खेती में बदलाव से सुलझेगा कावेरी विवाद

कावेरी नदी जल बँटवारे पर विवाद
कावेरी नदी जल बँटवारे पर विवाद

पिछले दिनों कावेरी जल विवाद को लेकर हुई हिंसक झड़प से पता चलता है कि पानी कितना जरूरी है। यह झड़प इस ओर भी इशारा करता है कि आने वाले दिनों में पानी को लेकर किस हद तक संघर्ष हो सकता है।

कावेरी मुद्दे को ध्यान में रखते हुए अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि पानी की किल्लत की समस्या को गम्भीरता से लिया जाये और इसका माकूल हल तलाशा जाये ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

कावेरी जल विवाद के पीछे मोटे तौर पर इस नदी के पानी पर तमिलनाडु और कर्नाटक का मालिकाना हक वजह है। कर्नाटक मानता है कि इस नदी के जल पर उसका पूरा अधिकार है जबकि तमिलनाडु का कहना है कि 1924 के समझौते में उन्हें जितना पानी मिलना चाहिए था, उसे जारी रखा जाना चाहिए।

कर्नाटक 1924 के समझौते को तवज्जो नहीं देता है। इसके पीछे कर्नाटक का तर्क है कि यह समझौता जब हुआ था तब कर्नाटक एक रियासत थी जबकि तमिलनाडु अंग्रेजी हुकूमत के अधीन था इसलिये अंग्रेजों ने समझौते के जरिए तमिलनाडु को अधिक लाभ पहुँचाया जबकि कर्नाटक के हितों की अनदेखी की गई।

बहरहाल विवाद की मुख्य वजह कावेरी के पानी का बँटवारा है। दोनों ही राज्य चाहते हैं कि उन्हें अधिक पानी दिया जाये लेकिन विशेषज्ञों की राय है कि पानी के बँटवारे से जरूरी है पानी का बेहतर प्रबन्धन। उनका कहना है कि पानी का अगर सही तरीके से प्रबन्धन किया जाये तो इस तरह के विवादों को सुलझाया जा सकता है।

विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि कावेरी जल विवाद के पीछे एक बड़ी वजह खेती का पैटर्न है जिस पर अभी तक गम्भीरता से नहीं सोचा गया है।

तमिलनाडु में चावल और गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है जबकि कर्नाटक में चावल की खेती बहुत होती है। दोनों ही फसलों के लिये प्रचूर मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। इस वर्ष तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों ही राज्यों में मानसून कमजोर रही है जिस कारण खेती के लिये पानी की किल्लत हुई और फसलें बर्बाद हो गईं।

81,500 वर्ग किलोमीटर लम्बी कावेरी नदी में सलाना 740 मिलियन क्यूबिक फीट पानी उपलब्ध रहता है लेकिन दोनों राज्यों में खेती के लिये अधिक पानी की खपत के चलते यह पानी अपर्याप्त होता है, उस पर इस बार मानसून भी कमजोर रहा इसलिये किसानों को उतना पानी नहीं मिला जितना अपेक्षित था।

भारत में एक किलोग्राम चावल उगाने के लिये 5 हजार लीटर पानी और एक किलोग्राम चीनी उत्पादन के लिये 2500 लीटर पानी की खपत होती है। इससे समझा जा सकता है कि तमिलनाडुु और कर्नाटक को पानी की कितनी जरूरत पड़ती होगी।

पानी को लेकर काम करने वाली संस्था अर्घ्यम की संस्थापक रोहिणी नीलेकणी का सुझाव है कि स्थानीय स्तर पर पानी का प्रबन्धन कर समस्या का हल निकाला जा सकता है। वे कहती हैं, ‘स्थानीय स्तर पर पानी के प्रबन्धन की जगह इसे केन्द्रीकृत किया जा रहा है। स्थानीय जलस्रोतों से निकलने वाले पानी और गन्दे पानी को ट्रीट कर उसे इस्तेमाल करने की जगह हम नदियों को जोड़ने की बात कर रहे हैं। हम बाँधों की वकालत करते हैं लेकिन यह सर्वविदित है कि बाँधों का लाभ निचले तबके के लोगों को नहीं मिलता है।’ रोहिणी नीलेकणी ने कहा, ‘अगर स्थानीय समुदाय को नवीनतम तकनीकों और तथ्यों से लैस किया जाये तो पानी की माँग का बेहतर प्रबन्धन और इसका समुचित उपयोग हो सकता है। इस तरह की पहल से प्रतिस्पर्द्धा की जगह आपसी सहयोग बढ़ेगा।’

गौरतलब है कि कावेरी विवाद इतना उलझ गया था कि सुप्रीम कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने 6 अन्तरिम आदेश जारी कर विवाद को सुलझाने की कोशिश की लेकिन नतीजा सिफर रहा। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल के को-ऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘अगर दोनों राज्यों में खेती के पैटर्न को ध्यान में नहीं रखा गया, तो कोर्ट के अन्तरिम आदेशों और सरकार की ओर से की जाने वाली तमाम पहलों से समस्या का समाधान नहीं हो सकता।’

