खेती व पानी के दोहन ने वेटलैंड्स की खोदी कब्र


वेटलैंड यानी आर्द्रभूमि न केवल विभिन्न प्रकार के जलीय जंतुओं व प्रवासी पक्षियों का निवास स्थल होता है, बल्कि यह ईको सिस्टम को भी बनाये रखता है।

वेटलैंड्स पश्चिम बंगाल में वेटलैंड्स की संख्या अधिक है, लेकिन इनकी देखभाल नहीं हो रही है। विश्व विख्यात ईस्ट कोलकाता वेटलैंड्स की देखभाल नहीं होने के कारण ही इसके एक बड़े हिस्से को पाट कर उस पर कंक्रीट के जंगल बो दिये गये हैं।

इसी क्रम में हाल ही में किये गये एक शोध में पता चला है कि बागमारी, बांसलोई व पगला नदी के आस-पास के क्षेत्र के सीजनल वेटलैंड्स के अस्तित्व पर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। यह आर्द्रभूमि पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद व बीरभूम तथा झारखंड के पाकुर, गद्दा व दुमका जिले तक फैला हुआ है।

इस आर्द्रभूमि में बागमारी, बांसलोई और पगला नदी से पानी जाता है। ये नदियाँ आगे चल कर पद्मा व भागीरथी नदी में मिल जाती हैं। चूँकि नदी के पानी पर इनका अस्तित्व निर्भर करता है, इसलिये इन्हें मौसमी आर्द्रभूमि कहा जाता है। आर्द्रभूमि में कई प्रकार के प्रवासी पक्षियों का डेरा है।

उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल भारत का दूसरा राज्य है जहाँ मौसमी आर्द्रभूमि सबसे अधिक है। रामसर कनवेंशन ऑन वेटलैंड्स ने मौसमी आर्द्रभूमि को महत्त्वपूर्ण करार देते हुए इन्हें अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड्स में शामिल करने का प्रस्ताव दिया है।

इस लिहाज से मौसमी आर्द्रभूमि बेहद जरूरी है, लेकिन केंद्र व राज्य सरकारों का इन पर कोई ध्यान नहीं है।

करेंट साइंस में “ईवोलुशन ऑफ वेटलैंड्स इन लोवर रीचेज ऑफ बागमारी-बांसलोई-पगला रिवर्स : ए स्टडी यूजिंग मल्टीडेटेड इमेजेज एंड मैप्स” शीर्षक से छपे इस शोध में बताया गया है कि वर्ष 1975 से 2013 तक मौसमी आर्द्रभूमि का क्षेत्रफल सिकुड़ता चला गया।

शोध को सुभाषचंद्र बोस सेंटनरी कॉलेज के जियोग्राफी डिपार्टमेंट के प्रोफेसर देवव्रत मंडल व गौरबंग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्वदेश पॉल ने अंजाम दिया है। करीब 10 पेज में लिखे गये उक्त शोध में बताया गया है कि किस तरह आर्द्रभूमि का क्षेत्रफल लगातार घट रहा है।

शोध में कई तरह के इमेज का इस्तेमाल किया गया है और सॉफ्टवेयर की मदद भी ली गयी है।

शोध पत्र के अनुसार, सैटेलाइट इमेज बताता है कि शोध क्षेत्र का क्षेत्रफल वर्ष 1973 में 3005.65 हेक्टेयर था, जिसमें छोटे-छोटे कई वेटलैंड्स थे। फीडर कैनल बनने के बाद यह बढ़कर 6557 हेक्टेयर पर पहुँच गया। लेकिन, इसके बाद इसका क्षेत्रफल घटता गया। 10 फरवरी 1977 का सैटेलाइट इमेज बताता है कि उस वक्त आर्द्रभूमि का क्षेत्रफल 5786.32 हेक्टेयर और 21 नवंबर 1990 में इसका क्षेत्रफल घटकर 5407.74 हेक्टेयर पर आ गया। वहीं, वर्ष 2013 में इसका क्षेत्रफल सिकुड़कर 2076.03 हेक्टेयर रह गया।

शोध पत्र में बताया गया है, “भूगर्भ जलस्तर में गिरावट वेटलैंड्स से पानी के बहाव को रोकने में विफल रहा। अतः इससे पता चलता है कि ग्राउंड वाटर के स्तर में गिरावट, भूमि की प्रकृति के साथ ही आर्द्रभूमि में मौजूद न्यूट्रिएंट में बदलाव के कारण पानी का फैलाव क्षेत्र (आर्द्रभूमि) सिकुड़ गया।”

