खनन के खिलाफ एक बयान

स्थानीय स्तर से लेकर दुनिया के स्तर तक खनिज और खदानें आज संकटों, संघर्षों, विवादों और घोटालों के केंद्र में हैं। इस स्थिति का तकाजा है कि खनन के बारे में बुनियादी स्तर पर पुनर्विचार किया जाए। धरती की कोख से कितना खनिज निकालें और कब तक, इस खनिज का आखिरकार क्या उपयोग होता है और वह कितना जरूरी है, इसमें किसके हित हैं और किसका नुकसान है, अंधाधुंध खनन के पीछे कौन सी ताक़तें हैं, विकास वृद्धि, भोगवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, आंतरिक उपनिवेश और वैश्वीकरण से इसका क्या रिश्ता है, आदि कई सवाल खड़े होते हैं जिनका जवाब खोजना जरूरी है।

समाजवादी चिंतक और सामयिक वार्ता के संस्थापक संपादक किशन पटनायक उन बिरले मनीषियों में से थे, जिन्होंने काफी पहले से इन संकटों को देखा, सवालों को पहचाना और विकास या वृद्धि के भ्रमजाल को तोड़ते हुए इस बारे में स्पष्ट, खुली और क्रांतिकारी राय रखी। 2001 में ओड़िया पत्र ‘विकल्प विचार’ के संपादकीय के रूप में लिखे गए इस लेख को पहली बार ओड़िया से अनुवाद करके हिंदी में उनकी नवी पुण्यतिथि पर पेश किया जा रहा है।

यह भी एक संयोग है कि इस समय सर्वोच्च न्यायालय के जिस निर्देश के अनुसार नियमगिरि पर्वत में बाक्साईट खनन पर हो रही कंध आदिवासी गाँवों की ग्राम सभाओं पर पूरी दुनिया की नजर है, उसी सुझाव के साथ किशनजी का यह लेख खत्म होता है। ‘आदिवासी खुद तय करेंगे कि धरती के नीचे मौजूद खनिज पदार्थों का उपयोग कैसे किया जाए’- यह सुझाव किशनजी ने 2001 में ही दिया था। नियमगिरि का यह इलाक़ा कालाहांडी जिले में है और किशन पटनायक का बचपन इसी जिले में बिता था। वे पिछली सदी के अस्सी के दशक में बगल के बरगढ़ जिले में (जो उनका राजनैतिक कार्यक्षेत्र भी था) गंधमार्दन पर्वत में बाक्साईट खनन की बाल्को परियोजना के खिलाफ सफल प्रतिरोध से भी जुड़े। काशीपुर और नियमगिरि के संघर्ष के भी वे सहयोगी थे।

ओड़िया भाषा से अनुवाद लिंगराज ने किया है।

प्राकृतिक संसाधनों से संपत्ति सृजन के दो तरीके हैं। प्रकृति हर पल नया जीवन और नई संपदा का सृजन कर रही है। उसका इस्तेमाल अगर समुचित व कम मात्रा में होगा तो उससे मनुष्य का काम भी चलेगा और प्रकृति भी बची रहेगी। इसे सम्यक या टिकाऊ विकास कहा जाएगा। लेकिन आधुनिक विकास पद्धति से एक ही समय में बड़ी मात्रा में संपत्ति पैदा करने के लालच के चलते बड़े पैमाने पर प्रकृति का विनाश किया जाता है। इस विनाश की भरपाई संभव नहीं होती और उस संपदा का मूल भंडार घटता जाता है।

बिक्री लायक पदार्थों को ‘पण्य’ (माल) कहा जाता है और उनके संग्रह को ‘संपत्ति’। आधुनिक समाज में संपत्ति को मूल्य (रुपयों) में आंका जाता है। मैं अगर करोड़पति हूं तो मेरी संपत्ति का मूल्य करोड़ों रुपयों में है। दुनिया मे जितनी भी संपत्ति है, उनके मूल में हैं प्राकृतिक संसाधन। इसे प्राकृतिक संपदा कहा जाता है। मेहनत, बुद्धि और मशीनों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों से विभिन्न किस्म की पण्य वस्तुओं को बनाया जाता है। मशीनें भी खनिज धातु यानी प्राकृतिक संसाधनों से बनती हैं। दुनिया में मौजूद प्राकृतिक संसाधन सीमित होने के कारण संपत्ति भी असीमित नहीं हो सकती। इसलिए किसी भी युग में संपत्ति सदा सीमित ही रहेगी। उसकी हमेशा बढ़ोतरी संभव नहीं, बल्कि हर पल उसका घटना अनिवार्य है। धरती के ऊपर और धरती के गर्भ में छिपी खनिज संपदा एक न एक दिन संपूर्ण रूप से खत्म हो जाएगी सबसे पहले पेट्रोल और कोयले की बारी आएगी।

