खेती से ही रुकेगा बस्तर का खूनखराबा

खेती को दो व्यवस्थाओं के अलग-अलग दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। आज आवश्यकता है कि बस्तर के किसान ड्रिप इरिगेशन जैसी सिंचाई की उन्नत तकनीक का प्रयोग करने लगें, जिससे कि कम पानी की उपलब्धता में भी अच्छा उत्पादन वे प्राप्त कर सकें। यह आवश्यक है कि उन्नत तकनीक और खेती के नए-नए उपकरण इन किसानों को व्यवस्थित और योजनाबद्ध रूप से उपलब्ध कराए जाएं, साथ ही उत्पादों को सीधे बाजार से जोड़ने की योजना पर कार्य भी किया जाए। यदि केवल इतनी भी हम कर सके तो बस्तर में प्रगति और विकास के नए आयाम खुल सकते हैं। बस्तर के गजट की तरह लिखी गई किताब बस्तर भूषण (प्रकाशन वर्ष 1908) में पं. केदारनाथ ठाकुर ने तत्कालीन खेती के तौर तरीकों का एक रेखाचित्र खींचा है। यहां के निवासियों को खेती की चाह, जैसी होनी चाहिए नहीं है। उसका कारण यह है कि जंगल में कंदमूल इतने हैं जिससे लोग अपना गुजर कर लेते हैं। इस दृष्टिकोण के पीछे तत्कालीन वन सम्पदा, राजनीति और आदिवासी जीवन शैली सम्मिलित थी। इसके अतिरिक्त शिकार उनकी भोजन शैली का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था। आदिवासी चूंकि झूम कल्टिवेशन करते थे, अत: स्थाई खेती अथवा फसलों पर उनका वास्तविक नियंत्रण न हो कर उनका सामना हर कुछ साल में नई भूमि, नए परिवेश, नई परिस्थितियों और मौसम के परिवर्तनों से होता था।

धान उन दिनों बहुत कम बोये जाते थे अथवा छोटा धान, जिसने लिए एक-दो बरसात ही पर्याप्त है, लगाए जाते थे। जुंवारी, जोंधरा, सांवा, कोसरा, मडिया, जुवार, भुट्टा, झुंडगा आदि ही लोक जीवन की प्रमुख फसलें थीं। डांडा अथवा ईख नदी के किनारे जहां जंगल कम थे, वहां बोई जाती थी और उससे गुड बनाया जाता था। सब्जी लगाने के लिए जहां जंगल कम हैं वहीं पर बाड़ी लगा कर आवश्यकतानुरूप सेम, बरबट्टी, साग आदि लगा लिया जाता था। फलों की खेती की कोई विशेष परंपरा तो थी नहीं, यदि छोटे केले या जिसे हम जंगली केला कहते हैं, उसे उपजाया जाता था। समय की आहट ने बहुत कुछ बदला। खेती के आयाम बदलने लगे। जूम कल्टिवेशन के स्थान पर स्थाई खेती की दिशा भी आदिवासियों को मिली। इसके साथ ही जो समस्या सामने आने लगी वह थी कि सारी पैदावार काले मेघा पानी दे के सिद्धांत पर निर्भर थी।

बस्तर में आज भी राज्य के कुल सिंचित क्षेत्र का केवल एक प्रतिशत ही व्यवस्थित है, जबकि यहां की मुख्य नदियों को देखें तो उत्तर की ओर महानदी, दक्षिण की ओर शबरी, पूर्व की ओर से आरंभ कर संभाग के पश्चिमी भाग तक अपनी सहायक नदियों का जाल बनाती जीवनरेखा सरित इंद्रावती प्रवाहित है, जबकि पश्चिम में बीजापुर जिले के एक बड़े हिस्से को छूकर गोदावरी नदी प्रवाहित होती है। वास्तविकता देखी जाए तो इन्हीं नदियों का समुचित उपयोग बस्तर संभाग से लगे निकटवर्ती राज्यों ने भरपूर किया है, जबकि हम अब भी सिंचाई को लेकर किसी ठोस रणनीति की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि छत्तीसगढ़ राज्य में भी सिंचाई क्षेत्र का औसत असामान्य है। सिंचित क्षेत्र को भी आनुपातिक दृष्टि से परखा जाए तो राज्य का 25 प्रतिशत से अधिक सिंचित क्षेत्र रायपुर, दुर्ग, धमतरी, बिलासपुर, जांजगीर-चांपा आदि जिलों में है। बस्तर अभी समुचित और व्यावहारिक रूप से खेती के लिए किसी बड़े कायाकल्प की प्रतीक्षा कर रहा है। इस अंचल के बांध काजगी विरोध में ध्वस्त हों, विकासोन्मुखी परियोजनाएं दिल्ली की एनजीओ आधारित राजनीति में पिस जाएं और सारे ग्लोब को यह तस्वीर दिखती रहे कि कितना शोषित पीड़ित है बस्तर..।

