वास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है, वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है, जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा। पर्यावरण सुरक्षा हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए।जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में खाद्यान्न संकट की चेतावनी वाली संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट वास्तव में चिंताजनक स्थिति की ओर इशारा करती है।
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल की नई रिपोर्ट ने दुनियाभर में चेतावनी की घंटी बजा दी है। जापान में जलवायु परिवर्तन 2014 : प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश के लिए तो यह काफी खतरनाक हो सकता है, जो मानसून पर ही निर्भर है।
जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट ही रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जाएंगी। हाल ही में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुई ओलावृष्टि से गेहूं, कपास, ज्वार, प्याज जैसी फसलें खराब हो गई थीं। ये घटनाएं भी आईपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर की गई भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि इससे खराब हुए भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है। आईपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी और चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के ऊपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गई है। इसलिए भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिए अभी से सकारात्मक कदम उठाने होंगे।
तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट दरअसल सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिए इन्हें हटाकर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना अब हमारी जरूरत और मजबूरी दोनों बन गया है। नई सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवाई करते हुए स्वच्छ ऊर्जा से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए। विडंबना ही है कि पिछले कुछ सालों से पर्यावरण संबंधी इस तरह की रिपोर्ट और चेतावनी आने के बावजूद पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश के राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकतर राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण संबंधी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा है। देश में हर जगह, हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है, लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है। ऐसे विकास को क्या कहें, जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो।
पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लायमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षो में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। देश के सभी क्षेत्र ग्लोबल वार्मिग के कहर का शिकार होंगे। 120 संस्थाओं और लगभग 500 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कृषि, जल, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता व स्वास्थ्य ग्लोबल वार्मिग से उत्पन्न समस्याओं से जूझते रहेंगे। वर्ष 2030 तक औसत सतही तापमान में 1.7 से 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। इस रिपोर्ट में चार भौगोलिक क्षेत्रों- हिमालय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, पश्चिमी घाट व तटीय क्षेत्र- के जरिए पूरे देश पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन किया गया है। इन चारों क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि के कारण बारिश और गर्मी-ठंड पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर संभावित परिणामों का अनुमान लगाया गया है। यह रिपोर्ट बढ़ते तापमान के कारण समुद्री जलस्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों में आनेवाले चक्रवातों पर भी प्रकाश डालती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण सर्दी और गर्मी के मौसम में मरने वालों की संख्या बढ़ी है। पिछले कुछ वर्षो में भारत में बदलते मौसम के दौरान हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई है। भारत में लू लगने से हाइपोथेमिया और हृदय व सांस से संबंधित रोगी बढ़ रहे हैं। भारत, बांग्लादेश और मलेशिया में जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल डेंगू, मलेरिया, डायरिया, चिकनगुनिया और जापानी इंसेफेलाइटिस के कारण काफी तादाद में मौतें होती हैं। वहीं वायरल हेपेटाइटिस के मरीजों की संख्या में तेजी आई है। बदलते मौसम के कारण बीमारियों के प्रति मनुष्य का शरीर संतुलन नहीं बना पा रहा है, जिससे हर साल मौतों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। भारत में बदलते मौसम की मार अन्य देशों की अपेक्षा ज्यादा है। सरकार को अपनी योजना में इस ओर भी ध्यान देना होगा कि जलवायु बदलाव के इस दौर में उसकी मशीनरी गंभीर आपदाओं व प्रतिकूल मौसम के लिए कहीं अधिक तैयार रहे।
वास्तव में सिर्फ जनसख्या वृद्वि ही पर्यावरणवास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है, वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औोगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है, जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा। पर्यावरण सुरक्षा हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए। यह सामुदायिक के साथ-साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। ग्रीनपीस इंडिया ने भारतीय नेताओं से रिपोर्ट दी गई चेतावनी पर ध्यान देते हुए कहा है कि नई सरकार सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ आयोजित जलवायु सम्मेलन में गंभीर प्रस्तावों के साथ भाग ले, जो दुनिया और भारत को स्वच्छ और सुरक्षित ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करे। इसलिए क अगर विश्वभर के नेताओं ने विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए तो दुनिया को सर्वनाश से कोई नहीं बचा सकता है।