उपरोक्त सच्चाई को ठीक से समझना जरूरी है। पूंजीवादी शास्त्रों और प्रचार माध्यमों ने लोगों के दिमाग में ग़लतफहमी पैदा कर दी है कि दुनिया में संपत्ति असीम है और कभी नहीं खत्म होने वाली है। अमीर मुल्कों और अमीर तबकों के उपभोग और विलास को देखकर यही भ्रम पैदा होता है कि संपत्ति असीम है और बढ़ती जा रही है। बारीकी से देखने पर मालूम होता है कि हम जिसे संपत्ति की अभूतपूर्व वृद्धि कह रहे हैं उसके पीछे एक भयानक सच छिपा है। इस वृद्धि के साथ दुनिया के मूल पदार्थों का तेजी से क्षय हो रहा है। इस बात को वैज्ञानिक भी कह रहे हैं कि पेट्रोल, कोयला जैसी कई किस्म की प्राकृतिक संपदा निकट भविष्य में खतम होने वाली है। इतना ही नहीं, हवा और पानी भी कम होंगे। मानव जीवन के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।

कुछ साल पहले जापान के क्योटो शहर में इस संकट पर चर्चा के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया था। विभिन्न देशों के सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रतिनिधियों ने वहां इकट्ठे होकर एक समझौते का मजमून तैयार किया था जिसे ‘क्योटो प्रोटोकाल’ का नाम दिया गया था। इसमें पर्यावरण यानी प्रकृति को नष्ट न करने संबंधी नियम बनाए गए थे और हर देश अपने-अपने कानून बनाकर उनका पालन करे, ऐसा आह्वान किया गया था। क्योंकि इन नियमों का पालन करने से आधुनिक समृद्धि का ढाँचा ढहने लगेगा। 28 मार्च 2001 को संयुक्त राज्य अमरीका का राष्ट्रपति चुनने के बाद जॉर्ज बुश ने ऐलान किया कि अमरीका क्योटो समझौते को नहीं मनेगा। अमरीका में संपत्ति की जो तीव्र वृद्धि दर है और वहां की जनता का जो ऊँचा जीवन स्तर है, उसमें व्यवधान वे नहीं चाहते।

इस बात से यह स्पष्ट होता है कि अगर प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा करना है तो धन-संपत्ति वृद्धि की गति को कम करना होगा। जॉर्ज बुश की सरकार के प्रमुख मंत्रीगण अमरीका के बड़े पूंजीपति हैं। वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिक परिवारों के सदस्य हैं। दुनिया के विभिन्न देशों में उनके कल-कारखाने तथा खनिज कारोबार हैं, जिससे प्राकृतिक संपदा का विनाश हो रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों से संपत्ति सृजन के दो तरीके हैं। प्रकृति हर पल नया जीवन और नई संपदा का सृजन कर रही है। उसका इस्तेमाल अगर समुचित व कम मात्रा में होगा तो उससे मनुष्य का काम भी चलेगा और प्रकृति भी बची रहेगी। इसे सम्यक या टिकाऊ विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) कहा जाएगा। लेकिन आधुनिक विकास पद्धति से एक ही समय में बड़ी मात्रा में संपत्ति पैदा करने के लालच के चलते बड़े पैमाने पर प्रकृति का विनाश किया जाता है। इस विनाश की भरपाई संभव नहीं होती और उस संपदा का मूल भंडार घटता जाता है। मिट्टी, पानी, हवा, सब कुछ प्रदूषित होते हैं। यह एक कटु सत्य है कि साफ पानी और साफ हवा की मात्रा भी घट रही है। जंगल, वन्य प्राणियों और जलचरों पर भी भारी संकट है। पशुओं, पक्षियों व कीट-पतंगों की कई प्राजतियों का पृथ्वी से लोप हो चुका है।

