खेती से पलायन

खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बन रहे हैं। सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों का अधिग्रहण, सिंचाई और बिजली का अभाव आदि किसानों को खेती छोड़ने के लिये मजबूर कर रहे हैं। गरीब किसानों के पास कई बार अपनी जमीन बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता। 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है। एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर सौ किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों की आत्महत्या के मामले में राज्यसभा में अपने बयान में कहा कि किसानों की आत्महत्या के वजहों में प्रेम प्रसंग, वैवाहिक समस्या, नपुंसकता, बीमारी नशाखोरी और दहेज जैसे कारण जिम्मेदार हैं। हालाँकि, विरोध होने पर उन्होंने सफाई दी कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में कुछ ऐसा ही उद्घाटित हुआ है। दरअसल कृषि मंत्री ने अपने बयान के जरिए यह साबित करने की कोशिश की है कि सरकार की नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या नहीं कर रहे हैं बल्कि इसके अन्य कारण हैं। लेकिन इस बयान ने सरकार की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया है।

कृषि मंत्रालय और अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट पर ही गौर करें तो 2004 में 4,385, 2005 में 3,175 और 2006 में 1,901 किसानों ने आत्महत्या की। इसी तरह 2009 में 17 हजार, 2010 में साढ़े 15 हजार, 2011 में 14 हजार और 2013 में साढ़े 11 हजार किसानों ने आत्महत्या की।

आँकड़ों के मुताबिक 1998 से लेकर अब तक तकरीबन छह लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। नेशनल नमूना सर्वे रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के नौ करोड़ किसान परिवारों में से बावन फीसद कर्ज में डूबे हैं और हर किसान पर औसतन सैंतालीस हजार रुपए कर्ज हैं। भारत में कृषक परिवारों की स्थिति के मुख्य संकेतक शीर्षक वाली रिपोर्ट से भी पता चला है कि आन्ध्रप्रदेश में 43, उत्तर प्रदेश में 44, बिहार में 42, झारखण्ड में 28, हरियाणा में 42, पंजाब में 53 और पश्चिम बंगाल में 51.5 फीसद किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं।

देश में किसानी की हालत कितनी चौपट है, इसी से समझा जा सकता है कि 2001 में देश में 12 करोड़, 73 लाख किसान थे, जिनकी संख्या आज घटकर 11 करोड़ से भी कम रह गई है। यानी 86 लाख किसान खेती से विरत हुए हैं। माना जा रहा है कि प्रकृति पर आधारित खेती, देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ और सूखा का प्रकोप, प्राकृतिक आपदा से फसल की क्षति और ऋणों के बोझ के कारण बड़े पैमाने पर किसान खेती छोड़ने को मजबूर हुए।

पिछले एक दशक के दौरान महाराष्ट्र में सर्वाधिक 7 लाख 56 हजार, राजस्थान में 4 लाख 78 हजार, असम में 3 लाख 30 हजार और हिमाचल में एक लाख से अधिक किसान खेती को तिलांजलि दे चुके हैं। इसी तरह उत्तराखण्ड, मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल जैसे छोटे राज्यों में भी किसानों की संख्या घटी है।

आश्चर्यजनक यह है कि इस दौरान देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है। आँकड़े बताते हैं कि 2001 में जहाँ 10 लाख 68 हजार कृषि मजदूर थे, उनकी संख्या 2011 में बढ़कर 14 करोड़ 43 लाख हो गई।

इसका मतलब यह है कि खेती करने वाले किसान ही खेतिहर मजदूर बन रहे हैं। सेज के नाम पर कृषि योग्य जमीनों का अधिग्रहण, सिंचाई और बिजली का अभाव आदि किसानों को खेती छोड़ने के लिये मजबूर कर रहे हैं। गरीब किसानों के पास कई बार अपनी जमीन बेचने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता। 1990 से 2005 के बीच 20 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि कम हुई है। एक हजार हेक्टेयर खेती की जमीन कम होने पर सौ किसानों और 760 खेतिहर मजदूरों की आजीविका छिनती है।

आज देश में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता 0.18 हेक्टेयर रह गई है। 82 फीसद किसान लघु और सीमान्त किसानों की श्रेणी में आ गए हैं और उनके पास कृषि भूमि दो हेक्टेयर या उससे भी कम रह गई है। कृषि क्षेत्र का विकास दर भी लगातार घट रहा है। आँकड़ों पर गौर करें तो 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी 51.9 थी, जो 1990-91 में 34.9 फीसद रह गई थी। आज 2012-13 में घटकर 13.7 फीसद पर आ गई है। कैग की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि देश में सेज के लिये 45,635.63 हेक्टेयर ज़मीन की अधिसूचना जारी हुई लेकिन कामकाज सिर्फ 28,488.49 हेक्टेयर पर शुरू हुआ है। यानी कुल 62.42 फीसद ज़मीन पर ही परिचालन शुरू हुआ है।

भारत का आर्थिक सर्वे बताता है कि देश में उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद 1990 से लेकर 2005 के बीच लगभग 60 लाख हेक्टेयर खेती की जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है। इनमें अधिकांश का उपयोग गैरकृषि कार्यों में हो रहा है।

नतीजतन कृषि अर्थव्यवस्था चौपट होने के कगार पर पहुँच चुकी है। किसान क्रेडिट कार्ड और फसलों की बीमा योजनाओं के अलावा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, गुणवत्तापूर्ण बीज के उत्पादन और वितरण, राष्ट्रीय बागवानी मिशन जैसी अनगिनत योजनाओं से भी किसानों को राहत नहीं मिली है।

ईमेल : arvindjaiteelak@yahoo.com

Path Alias

/articles/khaetai-sae-palaayana

Post By: RuralWater
×