मामला गंगा के बारे में एक साफ नजरिए का है जबकि हमारे लोगों का नजरिया गंगा से ज्यादा प्रदूषित है। सरकार का नजरिया गंगा से अधिकतम ऊर्जा पाप्त करने का है। उसे इस बात की चिंता नहीं है कि गंगा पर लगातार बांध बनते जाने से उसमें पानी का प्रवाह घटता जाएगा और जब गंगा में पानी ही नहीं रहेगा तो उसके रहने का मतलब क्या होगा? यही बात प्रोफेसर जीडी अग्रवाल भी कहते हैं। अगर गंगा का 90 प्रतिशत रक्त बांध और अवैध निर्माण सोख लेंगे तो वे कैसे बचेंगी?
बीती सदी के आठवें दशक में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ‘गंगा एक्शन प्लान’ की शुरुआत की तो प्रतिष्ठित पत्रकार एमवी कामथ ने टाइम्स आफ इंडिया में एक रोचक लेख लिखा। उसका शीषर्क था- ‘गंगा अम्मा कैन नेवर बी डर्टी’। लेखक अपनी बूढ़ी मां को यह समझाने में नाकाम रहे कि गंगा को भी किसी तरह की सफाई की जरूरत पड़ सकती है। उनका मानना था कि गंगा स्वयं में इतनी शक्तिशाली हैं कि वे लाखों लोगों की गंदगी साफ कर सकती हैं। फिर ऐसा कौन पैदा हो गया, जो उनकी गंदगी साफ करेगा? उस बूढ़ी मां की आस्था राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार से ज्यादा शक्तिशाली थी। लेकिन आज स्थिति उल्टी हो चली है। आज पाखंड ताकतवर हो चला है और आस्था लाचार हो गई है।विज्ञान ने पकड़ा आस्था का हाथ
आज स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद सानंद अपनी लाचार आस्था के साथ यूपीए सरकार के दरवाजे पर माथा पटक रहे हैं और वह अपने पाखंड से बाज नहीं आ रही है। स्वामी सानंद जी का व्यक्तित्व ही इस बात का प्रमाण है कि इस व्यवस्था में गंगा को बचाने के लिए विज्ञान किस तरह से हार रहा है और वह आस्था का रूप लेकर सत्ता से भीख मांग रहा है। फिर भी उसके सफल होने की उम्मीदें नहीं हैं। ज्ञानस्वरूपानंद दरअसल मशहूर पर्यावरण विज्ञानी प्रोफेसर जीडी अग्रवाल हैं। वे पहले आईआईटी, कानपुर में प्रोफेसर रहे हैं और बाद में राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन। उन्होंने नदियों के प्रदूषण पर सरकार के रवैए को देखते हुए चेयरमैन के पद से इस्तीफा दे दिया था और तबसे खामोशी से पर्यावरण और विशेष तौर पर गंगा के सवालों पर आंदोलन और जनजागरण कर रहे हैं। उन्होंने अपने विज्ञान को आस्था में समाहित कर दिया और संघर्ष को हिंदुत्ववादी संगठन में। यही कारण है कि पूरी दुनिया में बिखरे हिंदुत्ववादी उनके आंदोलन का समर्थन देने और सरकार पर दबाव पैदा करने में लगे हैं। एक प्रकार से जीडी अग्रवाल के अभियान से भगवा और हरे रंग की एक मिलीजुली पताका फहरा रही है, जिसने राजेद्र सिंह जैसे देश के जाने-माने जल विशेषज्ञ को भी अपने साथ जोड़ लिया है।
सरकार का नजरिया ज्यादा प्रदूषित है
इन्हीं लोगों के आंदोलन और दबाव के चलते केंद्र सरकार ने फरवरी 2009 में गंगा राष्ट्रीय नदी घाटी प्राधिकरण का गठन किया और उसका 500 करोड़ रुपये का सालाना बजट भी रखा। लेकिन गठन के तीन साल बाद भी उसकी महज दो बैठकें ही हो पाई। इस साल फरवरी में बैठक होनी थी पर राज्यों के विधानसभा चुनावों के कारण वह नहीं हो पाई क्योंकि उसके चेयरमैन स्वयं प्रधानमंत्री हैं। इसलिए उसके होने में बार-बार अड़चनें आती जा रही हैं लेकिन मामला इतना ही होता तो गनीमत थी। प्रधानमंत्री अपनी जगह पर किसी को अधिकार देकर काम शुरू करवा सकते थे। मामला गंगा के बारे में एक साफ नजरिए का है जबकि हमारे लोगों का नजरिया गंगा से ज्यादा