संपत्ति की ऐसी अंधाधुंध वृद्धि अच्छा मानवीय लक्ष्य कतई नहीं हो सकता। जिस प्रक्रिया से दुनिया में मानव जीवन खतरे में है तथा पृथ्वी नामक ग्रह की अकाल मौत हो सकती है, उस विकास पद्धति को कैसे आम जनता और देशों के हित में कहा जाएगा? इस सवाल का सही जवाब ढूंढना होगा। मौजूदा पद्धति के चलते हर मुल्क में एक बहुत ही अमीर वर्ग और एक मध्यम वर्ग पैदा हो रहा है। इन वर्गों द्वारा भोग के नंगे नाच से समाज में भ्रष्टाचार, व्यभिचार और विषमता बढ़ रहे हैं तथा बहुसंख्यक जनता गरीबी और असुरक्षा का जीवन जी रही है । अमीर लोगों का लालच और अभावबोध सीमाहीन होने के कारण उनका मानसिक कंगालपन भी बढ़ रहा है।

यह एक शोध का विषय है कि इस तरह की धनवृद्धि के चलते राष्ट्रों या सरकारों की नहीं, बल्कि एक अमीर तबके की आमदनी और खर्च बढ़ रहे हैं। दुनिया के जितने भी विकासशील देश हैं उनमें से अधिकांश की सरकारों के पास शासन चलाने लायक धन नहीं हैं। भारत के अधिकांश प्रांतों की सरकारें दिवालिया हो रही हैं।

यह कैसी धनवृद्धि है? कैसा विकास है? जिस धनवृद्धि से न राष्ट्र को,न आम जनता को लाभ पहुंचता हो, सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का तबका धनकुबेर बनता जाता हो और धन की फ़िज़ूलखर्ची होती हो, ऐसी धनवृद्धि समाप्त होना चाहिए।

गत दस सालों में भारत जैसे मुल्कों में धनवृद्धि के लिए दो बातों का जोर-शोर से प्रचार किया गया। पहला, बाजार का भूमंडलीकरण कर दो, आयात-निर्यात को पूरी तरह खुला कर दो। हमारे देश के उत्पादक दुनिया के बाजार में अपना सामान बेचकर अमीर बन जाएंगे। शरद जोशी जैसे किसान नेता भी इस बात के प्रवक्ता बने और प्रचार करने लगे कि भारत के किसान विदेशों में गेहूं, चावल, मूंगफली, कपास आदि उपज बेचकर डालर कमाएंगे। लेकिन इसका परिणाम उल्टा हुआ। निर्यात की तुलना में आयात ज्यादा हुआ। भारत के छोटे उद्योग प्रायः खतम हो गए। इस वक्त पंजाब से केरल तक गुजरात से ओड़िशा तक हर प्रांत में किसानों में तबाही मची हुई है।

दूसरा, कंप्यूटर और सूचना टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारत की सफलता को लेकर शुरू में काफी प्रचार हुआ। लेकिन अब खबर आ रही है कि भारत के कंप्यूटर विशेषज्ञ अमरीका से खदेड़े जा रहे हैं। अमरीका में उनकी मांग कम होगी तो भारत में उनको ज्यादा पैसा देकर रोज़गार कैसे दिया जा सकेगा? यह बात साफ हो रही है कि भारत का पढ़ा-लिखा युवा वर्ग सिर्फ सूचना टेक्नोलॉजी के सहारे अपने भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते।

ओड़िशा में प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा मौजूद है। ओड़िशा की धनवृद्धि के लिए इसे सबसे बड़े साधन के रूप में मान लिया गया है। यह एक भ्रामक सोच है। खनिज संपदा से भरपूर इलाके कभी भी किसी देश के समृद्ध इलाके नहीं रहे हैं। अब तो उन इलाकों की हालत और खराब हो रही है। किसी भी खदान परियोजना का पहला कदम है विस्थापन। सैकड़ों सालों से जिस परिवेश और बसाहट में लोग अपना जीवनयापन कर रहे थे, वहां से हटाकर उनके समुचित पुनर्वास का एक भी सफल उदाहरण ओड़िशा में नहीं है। शायद कहीं नहीं है। खदान परियोजना का दूसरा पहलू होता है बाहरी देशी-विदेशी कंपनियों को संबंधित इलाक़ा सौंप देना। वहां वे ही सरकार बन जाती हैं। ये कंपनियां स्थानीय लोगों की भलाई तो नहीं करती, पर्यावरण को नष्ट करने और हवा-पानी को प्रदूषित करने का काम करती हैं। स्थानीय लोगों को रोज़गार देने की क्षमता ऐसी परियोनजाओं में नहीं के बराबर होती है। इन इलाकों में जो लोग खेती या जंगलों पर आश्रित रह जाते हैं, प्रदूषण के कारण उनका जीवन दूभर हो जाता है।

