की बात नहीं है। तब भक्तों ने उसे सन्त नहीं भिखारी समझकर भीख देना शुरू किया। पुराने घाव रह-रहकर उसे दुखी करते। मन उदास हो जाता। चित्त अशान्ति से भर जाता। उसे अपने जप का कोई फल मिलता नहीं दिखा। उसे सन्देह होने लगा कि ईश्वर नाम का कोई है भी या नहीं।
गर्मी आरम्भ हो चुकी थी। गाँव के लोग पलायन करने लगे थे शहरों की ओर। घरों में सिर्फ बुजुर्ग लोग थे जो चलने फिरने में असमर्थ थे। जब उसने गाँव वालों से पूछा कि कहाँ जा रहे हो और क्यों? तब गाँव वालों ने बताया। गर्मी में यहाँ पानी नहीं रहता। कुएँ सूख जाते हैं। हैण्डपम्प में पानी नहीं आता। ऐसे में प्यासे रहने से अच्छा है कि शहर में जाकर मजदूरी करें। बरसात के आते ही फिर आ जाएँगे। बुजुर्गों के लायक थोड़ा बहुत पानी कुएँ में रहता है। गाँव वीरान हो गया। लोग अपने परिवार के साथ शहर कूच कर गए। कुएँ में सबसे निचले स्तर पर गन्दा पानी था। जिसे बुजुर्ग लोग कपड़े के छन्ने से साफ करके पीते थे। जानवर भी दूसरे क्षेत्रों में निकल जाते थे। जो नहीं जा पाते वे प्यास से मर जाते।
बुुजुर्गों को छोड़ने की वजह ये थी कि घर की देखभाल भी हो जाती। फिर वे शहर की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी के योग्य भी नहीं थे। और साधु बने इस व्यक्ति को समझ में आया कि अपने लिये जीना। अपने लिये तप करना ये तो संसारी लोग भी करते हैं। जब उसने साधु का चोला पहना है तो उसे परहित में कर्म करना चाहिए। मन ध्येय को निश्चत करके उसने गेंती, फावड़ा, तसला का इन्तजाम किया और खाली जगह पर खुदाई प्रारम्भ कर दी। अप्रैल की चिलचिलाती गर्मी में वह दिन भर खुदाई करता। थक जाता तो किसी वृक्ष के नीचे आराम कर लेता। एक समय भिक्षा माँगकर भोजन करता और फिर खुदाई प्रारम्भ कर देता। इस खुदाई के काम में वह अकेला था। थकान से वह मंत्र, स्त्रोत सब कुछ भूलकर गहरी नींद में चला जाता और रात मे नींद खुलने पर फिर खुदाई आरम्भ कर देता।
गाँव के वृद्ध लोगों ने पूछा भी कि ये क्या कर रहे हो? जब उसने बताया कि तालाब बना रहा हूँ। ताकि बरसात में पानी जमा हो सके और गर्मियों में काम आये तो उन्होंने उसे समझाया। ‘‘अकेले सम्भव नहीं है तालाब निर्माण। फिर ये सरकार का काम है। तुम साधु हो अपने ईष्ट के दर्शन के लिये ध्यान करो।’’
उसने कहा- ‘‘आप लोग अपनी मेहनत और पसीने की कमाई से भिक्षा देकर मेरे लिये भोजन दे सकते हो तो मैं भी आपके लिये कुछ तो करने का प्रयास कर ही सकता हूँ। सच्ची भक्ति परहित ही है और कोई साथ न दे तो अकेले चलना चाहिए। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों। कभी-न-कभी तो तालाब बनेगा और मैं ये करके रहूँगा।’’खुदाई जारी की उसने। उसे दिन-रात मेहनत करते देख गाँव के कुछ वृद्धों ने सोचा हमें भी सहयोग करना चाहिए। उन लोगों से जितना बन सका वे मिट्टी को तसले में भरकर फेंकने में उसकी कुछ मदद कर देते। एक दिन एक वृद्ध ग्रामीण ने पूछा- ‘‘साधु महाराज तालाब बन भी गया और पानी न गिरा तो’’
उसने उत्तर दिया नहीं गिरा तो अगले साल गिरेगा। उसके अगले साल गिरेगा। जो हमारे हाथ में है वो हम करें। अगर कोई ऊपरवाला है तो कभी-न-कभी बरसेगा ही। इसके पहले भी तो पानी गिरा है लेकिन जल संरक्षण की व्यवस्था न होने से गाँव वाले पलायन करते हैं। यदि पहले से तालाब होता तो पलायन की नौबत नहीं आती।
मई बीता, जून बीता, आधा जुलाई बीत गया। तालाब बहुत गहरा तो नहीं लेकिन फिर भी बन चुका था। जुलाई भी सूखा गया। लेकिन साधु ने अपना कर्म जारी रखा। अब अच्छी खासी खुदाई हो चुकी थी। खुदाई करना उसका काम था। पानी गिराना खुदा का काम था। वह अपना काम कर चुका था। अगस्त लग चुका था। खुदा ने भी अपना काम कर दिया। आसमान में घनघोर घटाएँ छा गई, बादलों ने बरसना शुरू कर दिया। 24 घंटे लगातार मूसलाधार बारिश हुई। तालाब लबालब भर चुका था। ग्रामीण शहर से वापिस गाँव की ओर आना प्रारम्भ हो गए। उन्होंने पानी से भरे तालाब का नाम साधु तालाब रख दिया। ग्रामीणों का पलायन बन्द हो गया। लेकिन वह साधु पुरुष उस गाँव से गायब होकर किसी दूसरे गाँव में खुदाई करने लगा था, भीषण गर्मी में। इससे उसके मन को असीम शान्ति मिली। उसके चित्त में प्रसन्नता छा गई। जबकि वह कोई, मंत्र, पूजा, पाठ नहीं कर रहा था। वह समझ गया था परहित ही सबसे बड़ा धर्म है। वह स्वयं में ईश्वर को पा रहा था। उसके सारे, क्लेश, अशान्ति समाप्त हो चुकी थी। जब तक वह जिन्दा रहा खुदाई में लगा रहा और खुदा का नूर उस पर बरसता रहा। अपनी पूरी उम्र उसने इसी काम में लगा दी। मृत्यु के बाद भी उसके चेहरे पर आसमानी नूर था। जिन-जिन गाँवों में उसने खुदाई अभियान शुरू करके तालाब बनाए। उन-उन गाँवों में आज भी लोग उस साधारण पुरूष को असाधारण समझकर उसके नाम का स्मरण करते हैं।
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