बाबूधन के दो डाभुक
जामताड़ा जिले के गोपालपुर पंचायत के बाबूधन आज तकरीबन चार से छः एकड़ में खेती कर रहे हैं, सिर्फ सब्जी की खेती। उनकी वार्षिक आय करीब 70 से 80 हजार रुपये है। आलू, गोभी, टमाटर और प्याज की खेती कर अपने परिवार का जीवन-यापन बेहतर तरीके से कर रहे हैं। बाबूधन जानते थे कि यह काम सिंचाई के बेहतर साधन के बगैर संभव नहीं है। इसके लिए उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों की मदद से दो डाभुक की खुदायी की और इन्हीं डाभुकों के पानी से वे अपने खेत की सिंचाई करते हैं।
धमना नाला पर बांध
गिरिडीह शहर से 45 किमी दूर झारखंड-बिहार सीमा पर बदवारा, कोल्हरिया, हथबोर और करमुटांड़ इलाके में सिंचाई की कोई व्यवस्था सरकारी स्तर से नहीं हो पायी। अंतत: किसानों ने जलस्रोत विकसित कर सिंचाई की वैकल्पिक व्यवस्था का बीड़ा उठा लिया। जरिया बना यहां अवस्थित प्राकृतिक धमना नाला। गर्मी के दिनों में भी इस नाले का पानी नहीं सूखता। यह देख गांव के लोगों ने स्वयं श्रमदान कर प्राकृतिक नाले को ही बांध कर कच्चा चेक डैम का निर्माण कर दिया। आज इस नाले के दोनों ओर लगभग एक कि.मी. से भी ज्यादा दूरी तक खेतों में इससे सिंचाई की जाती है। बांध में जमा पानी को चांड़ के माध्यम से खेतों में फेंका जाता है और खेतों में छोटी-छोटी नाली बनाकर दूसरे खेतों तक इस पानी को पहुंचा दिया जाता है। इस इलाके में अब हरियाली छा गयी है। गेहूं, सरसों, आलू, प्याज और सब्जी का उत्पादन कर यहां के किसान मोटी रकम जमा कर लेते हैं।
गुनिया गांव में श्रमदान से बने छ: बांध
घाघरा प्रखंड की कुहीपाट पंचायत के मुखिया कमल उरांव व स्थानीय ग्रामीण संजय राउत की पहल पर गुनिया गांव वालों ने बांध बनाया है। इन बांधों से आसपास की लगभग 300 एकड़ भूमि की सिंचाई हो सकेगी। मसरिया व बांकी नदी पर ये छः बांध बनाये गये हैं। इन बांधों के निर्माण में सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली है। इस काम को किया है स्थानीय ग्रामीणों ने अपने श्रमदान से। ग्रामीण बताते हैं कि सिंचाई की सुविधा नहीं होने के कारण गांववाले बेहतर खेती नहीं कर पा रहे थे। गर्मी के दिनों में खेत में फसल नहीं लग पाती थी। ऐसे में हमलोगों ने एकजुट होकर कुछ करने की ठानी, ताकि गर्मी में खेती की जा सके व लोगों की आय बढ़ सके। मुखिया कमल उरांव आगे आये। उन्होंने लोगों को संगठित किया। ग्रामीणों का मनोबल बढ़ाया। इसके बाद लोगों ने बांध बनाने के लिए जगह का चयन किया, ताकि पानी रोका जा सके व सिंचाई की व्यवस्था हो सके
बालू बोरियों से संवरे गांव
रांची के ओरमांझी प्रखंड के गगारी पंचायत के चार गांव - सिलदरी, खाटंगा, गगारी व डहू के युवाओं ने डोमा नदी पर सात-आठ किलोमीटर के दायरे में हर आधे-एक कि.मी. पर बालू की बोरियों से पानी को बांध रखा है। इससे वहां पानी का संचय हो जाता है, जिससे खेती होती है। इस पानी को पाइप से खेतों में पहुंचाया जाता है। नदी पर बालू बोरी से बांध बांधने का काम समूह बना कर किया जाता है और काम में लगे लोगों के लिए भोजन का प्रबंध भी सामूहिक रूप से होता है। इस कार्य में महिलाओं का पूरा योगदान रहता है।
बरियातू का सिंचाई नाला