तब खदानों से किनकी धन-वृद्धि होगी? देशी-विदेशी कंपनियां, उनके दलाल व ठेकेदार तथा उनको गैरकानूनी व अनैतिक ढंग से मदद पहुंचाने वाले नेताओं-अफसरों-बुद्धिजीवियों के एक तबके के प्रचुर धनवृद्धि होगी। सरकार इससे लाभान्वित नहीं होगी। खनन की सुविधा के लिए उस इलाके में सड़क रेलमार्ग, बिजली, टेलीफोन जैसी व्यवस्था राज्य व केंद्र सरकारें विदेशों से कर्ज लाकर करेंगी। कंपनियों को कई तरह के अनुदान भी दिए जाएंगे। बदले में कंपनियों से जो रायल्टी और कर वसूले जाएंगे, उनकी मात्रा नगण्य होती है। केंद्र व राज्य सरकारें दोनों घाटे में रहते हैं, लेकिन एक छोटा अमीर तबका मालामाल हो जाता है। खदान आदिवासियों के लिए तो अभिशाप है। इसलिए इसका विकल्प ढूंढना होगा।

खदान इलाकों में दो तरह के काम किए जा सकते हैं। सामान्यतः खनिज संपदा जंगल-पहाड़ों में मौजूद होती है। पहाड़ों को खोदकर, प्रकृति को नष्ट कर, खनिज पदार्थों को निकाला जाता है। खदान परियोजना की यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। खनिज पदार्थों की धरती के ऊपर जंगल और जलस्रोत होते हैं। वहां खेती और जंगल पर आधारित एक टिकाऊ अर्थव्यवस्था खड़ी कर छोटे-छोटे उद्योगों का विकास किया जा सकता है। सभी खनिज इलाकों में झरने और छोटी नदियां होती हैं। छोटी जल धारण योजनाओं को बनाकर बड़े इलाके को सिंचित किया जा सकता है। इस तरह की विकास पद्धति से ही आम जनता व सरकार दोनों लाभान्वित होंगे। जंगल विभाग व ठेकेदारों द्वारा नष्ट किए गए जंगल को भी पुवर्जीवित किया जा सकता है। स्वभाव से प्रकृति-प्रेमी और प्रकृति पर निर्भर आदिवासियों पर भरोसा करके जंगलों के प्रबंध की ज़िम्मेदारी उनको दी जा सकती है। बड़े बांधों के विकल्प के तौर पर छोटी-छोटी जल योजनाओं को स्वीकारना होगा।

राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ता तथा जनता की ओर रुझान रखने वाले बुद्धिजीवी इस विषय पर सोचें और एक स्पष्ट मत बनाएं। राज्य की आम जनता के लिए और विशेष तौर आदिवासियों के लिए खदानें वरदान हैं या अभिशाप- यह तय करें। विकास और तेज औद्योगीकरण के नाम पर सरकार विभिन्न इलाकों में देशी-विदेशी कंपनियों की खदान परियोजनाओं को इजाज़त दे रही हैं, उससे सरकार तथा आम जनता की धन-वृद्धि होगी- इस दावे की सच्चाई के संबंध में उनके पास कोई तथ्य और तथ्यगत प्रमाण नहीं हैं तो ऐसी खनन परियोजनाओं का खुला विरोध क्यों नहीं किया जाए?

सबसे पहले धरती की सतह और उसके ऊपर बसे लोगों का विकास किया जाए। उन तबकों का विकास और स्थानीय जंगल-ज़मीन पर उनका हक स्थापित हो जानेके बाद वे खुद तय करेंगे कि धरती के नीचे मौजूद खनिज पदार्थों का उपयोग कैसे किया जाए।

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