मध्य प्रदेश और गुजरात की जीवन रेखा कहलाने वाली नर्मदा नदी अपने उद्गम स्थल अमरकंटक के चप्पे-चप्पे को प्राकृतिक सौंदर्य, ऐतिहासिकता और समृद्ध परम्पराओं की सुगंध देती है। अमरकंटक एक तीर्थस्थान व पर्यटन केंद्र ही नहीं, बल्कि प्राकृतिक चमत्कार भी है। हिमाच्छादित न होते हुए भी यह पांच नदियों का उद्गम स्थल है। इनमें से दो सदानीरा, विशाल नदियां हैं जिनका प्रवाह परस्पर विपरीत दिशाओं में है। हाल ही में मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड ने नर्मदा की बायोमानिटरिंग करवाई तो पता चला कि केवल दो स्थानों को छोड़कर नर्मदा नदी आज भी स्वच्छ है। जिन दो स्थानों पर नदी की हालत चिंताजनक दिखी, उनमें एक अमरकंटक ही है।
चिरकुमारी नर्मदा पश्चिममुखी है और यह 1304 किलोमीटर की यात्रा तय करती है जबकि सोन नदी का बहाव पूर्व दिशा में 784 किमी तक है। इसके अलावा जोहिला, महानदी का भी यहां से उद्गमस्थल है। यहां प्रचुर मात्रा में कीमती खनिजों का मिलना, इस सुरम्य प्राकृतिक सुषमा के लिए दुश्मन साबित हो रहा है। तेजी से कटते जंगलों, कंक्रीट के जंगलों की बढ़ोतरी और खदानों से बाक्साइट के अंधाधुंध उत्खनन के चलते यह पावन भूमि तिल दर तिल विनाश और आत्मघात की ओर अग्रसर है।
मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में मैकल पर्वत श्रेणी की अमरकंटक पहाड़ी समुद्र की सतह से कोई 3,500 फीट ऊंचाई पर है। यहीं नर्मदा, सोन व अन्य नदियों का उद्गम स्थल है। चाहे स्कंद पुराण हो या फिर कालिदास की काव्य रचना, हरेक में इस पावन भूमि का उल्लेख है। नर्मदा और सोन दोनों ही भूमिगत जल-स्रोतों से उपजी हैं। नर्मदा 'माई की बगिया' में पहले पहल दिखकर गुम हो जाती है। फिर यह 'नर्मदा कुंड' से बहती दिखती है। अमरकंटक पहाड़ी पर मौजूद कई भूगर्भ जल स्रोत ही नर्मदा नदी के स्रोत हैं। वहां मौजूद शिलालेख और हालात बताते हैं कि 15वीं सदी के आस-पास से नर्मदा का उद्गम-स्थल 'नर्मदा कुंड' रहा है। इससे पूर्व पार्श्व में स्थित 'सूर्यकुंड' नर्मदा की जननी रहा होगा। आज सूर्यकुंड की हालत बेहद खराब है। यह स्थान गंदा और उपेक्षित-सा पड़ा है। स्पष्ट है कि महज चार सौ सालों के अंतराल में नर्मदा का उद्गम स्थल खिसक आया है।
अमरकंटक के जिन घने अरण्यों का वर्णन प्राचीन साहित्य में मिलता है, उनकी हरियाली अब यहां देखने को नहीं मिलती है। इस विनाश का मुख्य जिम्मेदार यहां की जमीन में पाया जाने वाला एल्यूमीनियम का अयस्क 'बाक्साइट' है। 'स्थानीय पर्यावरण की सबसे बड़ी दुश्मन' बाक्साइट खदानों से खनन की शुरुआत 1962 में हिंदुस्तान एल्यूमीनियम कम्पनी (हिंडाल्को) ने की थी। तब सरकार ने इस कम्पनी को 480 हेक्टेयर जमीन पर खुदाई का पट्टा दिया था। फिर केंद्र सरकार के उपक्रम भारत एल्यूमीनियम कम्पनी (बाल्को) ने यहां खनन शुरू कर दिया।
इन दोनों कम्पनियों ने खनन अधिनियमों को बलाए-ताक पर रखकर इस तपोभूमि को यहां-वहां खूब उजाड़ा। जंगल काटे गए। डायनामाइट लगाकर गहराई तक जमीन को छेदा गया। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में सहायक पहाड़, पेड़ और कई छोटे-बड़े जल-स्रोत इस खनन की चपेट में आ गए हैं। हालांकि सरकार ने 1990 के बाद नई खदानों का पट्टा देने से इनकार कर दिया है लेकिन 'चिडि़या के खेत चुग लेने के बाद पछताने' से क्या होता है।
अमरकंटक की पहाड़ियों पर बाक्साइट की नई-नई खदानें बनाने के लिए वहां खूब पेड़ काटे गए। इन खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूर भी र्इंधन के लिए इन्हीं जंगलों पर निर्भर रहे। सो पेड़ों की कटाई अनवरत जारी है। पहाड़ों पर पेड़ घटने से बरसात का पानी खनन के कारण एकत्र हुई धूल को तेजी से बहाता है। यह धूल नदियों को उथला बना रही है। मैकल पर्वत श्रृंखला से बेतरतीब ढंग से बाक्साइट खुदाई के कारण बन गई बड़ी-बड़ी खाइयां यहां की बदसूरती व पर्यावरण असंतुलन में इजाफा कर रही हैं। खनिज निकालने के लिए किए जा रहे डायनामाइट विस्फोटों के कारण इस क्षेत्र का भूगर्भ काफी प्रभावित हुआ है। शीघ्र ही यहां जमीन के समतलीकरण और पौधरोपण की व्यापक स्तर पर शुरुआत नहीं की गई तो पुण्य सलिला नर्मदा भी खतरे में आ जाएगी।
अमरकंटक के जंगल दुर्लभ वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों और वन्य प्राणियों के लिए मशहूर रहे हैं। कुछ साल पहले यहां अद्भुत सफेद भालू मिला था, जो इन दिनों भोपाल चिड़ियाघर में है। खदानों में विस्फोटों के धमाकों से जंगली जानवर भारी संख्या में पलायन कर रहे हैं। 'गुलाब काबली' के फूल कभी यहां पटे पड़े थे, अब यह दुर्लभ जड़ी-बूटी बमुश्किल मिलती है। इस फूल का अर्क आंखों की कई बीमारियों का अचूक नुस्खा है। इसके अलावा भी आयुर्वेद का बेशकीमती खजाना यहां खनन ने लूट लिया है। अब पौधरोपण के नाम पर यहां यूकलिप्टस उगाया जा रहा है, जिसके साये में जड़ी बूटियां तो उग नहीं सकतीं, उल्टे यह जमीन के भीतर का पानी जरूर सोख लेता है।
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