हिमांशु ठक्कर के मुताबिक, कावेरी विवाद की मूल वजह ही है खेती का पैटर्न। वे कहते हैं, ‘तमिलनाडु में बदल-बदलकर धान की ही खेती की जाती है जबकि कर्नाटक में गन्ने और धान की खेती होती है। दोनों ही फसलों के लिये पानी की बहुत जरूरत पड़ती है इसलिये बारिश अगर सामान्य से थोड़ी भी कम होती है तो समस्या आ जाती है।’

उनकी बात सच भी है। एक अनुमान के मुताबिक कर्नाटक का 70 प्रतिशत साफ पानी का इस्तेमाल धान की सिंचाई में इस्तेमाल होता है। मांड्या के गवर्नमेंट एग्रीकल्चरल कॉलेज के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. पी . महादेवु बताते हैं, ‘कर्नाटक की एक तिहाई यानी 4 लाख हेक्टेयर खेतों की सिंचाई कावेरी नदी के पानी से होती है। कर्नाटक में 4 लाख हेक्टेयर भूखण्ड पर गन्ने की खेती होती है। इसके लिये भी बहुत पानी की जरूरत पड़ती है।’ डॉ. महादेवु ने कहा कि इस क्षेत्र में जिस तरह की फसलों का उत्पादन होता है वो यहाँ की जमीन के लिये अनुपयुक्त है। इस क्षेत्र की मिट्टी में पानी को सोखने की क्षमता बहुत कम है जिस कारण बाढ़ के पानी से सिंचाई नहीं हो पाती है और फसलों को कई बार सींचना पड़ता है।


किसान पारम्परिक तौर पर ज्वार-बाजरे, तिलहन व दालों की खेती किया करते थे जो बारिश पर निर्भर थीं। 20-30 के दशक में बाँध बनने के बाद किसानों ने खेती का पैटर्न बदल दिया और ऐसी फसलों की खेती शुरू कर दी जिसमें अधिक पानी खर्च होता था और जिसकी नकद कीमत बाजार में मिलती थी। यहीं से चीजें बदलनी शुरू हो गई। वर्ष 1934 में मेत्तुर बाँध बनाया गया जिससे तमिलनाडु में धान की खेती और बड़े पैमाने पर की जाने लगी। वहीं, कर्नाटक की बात करें तो कृष्णराज सागर बाँध के बनने से यहाँ दलहन, तिलहन की खेती को छोड़कर किसान धान और गन्ने की तरफ मुड़ गए। असल में यहाँ के किसान पारम्परिक तौर पर ज्वार-बाजरे, तिलहन व दालों की खेती किया करते थे जो बारिश पर निर्भर थीं। 20-30 के दशक में बाँध बनने के बाद किसानों ने खेती का पैटर्न बदल दिया और ऐसी फसलों की खेती शुरू कर दी जिसमें अधिक पानी खर्च होता था और जिसकी नकद कीमत बाजार में मिलती थी। यहीं से चीजें बदलनी शुरू हो गई।

वर्ष 1934 में मेत्तुर बाँध बनाया गया जिससे तमिलनाडु में धान की खेती और बड़े पैमाने पर की जाने लगी। वहीं, कर्नाटक की बात करें तो कृष्णराज सागर बाँध के बनने से यहाँ दलहन, तिलहन की खेती को छोड़कर किसान धान और गन्ने की तरफ मुड़ गए। एक शोध के अनुसार कर्नाटक में वर्ष 1966 से वर्ष 2006 के बीच दूसरी फसलों के कारण मोटे अनाजों के उत्पादन में 44 प्रतिशत की कमी आ गई।

अगर धान और गन्ने का उत्पादन इसी पैमाने पर होता रहा तो आने वाले दिनों में संकट और गहराएगा क्योंकि पानी की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी की कोई सम्भावना नहीं है। भारत की अधिकतर नदियाँ मानसून की बारिश पर निर्भर हैं। कावेरी नदी के साथ भी ऐसा ही है।

मानसून की बारिश के पैटर्न के शोध में पता चला है कि मानसूनी वर्षा के परिमाण में कमी आई है और आने वाले सालों में भी यही ट्रेंड जारी रहेगा यानी मानसून की बारिश घटती जाएगी। अगर ऐसा होता है तो जलसंकट बढ़ेगा। वर्ष 2015 में इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस द्वारा किये गए एक शोध में कहा गया है कि कावेरी नदी के क्षेत्र में बारिश की मात्रा हर वर्ष जिस रफ्तार से घट रही है उससे भी तेज रफ्तार से कावेरी के जलस्तर में गिरावट आ रही है। इसका मतलब है कि पानी की माँग बढ़ेगी जबकि इसकी सप्लाई में कमी आएगी।

खेती के लिये पानी की माँग और सप्लाई के बीच बनी खाई ने किसानों को मजबूर कर दिया है कि वे खेती के पैटर्न में बदलाव करें लेकिन यह बहुत छोटे स्तर पर हो रहा है। कर्नाटक शुगरकेन ग्रोअर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष के. शान्ताकुमार कहते हैं, ‘गन्ना उत्पादन करने वाले कई किसान अब केले, सूरजमुखी और कपास की खेती करने लगे हैं।’