बस्तर के किसान बहुत समय से टमाटर और बैंगन की फसल लेने के लिए संघर्ष कर रहे थे। बस्तर की मिट्टी में कुछ ऐसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं, जो इन पौधों की जड़ों को नुकसान पहुंचाते थे। इस तरह अच्छी पैदावार लेना संभव ही नहीं था। पिछले दिनों बस्तर के कृषि परिदृश्य पर शोध करने के दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि इन दिनों किसान ग्राफ्टेड बैंगन तथा टमाटर के पौधे लगा रहे हैं और इसकी भरपूर फसल ले रहे हैं। यह चमत्कार कर दिखाया था, रायपुर के निकट गोमची जैसे छोटे से गांव के कृषि वैज्ञानिक डॉ. नारायण चावड़ा ने। उन्होंने बस्तर के किसानों की समस्या का एक बेहतरीन समाधान प्रस्तुत करते हुए उन जंगली बैंगन पादपों को चुना, जिनमें बैक्टीरियल विल्ड नहीं लगते और उनके तनों के ऊपर बैंगन के उन पौधों के तनों को आरोपित कर दिया, जो उन्नत फसलें प्रदान कर सकते हैं।

डॉ. नारायण चावड़ा ने बताया कि बस्तर में खेती की जो संभावनाएं और परिवेश है वह तो रायपुर, दुर्ग, धमतरी या कि राजनांदगांव जैसे मध्य छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में भी नहीं है। बस्तर की जलवायु खेती के लिए राज्य के किसी भी अन्य क्षेत्र की अपेक्षा सबसे उपयुक्त है तथा गर्मी के समय में भी वहां मौजूद आद्रता किसानों के लिए किसी वरदान से कम सिद्ध नहीं होगी। जरूरत है वैज्ञानिक सोच के साथ खेती करने की। यह वास्तविकता है कि ग्रीष्मकाल में जब सारा छत्तीसगढ़ झुलजता है तो उन समयों में भी बस्तर में तापमान नियंत्रित रहता है। बस्तर में कोंडागांव और जगदलपुर के किसान हाईब्रिड बीजों की खेती भी कर रहे हैं और इसमें उन्हें बहुत अच्छा मुनाफा हो रहा है। केवल छोटी-छोटी भूमि में उन्नत बीज की खेती से अपनी लागत का दुगुने से अधिक लाभ किसान ले रहे हैं। छोटे-छोटे किसानों ने अपने नेट हाउस बांस और लकड़ी जैसी सहज उपलब्ध वस्तुओं के उपयोग से बनाया है। बड़े किसान ड्रिप इरिगेशन और मल्चिंग जैसी तकनीक का भी प्रयोग कर रहे हैं। हाईब्रिड बीजों को सीधे बाजार उपलब्ध होने के कारण किसानों के लिए यह कैश क्रोप जैसा है, जबकि जगदलपुर, कोंडागांव, नायारणपुर, दंतेवाडा आदि नगरीय बसाहटों तक सब्जी उत्पादन को भी अब बाजार मिल रहा है।

यह बदलते हुए बस्तर की एक बानगी है। इसका अर्थ यह नहीं कि बदलाव आ ही गया है। खेती पर अध्ययन करने की दृष्टि से मैंने सुकमा को छोड़कर बीजापुर, दंतेवाडा, बस्तर, नारायणपुर, कोंडागांव और कांकेर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग दो हजार किलोमीटर का अध्ययन दौरा किया। भोपालपट्तनम के निकट भद्रकाली के किसान सेम को अपनी बाड़ी में फैंसिंग करने की तरह लगाते हैं। इसका बहुत अच्छा उत्पादन हो रहा है, किंतु बाजार के अभाव में निजी उपयोग के अलावा यह फसल ग्रामीणों के किसी काम की नहीं है। इन दिनों परंपरागत फसलों का उत्पादन ग्रामीण कम कर रहे हैं, जबकि धान, मक्का या अन्य वे फसलें जो सीधे लाभ पहुंचा सकती हों, उसकी ओर आदिवासी किसानों का ध्यान भी गया है, किंतु सिंचाई की समुचित व्यवस्था न होना, उनकी सम्पन्नता के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोधक है।

बहुत कम आदिवासी किसान ऐसे हैं, जिन्होंने बंगालियों से तकनीक सीखकर उसका प्रयोग अपनी खेती में है। परलकोट और आसपास का क्षेत्र लाल आतंकवाद से भी प्रभावित है। अतः खेती को दो व्यवस्थाओं के अलग-अलग दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। आज आवश्यकता है कि बस्तर के किसान ड्रिप इरिगेशन जैसी सिंचाई की उन्नत तकनीक का प्रयोग करने लगें, जिससे कि कम पानी की उपलब्धता में भी अच्छा उत्पादन वे प्राप्त कर सकें। यह आवश्यक है कि उन्नत तकनीक और खेती के नए-नए उपकरण इन किसानों को व्यवस्थित और योजनाबद्ध रूप से उपलब्ध कराए जाएं, साथ ही उत्पादों को सीधे बाजार से जोड़ने की योजना पर कार्य भी किया जाए। यदि केवल इतनी भी हम कर सके तो बस्तर में प्रगति और विकास के नए आयाम खुल सकते हैं।

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