लातेहार जिले के मनिका प्रखंड की डोंकी पंचायत में एक गांव है बारियातू। इस गांव में परिवारों की कुल संख्या 268 है। इन्हीं परिवारों में से पूरब एवं पश्चिाम टोले के 100 परिवारों की भूमि पर फसल आज अपने दम पर तैयार की गयी सिंचाई सुविधा के बहाल होने से लहलहा रही है। यहां तैयार किये गये भुसड़िया नाला से बगैर किसी इंधन खर्च के 125 एकड़ भूमि का सिंचित होना स्थानीय लोगों के लिए बड़ी उपलब्धि बन गयी है। किसी सरकारी सहायता के बिना ही ग्रामीणों के तीन साल के अथक प्रयास से यह संभव हो सका है। वर्तमान में लगभग दो किमी लंबी इस सिंचाई नहर को ग्रामीणों ने अपने श्रमदान से बनाया है। उनकी योजना इसे सात कि.मी. लंबी बनाने की है। इस अभियान का नींव ग्रामीणों को लगातार प्रेरित करने वाले गांव के ही युवा मुंगेश्वपर सिंह ने रखी। वे पंचायत चुनाव में निर्विरोध वार्ड सदस्य भी चुने गये।
ये पांच उदाहरण झारखंड राज्य के विभिन्न इलाकों के हैं। इन उदाहरणों से साफ पता चलता है कि कुछ किसानों ने अपने खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए सरकार की राह नहीं देखी। खेतों में डाभुक बना कर पानी रोका, नदियों पर बांध बनाये और इससे भी मसला हल नहीं हुआ तो नाला बनाकर पानी खेतों तक लेकर आ गये। ऐसा नहीं है कि राज्य में किसानों द्वारा अपने स्तर पर पानी के इंतजाम को लेकर किये जाने वाले ये अकेले उदाहरण हैं। ऐसे सैकड़ों उदाहरण पूरे सूबे में बिखरे हुए हैं, जिनकी जानकारी हमें और आपको नहीं है। मगर यह भी सच है कि राज्य में ऐसे गांवों की संख्या भी हजारों में है, जहां पानी के अभाव में किसान एक ही फसल ले पाते हैं। छह महीने खेती करते हैं और छह महीने बेरोजगार रहते हैं। इन महीनों में वे किसी दूसरे राज्य में जाकर ईट-भट्ठों या किसी अन्य जगह मजदूरी करते हैं। इनकी शिकायत रहती है कि चूंकि सरकार सिंचाई के साधनों का इंतजाम नहीं करती, ऐसे में वे कैसे खेती पर निर्भर रह सकते हैं। मगर ऐसे किसानों को इस बात का इल्म नहीं है कि झारखंड का सिंचाई विभाग फिलहाल राज्य की खेती योग्य महज चार फीसदी जमीन पर ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध करा पा रहा है, ऐसे में अगर उनके भरोसे रहे तो हर गांव तक सिंचाई संसाधन पहुंचाने में दशकों का समय लग सकता है। लिहाजा समझदारी इसी में है कि लोग खुद आगे आयें पंचायतों की मदद लें और अपने खेतों के लिए पानी की व्यवस्था खुद करें।
झारखंड प्राकृतिक संसाधनों से भरा पूरा राज्य है। यहां बारिश भी भरपूर होती है नदियां और दूसरे जल निकायों में पानी भी ठीक-ठाक रहता है। इसके बावजूद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक रबी में कुल खेती योग्य रकबे के बीस फीसदी जमीन पर ही खेती हो पाती है। इसकी वजह है कि यहां की अधिकांश खेती मानसून पर निर्भर है और लोगों के पास दूसरी फसल लेने के लायक पानी नहीं होता है। आमतौर पर किसी राज्य में खेतों तक पानी पहुंचाने की जिम्मेदारी जल संसाधन विभाग की होती है। मगर पिछले खरीफ के जल संसाधन विभाग के आंकड़ों पर नजर डालें, तो साफ हो जाता है कि यह विभाग राज्य के सभी खेतों तक पानी पहुंचा पाने में कितना अक्षम है।
जल संसाधन विभाग के मुताबिक राज्य में कुल खेती योग्य जमीन 29.74 लाख हेक्टेयर है, हालांकि कृषि विभाग मानता है कि 38 लाख हेक्टेयर जमीन पर खेती की जा सकती है। मगर 2012 के खरीफ में जल संसाधन विभाग की ओर से कुल 258490 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई का लक्ष्य रखा गया था। यह कुल कृषि योग्य भूमि 8.6 फीसदी (जल संसाधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक) और 6.7 फीसदी (कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक) ही है। मगर उससे भी बड़ी विडंबना यह हुई कि विभाग महज 118850.16 हेक्टेयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने में सफल हो पाया। यानी कुल जल संसाधन विभाग के मुताबिक कुल कृषि योग्य भूमि का 3.9 फीसदी और कृषि विभाग के मुताबिक महज 3.1 फीसदी भूमि ही सिंचित हो पायी।