उधर, डॉ. महादेवु कोशिश कर रहे हैं कि कावेरी के कमाण्ड एरिया में ऐसी फसलें उगाई जाएँ जिनमें पानी की कम जरूरत पड़े। सम्प्रति उनका फोकस गन्ने और धान की जगह दालों के उत्पादन पर है। दालों को कम पानी की जरूरत पड़ती है और इससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है। साथ ही दालें यहाँ की पारम्परिक फसलें हैं। इसके अलावा यहाँ के किसान फलों और साग-सब्जियों का उत्पादन कर उन्हें पड़ोस के शहरों में बेच सकते हैं जिससे उनकी आय बढ़ सकती है।

डॉ. महादेवु ने कहा, ‘हम धान और गन्ने की खेती में ऐसी तकनीक इस्तेमाल करने पर भी जोर दे रहे हैं ताकि पानी की जरूरत कम हो।’ उन्होंने कहा कि ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंक्लिंग (छिड़काव) सिस्टम के जरिए 30-40 प्रतिशत पानी का बचाव किया जा सकता है। यही नहीं, सीधे धान की रोपाई से भी फायदा मिलेगा। इससे धान की फसल को कम पानी की जरूरत पड़ती है और 90 से 120 दिनों में फसलें तैयार हो जाती हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि मोटे अनाज का उत्पादन इस क्षेत्र के लिये बेहतर होगा। डॉ. महादेवु कहते हैं, ‘मोटे अनाज बारिश के पानी पर निर्भर होते हैं और इन्हें अधिक पानी की जरूरत नहीं पड़ती है। ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाज को गन्ने की तुलना में 25 प्रतिशत कम और धान की तुलना में 30 प्रतिशत कम पानी की जरूरत पड़ती है। अच्छी बात यह है कि मोटे अनाजों को सूखे से कोई फर्क नहीं पड़ता है।’

कावेरी नदी बेसिनदूसरी तरफ, मोटे अनाज पौष्टिक भी होते हैं अतएव सरकार, संस्थाएँ और किसान अगर चाहें तो खेती का पैटर्न बदल सकता है। बंगलुरु और चेन्नई जैसे शहरों में मोटे अनाजों के सेवन को लेकर जागरुकता बढ़ रही है। लोग समझने लगे हैं कि इन अनाजों में चावल की तुलना में अधिक पौष्टिक तत्व हैं। यही नहीं, कुछ होटलों में भी मोटे अनाज से बने भोजन को प्राथमिकता दी जा रही है ताकि इन फसलों के प्रति किसानों का रुझान बढ़े।

सरकार अगर मोटे अनाज को राशन सिस्टम में शामिल कर ले और किसानों को अनाज का उचित मूल्य मिले तो निश्चित तौर पर वे इन फसलों की तरफ रुख करेंगे लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। शान्ताकुमार कहते हैं, ‘किसान मोटे अनाजों के उत्पादन के इच्छुक नहीं हैं क्योंकि यह लाभकारी नहीं है। अगर उन्हें अच्छी कीमत मिलेगी तो वे ये फसलें ही उगाएँगे लेकिन सरकार कुछ करे तब न!’ तमिलनाडु वुमेंस कलेक्टिव की संस्थापक शीलू फ्रांसिस कहती हैं, ‘कावेरी के डेल्टा क्षेत्र में रहने वाले किसान मोटे अनाजों की खेती नहीं करना चाहते हैं। धान को अधिक मिनिमम सपोर्ट प्राइस मिलती है। धान उपजाने वाले किसानों को बिना ब्याज लोन मिल जाता है। इसके साथ ही उन्हें दूसरी तरह की सहूलियतें भी मिलती हैं।’

रोहिणी नीलेकणी कहती हैं, ‘फुड हैबिट में बदलाव से फसलों के पैटर्न में बदलाव हो सकता है। शहरों में चावल, चीनी और मैदा जैसी चीजों से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर लोग जागरूक हैं। उच्चवर्ग अगर इस तरह के खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल करेगा तो समाज का दूसरा तबका भी धीरे-धीरे इसे अपनाने लगेगा। हाँ, इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है।’

स्थानीय स्तर पर किसान और आम लोग भले लाख प्रयास कर लें अगर सरकार इसकी जरूरत समझकर किसानों के अनुकूल नीतियाँ नहीं बनाएगी तब तक कोई हल नहीं निकलेगा।

हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘किसान इस तरह की फसलें उगा सकें जिसमें पानी की जरूरत कम हो, इसके लिये सरकार को आगे आना होगा। सरकार को चाहिए कि वह किसानों को प्रोत्साहन राशि देकर कम पानी वाली फसलें उगाने के लिये प्रेरित करें। इसके साथ ही शहरों और उद्योग क्षेत्रों में पानी की जो खपत है उसे भी व्यवस्थित करने की जरूरत है। ठक्कर ने यह भी कहा कि कावेरी के कैचमेंट एरिया का भी प्रबन्धन किया जाना चाहिए क्योंकि बारिश का पानी कैचमेंट एरिया से ही नदी में पहुँचता है।


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