खतरे में पड़ गए हैं पंच तत्व


मुझे हैरत थी कि अपनी पंद्रह वर्ष की आयु तक मैंने पर्यावरण का नाम तक न सुना था

पंच तत्व, जिसे प्राचीन भारत में जीवन का आधार माना गया, आज खतरे में पड़ गए हैं। मैंने पुत्र से कहा कि मात्र जागरूकता से काम नहीं बनेगा बल्कि इसके लिये हमें सक्रिय भी होना होगा। तभी हम प्रदूषण से उभरी चुनौतियों से निबट सकते हैं। पिछले दिनों मैं अपने पुत्र से बतिया रहा था कि दिल्ली को किस तरह त्वचा को जला डालने वाली गरमी ने हलकान किया हुआ है। बता रहा था कि गरम हवाओं के आगे किस तरह एयर कंडीश्नर तक नाकाम हो गए हैं। मैं अंचभित रह गया जब उसने बताया कि स्कूल में उन्होंने पढ़ा है कि यह सब वातावरण में प्रदूषण के कारण है, और गरमाते विश्व के कारण हमें यह सब भोगना पड़ रहा है। मुझे हैरत इस बात पर थी कि अपनी 15 वर्ष की आयु तक मैंने पर्यावरण का नाम तक न सुना था। मेरे पुत्र को यह पता चला तो वह हैरत में पड़ गया।

उत्तर भारत के विभिन्न शहरों में पला-बढ़ा होने के कारण वायु प्रदूषण जैसा शब्द मेरे लिये अंजाना था। हम तो सीधे नलके की टोटी से पानी पीते थे; बोतलबंद पानी या वॉटरप्योरिफायर नहीं था उस समय। इसके बाद मैंने पुत्र को बताया कि पहले पहल मैंने प्रदूषण के बारे में 1990 के दशक में एक अखबार में प्रकाशित लेख को पढ़कर जाना। लेख में भविष्यवाणी की गई थी कि 2000 में दिल्ली कैसा शहर हो जाएगा। उस समय दिल्ली की सड़कों पर बहुत थोड़ी कारें होती थीं-एम्बेसेडर या मारुति 800। ज्यादातर लोग सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते थे। इसके बावजूद लेख में भविष्यवाणी की गई थी कि शहर की हवा इस कदर प्रदूषित हो जाएगी कि लोगों को मास्क लगाने पड़ेंगे। पानी इस कदर प्रदूषित हो जाएगा कि संशोधित पानी खरीदना पड़ेगा। मेरा पुत्र इस भविष्यवाणी का जिक्र सुनकर अवाक रह गया।

मैंने उसे बताया कि अब तो हम एक अलग ही दुनिया में रहते हैं। जन्म लेने से पूर्व ही बच्चे प्रदूषण की जद में आ जाते हैं। हालिया अध्ययनों के मुताबिक, वायु और ध्वनि प्रदूषण से गर्भस्थ भ्रूण का विकास प्रभावित होता है। हालांकि पर्यावरण के प्रदूषण और इसके कुप्रभावों की बाबत स्कूलों में पढ़ाया जाता है, लेकिन इसके बावजूद प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई में हमें शिकस्त मिल रही है। मेरे पुत्र ने पूछा, ‘तो हम इस लड़ाई को कब खत्म कर पाएंगे?’ मैंने कहा कि हमें देश में प्रदूषण की मौजूदा स्थिति से शुरुआत करनी होगी बल्कि उससे भी पहले अपने आसपास के प्रदूषण पर ध्यान देना होगा। मैंने वॉटर प्योरिफायर की ओर संकेत करते हुए कहा कि ‘क्यों न अपने किचन से ही शुरुआत करें?’ उसके लिये और अनेक अन्य लोगों के लिये वॉटर प्योरिफायर एक आम उपकरण है, और इसी प्रकार बोतलबंद पानी खरीदना भी आम बात है। मैंने उसे ध्यान दिलाया कि वॉटर प्योरिफायर और बोतलबंद पानी की मौजूदगी इस बात का संकेत है कि हम बेहद ज्यादा प्रदूषित पानी वाले इलाकों में रहते हैं। जब मैंने उसे बताया कि हम तो नदियों से सीधे ही पानी पी लेते थे, तो वह एकदम से चीख उठा, ‘‘मैं तो यमुना नदी के पानी को छू भर लेने की कल्पना तक नहीं कर सकता, इसे पीने का तो सवाल ही नहीं है। इस पानी को छू लेने भर से त्वचीय संक्रमण हो सकता है।’’

