विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
5 जून को हर साल पूरी दुनिया में अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस एक रस्म अदायगी के तौर पर मनाया जाता है। रस्म अदायगी इसलिये क्योंकि पिछले 20 साल से दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हुए और लगातार हो भी रहे हैं लेकिन ज़मीनी स्तर पर हालत नहीं बदले या ये कहें की हालात बहुत ख़राब हो गए हैं।
कार्बन उत्सर्जन कम होने के बजाय बढ़ा है इसके साथ ही दुनिया भर में कई तरह का प्रदूषण भी बढ़ा है। भयंकर वायु प्रदूषण के कारण हालात तो यहाँ तक हो गए हैं कि दुनिया भर के कई शहर रहने लायक ही नहीं बचे हैं। अधिकांश नदियाँ, तालाब, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। कथित विकास पर्यावरण को हर दिन, हर समय, हर जगह लील रहा है। प्रकृति को नुकसान पहुँचाने के परिणाम भी अब दिखने लगे हैं जब पिछले दिनों नेपाल में आए विनाशकारी भूकम्प में 8000 से अधिक लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी और इसके साथ ही भारी जान-माल का नुकसान भी हुआ।
दिल्ली एनसीआर सहित पूरे उत्तर भारत में भी भूकम्प के तगड़े झटके महसूस किए गए। पर सौभाग्य से ये बड़ा खतरा टल गया लेकिन पूरी दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस तरह के बड़े खतरे मसलन भूकम्प, बाढ़, बर्फबारी, सुनामी कब तक टलते रहेंगे। क्योंकि दुनिया भर में मौसम बदल रहा है जबरदस्त ठंड और जबरदस्त गर्मी के साथ ठंड के मौसम में बरसात, बरसात के मौसम में ठंड होने लगी है।
ऋतु चक्र में बड़ा परिवर्तन दिखने लगा है कब कौन सा मौसम हो जाए अब उसका अनुमान लगाना भी कठिन होने लगा है। बेमौसम बरसात की वजह से ही पूरे देश में 100 लाख हेक्टेयर से ज्यादा की फसल बर्बाद हो गई। इसी वजह से देश एक बड़े कृषि संकट से गुजर रहा है। ये सब जलवायु परिवर्तन और प्रकृति से छेड़छाड़ करने की वजह से हो रहा है जिसके नतीजे आगे भी विनाशकारी ही होंगे।
पूरी दुनिया जिस तरह कथित विकास की दौड़ में अन्धी हो चुकी है उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल मानव सभ्यता का विनाश निश्चित है। प्राकृतिक आपदाओं का आना और उनका टलना हमें बार-बार चेतावनी दे रहा है कि अभी भी समय है और हम अपनी बेहोशी से जाग जाएँ नहीं तो कल कुछ भी नहीं बचने वाला।
एक वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार पिछले महीने छह से 12 अप्रैल के बीच के सप्ताह में पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 404.02 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) पहुँच गया, जो मानव इतिहास में सर्वाधिक है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के लिए कार्बन डाइऑक्साइड के मानक स्तर (350 पीपीएम) से यह 15 फीसदी अधिक है।
हवाई स्थित ‘मौना लोवा ऑब्जर्वेटरी’ (एमएलओ) के अनुसार, फरवरी, मार्च और अप्रैल महीने के लिये कार्बन डाइऑक्साइड का औसत स्तर 400 पीपीएम से अधिक रहा। इतिहास में पहली बार तीनों महीनों में कार्बन डाइऑक्साइड का सर्वाधिक स्तर दर्ज किया गया। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर ने नौ मई, 2013 को पहली बार 400 पीपीएम को छुआ था।
अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा किए गए ‘कार्बन इन आर्कटिक रिजर्वायर्स वल्नरेबिलिटी एक्सपेरिमेंट’ के मुख्य जाँचकर्ता चार्ल्स मिलर के अनुसार, पिछले 10 लाख वर्षों में इस समय वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 100 पीपीएम अधिक है। (संभव है यह स्तर पिछले 2.5 करोड़ वर्षों में सर्वाधिक हो)। मिलर ने कहा, “पृथ्वी के पर्यावरण में आए इस बदलाव का सबसे अहम पहलू यह है कि पिछले कुछ दशकों से कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में तेजी से इज़ाफा हो रहा है, अर्थात भविष्य में इसमें और तेजी से वृद्धि होगी।” हवाई स्थित ऑब्जर्वेटरी एमएलओ 1958 से पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर पर नजर रहा है, जिसके अनुसार हर वर्ष इसके स्तर में 82.58 पीपीएम की वृद्धि हो जाती है।
वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्ष में जैविक ईंधन के जलने की वजह से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सेल्शियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो सन् 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी।
पूरी दुनिया पूँजीवाद के पीछे इस समय इस तरह से भाग रही है कि उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख नहीं रहा है वास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोत्तरी कर देने को विकास माना जा सकता है- जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिन्दगी प्राकृतिक आपदाओं, बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प।
इंडियास्पेंड के मुताबिक, कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता स्तर भारत के लिये भी चिन्ता का विषय है, क्योंकि बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के कारण देश कृषि संकट से जूझ रहा है। इस बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि को जलवायु परिवर्तन का परिणाम माना जा रहा है। भारत दुनिया में तीसरा सर्वाधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाला देश है। पर्यावरण परिवर्तन पर 2014 में आई संयुक्त राष्ट्र की अन्तर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) की रिपोर्ट के अनुसार, कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर का सम्बन्ध पिछले 35 वर्षों में महासागरीय और धरातलीय तापमान में वृद्धि समुद्र तल के बढ़ने से है। कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते स्तर का विशेष तौर पर भारत पर क्या असर होगा, इसका कोई आकलन मौजूद नहीं है।आईपीसीसी की एक रिपोर्ट में और अनेक अध्ययनों में बेमौसम बारिश और मौसम में असमय परिवर्तन की बात सामने आ चुकी है, जिसके कारण देश में किसानों, कृषि, अर्थव्यवस्था और नीतियों को लेकर संकट की स्थिति झेलनी पड़ रही है। कार्बन उत्सर्जन को लेकर भारत के आँकड़े चिन्तित करने वाले हैं। भारत का प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जन स्तर 1.9 मीट्रिक टन है, जो विश्व औसत के हिसाब से तीसरे स्थान पर है और चीन का चौथाई तथा अमेरिका का 1.10 है। भारत जिस गति से औद्योगीकरण और नगरीकरण की ओर बढ़ रहा है, उसका वैश्विक तापमान वृद्धि में काफी असर है। भारत में दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहर हैं।
भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने हालांकि भविष्य में अधिक-से-अधिक सौर ऊर्जा और नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। मोदी ने हाल ही में ‘टाइम’ पत्रिका को दिये साक्षात्कार में कहा है, “मेरे खयाल से यदि आप दुनिया पर नजर डालें और जलवायु परिवर्तन को देखें तो दुनिया का जो हिस्सा प्राकृतिक नेतृत्व प्रदान कर सकता है, वह यही हिस्सा है।” कुल मिलाकर नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बढ़ाने के लिये प्रयास होने चाहिए। भारत इस मामले में गैर समझौताकारी वैश्विक दृष्टि अपना सकता है, लेकिन एमएलओ से मिले आँकड़ों को चेतावनी के तौर पर लिया जाना चाहिए।
सच्चाई यह है कि अगर विश्व भर के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिये पर्याप्त कदम नहीं उठाए तो दुनिया को सर्वनाश से कोई नहीं बचा सकता है। हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकला है। दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे हैं।
पूरी दुनिया पूँजीवाद के पीछे इस समय इस तरह से भाग रही है कि उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख नहीं रहा है वास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोत्तरी कर देने को विकास माना जा सकता है- जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिन्दगी प्राकृतिक आपदाओं, बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गम्भीर होना होगा नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिये हमें तैयार रहना होगा।
पर्यावरण सुरक्षा तो हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए। यह सामुदायिक के साथ-साथ व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी है।
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