अगर विस्तार से इन आंकड़ों में जाया जाये, तो नहरों और जलाशय परियोजनाओं से कुल 213490 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का लक्ष्य था, मगर 81665.16 हेक्टेयर जमीन ही सिंचित हो पायी। इसका अर्थ हुआ कि नहरों और जलाशयों के सिंचाई लक्ष्य का 40 फीसदी पानी ही खेतों तक पहुंच पाया
लघु सिंचाई योजनाओं के तहत 45 हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का लक्ष्य था जबकि 37185 हजार हेक्टेयर जमीन को सिंचाई उपलब्ध कराई जा सकी. यानी लक्ष्य की लगभग 82 फीसदी सिंचाई सुविधा हासिल हुई।
अगर इन आंकड़ों को क्षेत्रवार देखा जाये तो मुख्य अभियंता, देवघर प्रक्षेत्र के तहत दुमका, गोड्डा, जामताड़ा और देवघर जिलों में 44030 हेक्टेयर सिंचाई का लक्ष्य था, मगर इसके स्थान पर पिछले खरीफ में महज 11659 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई ही सुनिश्चिित की जा सकी। मेदिनीनगर प्रक्षेत्र के तहत गढ़वा, डालटेनगंज और मेदिनीनगर जिलों में कुल 50460 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का लक्ष्य था, जिसके स्थान पर 28313 हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध करायी जा सकी। रांची प्रक्षेत्र के तहत रांची, खूंटी, चाईबासा, चक्रधरपुर, गुमला, सिमडेगा आदि जिलों में नहरों और जलाशय परियोजनाओं के माध्यम से 70850 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई का लक्ष्य था, मगर इसके एवज में सिर्फ 31944 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई ही हो पायी। इस साल 2754500 हेक्टेयर में खरीफ की खेती का लक्ष्य है। ऐसे में अगर पिछले साल जितनी जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा होगी तो कुल खेती योग्य के चार फीसदी से भी कम जमीन पर ही नहरी सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होगी।
कुएं और तालाब
इसके अलावा मनरेगा के तहत राज्य में बने कुओं और तालाबों ने भी सिंचाई में बड़ा योगदान दिया है। मनरेगा के तहत राज्य में 78712 कुएं बने हैं और राज्य में तालाबों की कुल संख्या 105780 है। हालांकि मनरेगा के तहत बने कुएं ही ज्यादातर सफल हुए हैं, तालाब अधिकांश नाकाम साबित हुए हैं। कुओं में भी आधे के करीब नाकाम हैं। इसके बावजूद सिंचाई के क्षेत्र में ये ठीक-ठाक भूमिका निभा रहे हैं। अगर सच कहा जाये तो नहरों और जलाशयों से अधिक लोगों को कुओं और तालाबों से फायदा हो रहा है। चेकडैम भी किसानों के लिए काफी मददगार साबित हो रहे हैं। इसके बावजूद यह संख्या बहुत अधिक जाये तो दस फीसदी पहुंचेगी। राज्य के शेष नब्बे फीसदी जमीन पर सिंचाई का कोई बेहतर साधन नहीं है।
फिर कैसे होती है खेती
इन हालात के बावजूद राज्य में खरीफ की खेती ठीक-ठाक हो रही है। खरीफ 2011 में तो राज्य ने बंपर पैदावार करके खाद्यात्र के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली थी। मगर यह सब पूरी तरह मानसून की वर्षा पर आश्रित है। इसके अलावा कुछ किसान जो खर्च कर पाने में सक्षम हैं वे डीजल पंप के जरिये भूजल का दोहन करते हैं। मानसून तो प्रकृति का वरदान है, मगर हम सब जानते हैं कि बारिश कब होगी इसका कोई हिसाब नहीं है। जबकि खेती के मौजूदा दौर में हमें जब फसल के लिए आवश्यक हो उसी वक्त पानी देना पड़ता है। ऐसे में मानसून के भरोसे कतई नहीं रहा जा सकता।
