भारत अगले दस साल में 8-9 फीसद वृद्धि का लक्ष्य पाने का इरादा रखता है जबकि बहानेबाजी के अलावा समय और कोयला हाथ से सरकता जा रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष में भारत ने 50 मिलियन टन से अधिक जीवाश्म ईंधन का आयात किया, जिसने पहले से खतरनाक स्तर तक पहुंच चुके वित्तीय घाटे को और गहरा कर दिया है। 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज’ नाम से रिपोर्ट जारी की थी जिसमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन दर में कटौती और देश को हरे-भरे भविष्य की ओर ले जाने की बात की गई थी। पश्चिमी दिल्ली की रहनेवाली एक गृहणि सुनीता वर्मा के लिए बीते साल 2012 के गर्मी के दिन भयावह रूप से पीड़ादायी रहे। उन्हें रोज़ाना दस घंटों तक की बिजली कटौती के कड़वे अनुभव से गुजरना पड़ा। अब जबकि इस साल गर्मियों के दिन शुरू हो गए हैं, सुनीता खुद ही युद्ध स्तर पर गर्मी की मार झेलने की तैयारी कर रही हैं। सुनीता को बखूबी पता है कि उनके जैसे ढेरों देशवासी इसके लिए महज सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते। भारत में तय सीमा और सरकारी योजनाओं की एक खास प्रवृत्ति है कि वे कभी साथ नहीं आगे बढ़ते। हर पंचवर्षीय योजना के साथ सरकार बिजली उत्पादन में क्षमता विस्तार का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करती है लेकिन उपलब्धि के धरातल पर यह लक्ष्य कहीं दूर छूट जाता है। जैसे 8वीं, 9वीं, और 10वीं योजना अवधियों में नियोजित लक्ष्यों में से केवल आधी क्षमता विस्तार को ही हासिल किया जा सका। 11वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार एक बार फिर 10 गीगावाट के अंतर से लक्ष्य प्राप्त करने में रह गई, जिसे अब 12वीं योजना में फिर से शामिल किया जा रहा है। हरेक नई योजना के साथ सरकार उद्देश्य और लक्ष्यभेदन की ओर आगे बढ़ती रहती है। इसके फलस्वरूप क्षमता वृद्धि की स्थिति बेहद खराब रही है, जिससे पीक टाइम में बिजली घाटा दस फीसद तक चला गया है। अभी तो गर्मी की शुरुआत ही हुई है और उधर उत्तर प्रदेश में इस कदर बिजली संकट गहरा गया है कि 2012 में 1739 मेगावाट से 2013 में 6,832 मेगावाट की मांग व आपूर्ति की भयंकर खाई पैदा हो गई है। दो दिनों में ही राष्ट्रीय राजधानी के एक हिस्से ने 280 मेगावाट की बिजली कटौती की वजह से खुद को अंधेरे में पाया है।
इसके अतिरिक्त देश में केंद्रीकृत ग्रिड आधारित ऊर्जा प्रणाली, जो मुख्य तौर पर कोयले से चलती है, आबादी की बढ़ती मांग को समान रूप से पूरा करने में नाकाम रही है। इसके पीछे कारण है – 11वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने अपनी विद्युत आपूर्ति श्रृंखला में 52 गीगावाट को जोड़ा है। ग्रामीण आबादी को तो सरकार 12 गीगावाट भी नहीं उपलब्ध करा सकी। भारत में करीब 30 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें आधुनिक विद्युत व्यवस्था के तहत अपने घर में बिजली का बल्ब रोशन होते देखना बाकी है। भले हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने को कहे पर अब भी देश में बिजली प्रदान करने वाल तंत्र से असमानता बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ दिल्ली व पंजाब जैसे राज्य हैं जहां प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग क्रमशः 1,688 और 1,799 यूनिट है जो राष्ट्रीय औसत 743 यूनिट से दोगुना से भी ज्यादा है। वहीं दूसरी ओर बिहार जैसे गरीब राज्य भी है जहां के लोग राष्ट्रीय औसत का पांचवां हिस्सा बिजली प्राप्त करने के लिए जूझ रहे हैं।
दरअसल, ऊर्जा क्षेत्र आधिकारिक रूप से लगातार भ्रष्ट व दिवालिया होती जाती सरकारी ऊर्जा कंपनियों, बिजली उत्पादन व वितरण के दरम्यान होनेवाले करीब एक चौथाई नुकसान जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं। साथ ही ये कंपनियां सरकारी वर्चस्व का पर्याय माने जानेवाली उस कोल इंडिया की विफलता का ख़ामियाज़ा भी भुगत रही है जो प्रदूषित ईंधन की हमारी लत को पूरा करने के लिए बेतहाशा कोयले का उत्खनन कर पावर प्लांट चला रहा है।
भारत के 89 कोयला आधारित पावर प्लांटों में से 18 के पास चार दिन से कम का ही कोयला भंडार शेष है अगर इस बीच नई आपूर्ति उन्हें नहीं मिल जाती है। साधारण शब्दों में कहें तो देश का ऊर्जा क्षेत्र मरणासन्न है। सरकार को एकसाथ हरसंभव प्रयास करने की जरूरत है, क्योंकि बेतहाशा बढ़ रही आबादी के लिए कभी न खत्म होने वाली मांग को पूरा करने का दबाव बढ़ता ही जाएगा। अनुमानों के मुताबिक भारत की कुल संस्थापित क्षमता 209.08 गीगावाट है और 2017 तक भारत की पीक डिमांड 335 गीगावाट बढ़ने की उम्मीद है। इस उच्चतम मांग को पूरा करने के लिए भारत को अपनी कुल संस्थापित क्षमता को दोगुना करके 415-440 गीगावाट तक पहुंचाना होगा।