वेटलैंड्स शोध में बताया गया है 1973 से 1975 तक आर्द्रभूमि के क्षेत्र में इजाफा आया क्योंकि उस वक्त फीडर कैनल बना था। फीडर कैनल भारी मात्रा में पानी छोड़ता था जिससे आर्द्रभूमि में पानी जमा हो जाता था, लेकिन इसके बाद हरित क्रांति के कारण भारी मात्रा में पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिये होने लगा, जिससे भूगर्भ जल की मात्रा घटती गयी और आर्द्रभूमि का पानी भूगर्भ में समाने लगा। दूसरी तरफ भूगर्भ जल का दूसरे इस्तेमाल के लिये दोहन भी बढ़ गया और साथ ही नेशनल हाइवे बनाया गया तथा रेलवे लाइनें बिछायी गयीं। इन सबका आर्द्रभूमि पर नकारात्मक असर पड़ा।

फीडर कैनल का निर्माण फरक्का बराज प्रोजेक्ट के दौरान किया गया था। शोध में कहा गया है कि प्रोजेक्ट से पहले भागीरथी में बांसलोई, अजय, मयुराक्षी, पगला व अन्य नदियों से पानी जाता था, लेकिन गाद जमा हो जाने के कारण भागीरथी नदी में पानी का प्रवेश अवरुद्ध हो गया। इससे कोलकाता पोर्ट में पानी कम हो गया व जहाजों की आवाजाही मुश्किल हो गयी। भागीरथी में नियमित तौर पर पानी पहुँचे, इसके लिये 38 किलोमीटर लंबा फीडर कैनल बनाया गया। इस फीडर कैनल के जरिये गंगा से 40 हजार क्यूसेक पानी को भागीरथी नदी की तरफ मोड़ा गया। इससे आर्द्रभूमि के क्षेत्रफल में इजाफा हो गया लेकिन खेती के लिये आर्द्रभूमि व भूगर्भ जल के अत्यधिक दोहन के कारण इनके अस्तित्व पर संकट के बादल मँडराने लगे।

प्रो. देवव्रत मंडल बताते हैं, “हमने शोध के सिलसिले में स्पॉट विजिट किया, तो देखा कि वेटलैंड्स पर खेती हो रही है, जबकि कुछ क्षेत्र सूखे पड़े हुए हैं। उक्त स्थल पर भूगर्भ जलस्तर काफी ऊँचा था, लेकिन पानी के अत्यधिक दोहन के कारण भूगर्भ का जलस्तर काफी नीचे चला गया है और साथ ही फीडर कैनल से भी पर्याप्त पानी वेटलैंड्स तक पहुँच नहीं रहा है। इन वजहों से ये वेटलैंड्स संकट में हैं।” उन्होंने कहा कि नदियों द्वारा भी वेटलैंड्स रिचार्ज हो जाते थे, लेकिन फीडर कैनल बैरियर साबित हो रहा है। साथ ही आर्द्रभूमि में गाद भी जम गया है। चूँकि पानी का बहाव तेज नहीं है, इसलिये गाद निकल नहीं पा रहा है।

देवव्रत मंडल का कहना है कि पानी के अत्यधिक दोहन के कारण वेटलेंड्स एक दूसरे से अलग होते जा रहे हैं। इसका इकोलॉजिकल प्रभाव भी पड़ रहा है। पानी की कमी होने से प्रवासी पक्षियों का आना कम होने लगा है।

उल्लेखनीय है कि विश्व की 10 प्रतिशत भूमि वेटलैंड्स हैं और 1990 से अब तक इनमें से 50 प्रतिशत वेटलैंड्स शहरीकरण, खेती और जल व्यवस्था के लिये बनाये गये नियमों की भेंट चढ़ गये हैं।

ए स्टेटस ओवरव्यू ऑफ एशियन वेटलैंड्स के अनुसार भारत में 45 प्रतिशत वेटलैंड्स पर खतरा मँडरा रहा है। खास कर बाढ़ वाले मैदानी क्षेत्रों के वेटलैंड्स पर ज्यादा संकट है।

शोधपत्र के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि वेटलैंड्स को बचाने के लिये अगर अभी से जरूरी कदम नहीं उठाये गये, तो आने वाले 10 सालों में इनका अस्तित्व पूरी तरह मिट जायेगा।

प्रो. मंडल ने कहा, जिन आर्द्रभूमि को खेत में तब्दील कर दिया गया है, उनका चरित्र बदलना अब नामुमकिन लगता है। अलबत्ता जो बचा हुआ है, उसे बचाये रखने के लिये वृहत स्तर पर योजना बनाने की जरूरत है। भूखंड के इस्तेमाल और खेती को लेकर योजना तैयार करनी होगी। भूगर्भ जल के दोहन पर सोचना होगा। स्थानीय स्तर पर लोगों को इन सबके लिये जागरुक करना होगा और साथ ही राज्य सरकार को भी जरूरी कदम उठाने होंगे, तभी इन्हें बचाया जा सकेगा।

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