प्रदूषित है। सरकार का नजरिया गंगा से अधिकतम ऊर्जा पाप्त करने का है। उसे इस बात की चिंता नहीं है कि गंगा पर लगातार बांध बनते जाने से उसमें पानी का प्रवाह घटता जाएगा और जब गंगा में पानी ही नहीं रहेगा तो उसके रहने का मतलब क्या होगा। यही बात प्रोफेसर जीडी अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद भी कहते हैं। अगर गंगा का 90 प्रतिशत रक्त बांध और अवैध निर्माण सोख लेंगे तो वे कैसे बचेंगी। उधर, देश की ऊर्जा जरूरतों पर जोर देते हुए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि जीडी अग्रवाल के अनशन के कारण एक साल पहले अलकनंदा पर बन रही दो परियोजनाओं पर काम रोका जा चुका है और उसके चलते 700 करोड़ के नुकसान हो चुके हैं। अगर यही चलता रहा तो हम विकास कैसे करेंगे क्योंकि जब सरकार जल विद्युत परियोजनाओं के विरोध के चलते नाभिकीय ऊर्जा की तरफ भागती है तो वहां भी विरोध का सामना करना पड़ता है। जैसे कुडनकुलम और जैतापुर।
नदी जोड़ से घटेगा पर्यावरण
नदियों में लगातार कम होते जल की समस्या से निपटने के लिए एक नजरिया सुप्रीम कोर्ट का है। उसने सन् 2002 में नदी जोड़ परियोजना पर काम करने का आदेश दिया था, जिसके चलते एनडीए सरकार ने छह लाख करोड़ की योजना तैयार की थी। पर बाद में यूपीए सरकार और सुप्रीम कोर्ट के ही अलग रवैए के कारण वह ठंडे बस्ते में चली गई। इस योजना पर भाजपा और उसके संगठन भी एक प्रकार से सहमत दिख रहे थे और वे इसके लिए अभियान भी चला रहे थे। लेकिन राजेंद्र सिंह समेत देश के तमाम पर्यावरणविदों का मानना है कि नदी जोड़ परियोजना नितांत अव्यावहारिक है और उससे पर्यावरण बचने से ज्यादा नष्ट होगा। राजनीति, विज्ञान, आस्था और आंदोलन की इस खींचतान में गंगा ही नहीं देश की तमाम नदियां उलझ कर रह गई हैं। उधर, आधुनिक शहरी मध्यवर्ग गंगा का यह समझ कर आचमन करता है कि हम गंगा से चाहे जितना लेते जाएं या उसमें जितना भी कचरा गिराते जाएं, वह मैली नहीं हो सकती।
आधुनिकता और परंपरा की पाखंड की शिकार
दरअसल, गंगा गंदगी से ज्यादा आधुनिकता और परंपरा के पाखंड की शिकार हैं। कांग्रेस और भाजपा और उनसे जुड़े तमाम संगठन इसी का खेल खेल रहे हैं। अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गंगा की इतनी ही चिंता थी तो उत्तराखंड में उनकी सरकार होते हुए अवैध खनन के खिलाफ अनशन करते हुए स्वामी निगमानंद की मौत कैसे हो गई या उनकी अन्य सरकारों ने गंगा के लिए समय-समय पर क्या किया? जब गंगा नदी राष्ट्रीय प्राधिकरण का गठन हुआ तो दावा किया गया था कि गंगा को टेम्स नदी की तरह साफ-सुथरा और सदानीरा बना दिया जाएगा। सभी जानते हैं कि इसके लिए गंगा को अविरल बहने देना जरूरी है। लेकिन गंगा से केंद्र को ही नहीं हर राज्य को बिजली चाहिए और उसके तट पर बसे तमाम शहरों को पेयजल और खेती को नहरों से पानी चाहिए। जाहिर है गंगा को महज 58 से 60 करोड़ लोगों की सेवा ही नहीं करनी है उनके द्वारा बने तमाम प्रतिष्ठानों की भोग वृत्ति को भी शांत करना है। ऐसे में प्रोफेसर अग्रवाल का यह कहना एक आशंका ही पैदा करता है कि मेरी उम्र 80 साल की हो चुकी है। मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। अच्छा होता जनवरी 2013 में प्रयाग में होनेवाले कुंभ के पहले प्राधिकरण की बैठक हो जाती। सवाल है कि इतनी उपेक्षा और पाखंड के बाद क्या गंगा के पास भी ज्यादा समय बचा है?
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