भारत अगले दस साल में 8-9 फीसद वृद्धि का लक्ष्य पाने का इरादा रखता है जबकि बहानेबाजी के अलावा समय और कोयला हाथ से सरकता जा रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष में भारत ने 50 मिलियन टन से अधिक जीवाश्म ईंधन का आयात किया, जिसने पहले से खतरनाक स्तर तक पहुंच चुके वित्तीय घाटे को और गहरा कर दिया है। 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज’ नाम से रिपोर्ट जारी की थी जिसमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन दर में कटौती और देश को हरे-भरे भविष्य (ग्रीनर फ़्यूचर) की ओर ले जाने की बात की गई थी। अपने कार्यक्रम के मुताबिक सरकार ने 2020 तक भारत के कुल बिजली उत्पादन का 15 प्रतिशत हिस्सा अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हासिल करने का राष्ट्रीय लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य मोटे तौर पर पारंपरिक ही है।
इसके अतिरिक्त देश में केंद्रीकृत ग्रिड आधारित ऊर्जा प्रणाली, जो मुख्य तौर पर कोयले से चलती है, आबादी की बढ़ती मांग को समान रूप से पूरा करने में नाकाम रही है। इसके पीछे कारण है – 11वीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने अपनी विद्युत आपूर्ति श्रृंखला में 52 गीगावाट को जोड़ा है। ग्रामीण आबादी को तो सरकार 12 गीगावाट भी नहीं उपलब्ध करा सकी। भारत में करीब 30 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें आधुनिक विद्युत व्यवस्था के तहत अपने घर में बिजली का बल्ब रोशन होते देखना बाकी है। भले हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने को कहे पर अब भी देश में बिजली प्रदान करने वाल तंत्र से असमानता बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ दिल्ली व पंजाब जैसे राज्य हैं जहां प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग क्रमशः 1,688 और 1,799 यूनिट है जो राष्ट्रीय औसत 743 यूनिट से दोगुना से भी ज्यादा है। वहीं दूसरी ओर बिहार जैसे गरीब राज्य भी है जहां के लोग राष्ट्रीय औसत का पांचवां हिस्सा बिजली प्राप्त करने के लिए जूझ रहे हैं।
दरअसल, ऊर्जा क्षेत्र आधिकारिक रूप से लगातार भ्रष्ट व दिवालिया होती जाती सरकारी ऊर्जा कंपनियों, बिजली उत्पादन व वितरण के दरम्यान होनेवाले करीब एक चौथाई नुकसान जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं। साथ ही ये कंपनियां सरकारी वर्चस्व का पर्याय माने जानेवाली उस कोल इंडिया की विफलता का ख़ामियाज़ा भी भुगत रही है जो प्रदूषित ईंधन की हमारी लत को पूरा करने के लिए बेतहाशा कोयले का उत्खनन कर पावर प्लांट चला रहा है।
भारत के 89 कोयला आधारित पावर प्लांटों में से 18 के पास चार दिन से कम का ही कोयला भंडार शेष है अगर इस बीच नई आपूर्ति उन्हें नहीं मिल जाती है। साधारण शब्दों में कहें तो देश का ऊर्जा क्षेत्र मरणासन्न है। सरकार को एकसाथ हरसंभव प्रयास करने की जरूरत है, क्योंकि बेतहाशा बढ़ रही आबादी के लिए कभी न खत्म होने वाली मांग को पूरा करने का दबाव बढ़ता ही जाएगा। अनुमानों के मुताबिक भारत की कुल संस्थापित क्षमता 209.08 गीगावाट है और 2017 तक भारत की पीक डिमांड 335 गीगावाट बढ़ने की उम्मीद है। इस उच्चतम मांग को पूरा करने के लिए भारत को अपनी कुल संस्थापित क्षमता को दोगुना करके 415-440 गीगावाट तक पहुंचाना होगा।
भारत अगले दस साल में 8-9 फीसद वृद्धि का लक्ष्य पाने का इरादा रखता है जबकि बहानेबाजी के अलावा समय और कोयला हाथ से सरकता जा रहा है। पिछले वित्तीय वर्ष में भारत ने 50 मिलियन टन से अधिक जीवाश्म ईंधन का आयात किया, जिसने पहले से खतरनाक स्तर तक पहुंच चुके वित्तीय घाटे को और गहरा कर दिया है। 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज’ नाम से रिपोर्ट जारी की थी जिसमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए कार्बन उत्सर्जन दर में कटौती और देश को हरे-भरे भविष्य (ग्रीनर फ़्यूचर) की ओर ले जाने की बात की गई थी। अपने कार्यक्रम के मुताबिक सरकार ने 2020 तक भारत के कुल बिजली उत्पादन का 15 प्रतिशत हिस्सा अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हासिल करने का राष्ट्रीय लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य मोटे तौर पर पारंपरिक ही है।
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