अस्सी गुना अधिक है पानी
राज्य सरकार के जल संसाधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में 30168.98 मिलियन क्यूबिक पानी की उपलब्धता है, जबकि हमें हर साल बमुश्किल 365.539 मिलियन क्यूबिक पानी की ही जरूरत होती है। शेष पानी हम उपयोग नहीं कर पाते हैं। मगर जब हम जुगत लगायेंगे तो इस पानी को बड़ी आसानी से खींच कर अपने खेतों तक ले जा सकते हैं।
मगर यह जुगत किसी अकेले से संभव नहीं। इसके लिए पूरे गांव को साथ बैठना होगा, योजना बनानी होगी और उसे जमीन पर उतारना पड़ेगा।
भूजल का दोहन है खतरनाक
सिंचाई के आधुनिक उपकरण हमें भूजल के दोहन के लिए प्रेरित करते हैं, जबकि झारखंड के पास भूजल की उपलब्धता पर्याप्त नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक राज्य में भूजल की उपलब्धता सिर्फ 4292 मिलियन क्यूबिक ही है। अगर इसे ढंग से खर्च नहीं किया गया तो यह भंडार खाली होने में वक्त नहीं लगेगा। इसके बनिस्पत सतह पर मौजूद पानी 25876 मिलियन क्यूबिक है और हर साल बारिश के समय इसमें बढ़ोतरी ही होती है। इसलिए सिंचाई के लिए हमें हमेशा सतही पानी का ही इस्तेमाल करना चाहिये।
खेतों में पानी संचय के तरीके
किसान सबसे पहले अपने खेतों की गहरी जुताई करें ताकि अधिक समय तक खेत की नमी बनी रहे। पानी जमीन के अंदर घुस सके। इसके साथ किसान सुविधानुसार अपने खेत की मेढ़। को ऊंचा एवं मजबूत करले। उस मेढ़ में कोई छिद्र हो, तो उसे पूरी तरह बंद कर दें ताकि पानी बाहर निकल न सके। याद रहे मेढ़ के ऊपर से पानी बहने दें। जगह-जगह डोबा, तालाब, पोखर में पानी आने के रास्ते से मिट्टी बहकर तालाब, डोबा में न आने पाये। मिट्टी के आने से तालाब, पोखरा, डोबा में मिट्टी भर जाने का खतरा रहता है। तालाब, पोखरा, डोबा में चूना, गोबर आदि डालें ताकि छिद्र बंद हो सके। यदि पानी का रिसाव ज्यादा है तो तालाब के नीचे के हिस्से पर ढाल की दिशा में पॉलिथीन की लाइनिंग कर दें। ऐसा करने से पानी का रिसाव रुक जायेगा। चेकडैम, तालाब पोखर, डोबा में यदि मिट्टी भर गई हो तो किसान वर्षा पूर्व मिट्टी को बाहर निकाल कर उसे गहरा बना दें। ऐसा करने से उसमें अधिक से अधिक जल का जमाव हो सकेगा।
अपने खेत में गड्ढा खोदें
वर्षा होने के पूर्व ही किसान अपने खेत में पानी संचय करने के लिए गड्ढा खोद लें, ताकि वर्षा का पानी उसमें ठहर सके। ऐसा करने से किसान अपने धान की फसल में पटवन कर सकते हैं। इतना ही नहीं आगे के मौसम रबी में भी यही संचय किया हुआ पानी उनके खेती के लिए उपयुक्त होगा। किसान पानी संचय के लिए अपने खेत के ढलान की ओर 10 फीट लंबा, 10 फीट चौड़ा, 10 फीट गहरा डोबा वर्षा के पूर्व कर लें। ताकि इस गड्ढा में बरसात का पानी जमा हो सके और धान की खेती के अलावा रबी के मौसम में भी की जाने वाली खेती में यही संचय किया हुआ पानी काम आयेगा।
नदी-तालाब का पानी खेतों तक
जिन किसान भाइयों के खेत के नजदीक नदी, तालाब, चेकडैम है तो किसान अपने खेत में लिफ्ट सिंचाई के माध्यम से अपने खेतों तक पानी पहुंचा कर उसका लाभ उठा सकते हैं।
और अंत में
पानी बरसे बहन न पावे, तब खेती को मजा दिखावे.
(जब पानी बरसे और वह खेत से बहने नहीं पावे, तब खेती का मजा दिखलायी दे.)
खेती बे-पानी, बूढ़ा बैल, सो गृहस्थ गड़हा में गैल.
(जिस किसान के खेत में पानी का प्रबंध नहीं हो या जिसको बैल बूढ़ा हो, उसकी खेती अच्छी नहीं होती.)
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