ईमेल- dwivedi.shashank15@gmail.com
(लेखक विज्ञानपीडिया.कॉम के संपादक हैं)
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल की नई रिपोर्ट ने दुनियाभर में चेतावनी की घंटी बजा दी है। जापान में जलवायु परिवर्तन 2014 : प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश के लिए तो यह काफी खतरनाक हो सकता है, जो मानसून पर ही निर्भर है।
जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट ही रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जाएंगी। हाल ही में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुई ओलावृष्टि से गेहूं, कपास, ज्वार, प्याज जैसी फसलें खराब हो गई थीं। ये घटनाएं भी आईपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर की गई भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिए खतरा है, क्योंकि इससे खराब हुए भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है। आईपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी और चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के ऊपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गई है। इसलिए भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिए अभी से सकारात्मक कदम उठाने होंगे।
तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट दरअसल सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिए इन्हें हटाकर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना अब हमारी जरूरत और मजबूरी दोनों बन गया है। नई सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवाई करते हुए स्वच्छ ऊर्जा से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए। विडंबना ही है कि पिछले कुछ सालों से पर्यावरण संबंधी इस तरह की रिपोर्ट और चेतावनी आने के बावजूद पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश के राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकतर राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण संबंधी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा है। देश में हर जगह, हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है, लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है। ऐसे विकास को क्या कहें, जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो।
पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लायमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षो में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। देश के सभी क्षेत्र ग्लोबल वार्मिग के कहर का शिकार होंगे। 120 संस्थाओं और लगभग 500 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कृषि, जल, पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता व स्वास्थ्य ग्लोबल वार्मिग से उत्पन्न समस्याओं से जूझते रहेंगे। वर्ष 2030 तक औसत सतही तापमान में 1.7 से 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। इस रिपोर्ट में चार भौगोलिक क्षेत्रों- हिमालय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, पश्चिमी घाट व तटीय क्षेत्र- के जरिए पूरे देश पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन किया गया है। इन चारों क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि के कारण बारिश और गर्मी-ठंड पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन कर संभावित परिणामों का अनुमान लगाया गया है। यह रिपोर्ट बढ़ते तापमान के कारण समुद्री जलस्तर में वृद्धि और तटीय क्षेत्रों में आनेवाले चक्रवातों पर भी प्रकाश डालती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण सर्दी और गर्मी के मौसम में मरने वालों की संख्या बढ़ी है। पिछले कुछ वर्षो में भारत में बदलते मौसम के दौरान हजारों लोगों ने अपनी जान गंवाई है। भारत में लू लगने से हाइपोथेमिया और हृदय व सांस से संबंधित रोगी बढ़ रहे हैं। भारत, बांग्लादेश और मलेशिया में जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल डेंगू, मलेरिया, डायरिया, चिकनगुनिया और जापानी इंसेफेलाइटिस के कारण काफी तादाद में मौतें होती हैं। वहीं वायरल हेपेटाइटिस के मरीजों की संख्या में तेजी आई है। बदलते मौसम के कारण बीमारियों के प्रति मनुष्य का शरीर संतुलन नहीं बना पा रहा है, जिससे हर साल मौतों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। भारत में बदलते मौसम की मार अन्य देशों की अपेक्षा ज्यादा है। सरकार को अपनी योजना में इस ओर भी ध्यान देना होगा कि जलवायु बदलाव के इस दौर में उसकी मशीनरी गंभीर आपदाओं व प्रतिकूल मौसम के लिए कहीं अधिक तैयार रहे।
वास्तव में सिर्फ जनसख्या वृद्वि ही पर्यावरणवास्तव में जिसे विकास समझा जा रहा है, वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औोगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है, जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा। पर्यावरण सुरक्षा हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर होना चाहिए। यह सामुदायिक के साथ-साथ व्यक्तिगत जिम्मेदारी है। ग्रीनपीस इंडिया ने भारतीय नेताओं से रिपोर्ट दी गई चेतावनी पर ध्यान देते हुए कहा है कि नई सरकार सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ आयोजित जलवायु सम्मेलन में गंभीर प्रस्तावों के साथ भाग ले, जो दुनिया और भारत को स्वच्छ और सुरक्षित ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करे। इसलिए क अगर विश्वभर के नेताओं ने विनाशकारी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए तो दुनिया को सर्वनाश से कोई नहीं बचा सकता है।
ईमेल- dwivedi.shashank15@gmail.com
(लेखक विज्ञानपीडिया.कॉम के संपादक हैं)
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