नदियां कभी होती थीं बेहद स्वच्छ


आज हमारी नदियां और झीलें सीवेज के गंदे पानी तथा भूमिगत जल कीटनाशकों, उर्वरकों और औद्योगिक रसायनों से प्रदूषित हो रही हैं। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कभी नदियां भी स्वच्छ-साफ होती थीं। मैंने उसे कहा कि संभवत: हम फिर से साफ पानी वाली नदियां देख पाएंगे लेकिन इसके लिये नदियों की साफ-सफाई करनी होगी। भूमिगत जल को भी जलदायी परतों को लबरेज करके साफ करना होगा। स्वच्छ जल के प्रति जागरूक होना होगा। मतलब कि जल को दुर्लभ संसाधन मानना होगा। पानी के कम इस्तेमाल, उसके पुनर्चक्रीकरण और घरों, दुकानों और फैक्टरियों से निकलने वाले इस्तेमालशुदा पानी को फिर से इस्तेमाल लायक बनाना होगा। मैंने उसे एक लेख के आंकड़े दिखाते हुए बताया कि भारतीय शहरों में हवा भी गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती। उसे याद दिलाया कि पिछली सर्दियों में हमें किस कदर मास्क लगाने पड़े थे। घर में वायुशोधक लगाना पड़ा था। हम भाग्यशाली थे कि ऐसे उपकरण जुटा सके। लेकिन हर साल वायु प्रदूषण से सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है। अधिकांश भारतीय इतने संपन्न नहीं हैं कि मास्क और प्योरिफायर इस्तेमाल कर सकें। मेरे पुत्र का मुंह उतर गया। उसने पूछा कि ऐसे में हालात को कैसे बदला जा सकता है। मैंने कहा कि ‘हमें अपनी आवाजाही, फैक्टरियों के संचालन और शहरों की हरियाली के संरक्षण की ओर ध्यान देना होगा।’ बताया कि इस क्रम में हम सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल शुरू कर सकते हैं।

उसने मुझसे पूछा कि हम जान-बूझकर अपनी धरती का इस तरह से क्षरण क्यों कर रहे हैं, जबकि जानते हैं कि यही एकमात्र स्थान है, जहाँ हम पनाह पा सकते हैं। मैंने कहा कि हमारी हर दिन की कारगुजारियां जैसे कि जीवाश्म ईंधन जलाना आदि ग्लोबल वार्मिग का सबब बन गई हैं। बीते सौ वर्षो के दौरान पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ा है। जिस रफ्तार से हम कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं, उसे देख लगता है कि आने वाले दशकों में कोई बड़ी विनाशकारी घटना घट सकती है। अच्छी खबर यह है कि हमारे पास अब ऐसी कारगर तकनीक है, जिससे कार्बन के असर को कम किया जा सकता है। हम सूर्य और वायु से भी ऊर्जा पैदा कर सकते हैं। सौर तथा पवन ऊर्जा सस्ती पड़ रही हैं।

अंतरिक्ष में बढ़ रहे प्रदूषण पर भी हमारे बीच चर्चा हुई। हमारा बाह्य अंतरिक्ष उन हजारों उपग्रहों की कचरा पेटी बन गया है, जो हमने बीते सत्तर वर्षो के दौरान लांच किए हैं। अपने स्कूल में उसने पढ़ा है कि यह कूड़ा पृथ्वी पर हम रहने वालों की जान को खतरा बन गया है, क्योंकि कभी भी यह बड़ी तेज गति से धरती पर गिर सकता है। उसके बाद मैंने उसे एक अन्य अंतरिक्ष के बारे में बताया जो धरती और आकाश के बीच है। यह समताप मंडल भी सेल-फोन के रेडिएशन से प्रदूषित हो रहा है। मैंने उसके मोबाइल फोन और वाईफाई से होने वाले नुकसान के बारे में बताया। हालांकि संपर्क के ये शानदार उपकरण हैं, लेकिन इनसे निकलने वाले रेडिएशन से अंतरिक्ष प्रदूषित हो रहा है, जिससे मानव जीवन, पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को खतरा पैदा हो गया है।

उसे बताया कि हालांकि अग्नि ने मानव सभ्यता को स्वरूप दिया था, लेकिन अगर इसका विवेकपूर्ण इस्तेमाल नहीं किया गया तो यह मानवता के खात्मे की सबब भी बन सकती है। अग्नि ने हमें बनाया है, तो हमें खत्म भी कर सकती है। उसने कहा, ‘‘हमारे लिये जरूरी है कि हम एक साथ मिलकर खतरनाक हथियारों के इस्तेमाल को समाप्त करने की मांग करें।’’

कहना न होगा कि पंच तत्व, जिसे प्राचीन भारत में जीवन का आधार माना गया, आज खतरे में पड़ गए हैं। मैंने पुत्र से कहा कि मात्र जागरूकता से काम नहीं बनेगा बल्कि इसके लिये हमें सक्रिय भी होना होगा। तभी हम प्रदूषण से उभरीं चुनौतियों से निबट सकते हैं। पृथ्वी को बचाने के लिये हमें अपनी जीवन-शैली में बदलाव लाना होगा। हमारे इस प्रयास के खिलाफ कोई भी सरकार साथ नहीं हो सकती। यह सब हमें अपने से ही करना होगा। अपनी धरा को संरक्षित करिए और बदले में शुद्ध वायु, शुद्ध जल, अग्नि, भूमि और शुद्ध अंतरिक्ष का उपहार पाइए। उम्मीद करता हूं कि आगामी तीस वर्षो में मेरा पुत्र और उसकी अगली पीढ़ी आज प्रदूषण के इस दु:स्वप्न के बारे में लिखते हुए बता रहे होंगे कि किस तरह मानवता ने मिलकर इसका खात्मा किया।

चंद्र भूषण, डिप्टी डायरेक्टर जनरल, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट

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