डॉ. टी.हक देश के जाने माने कृषि अर्थशास्त्री हैं। भारत सरकार के कमिशन फॉर एग्रिकल्चर, कॉस्ट ऑफ प्राइसेस के चेयरमैन रहे डॉ. हक योजना आयोग, कृषि मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय के सलाहकार समिति में शामिल रहे हैं। वे वर्तमान में सेंटर फॉर सोशल डेवलपेंट नामक संस्थान में डॉयरेक्टर होने के साथ ही काउंसिल ऑफ डेवलपमेंट फॉर बिहार एंड झारखंड से भी जुड़े हुए हैं। पेश है पंचायतानामा के लिए देश में कृषि विकास की संभावनाओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर डॉ. हक से संतोष कुमार सिंह की बातचीत:
भारत को किसानों का देश कहा जाता है? लेकिन आज किसान खेती किसानी को छोड़कर दूसरे रोजगार से जुड़ना चाहते हैं? क्या वजह मानते हैं?
भारत किसानों का देश है और आज भी देश की अधिकांश आबादी कृषि कार्य में संलग्न है, इस बात में कोई संदेह नहीं है। लेकिन जहां तक खेती किसानी छोड़ने का प्रश्न है, स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति बेहतर की तलाश करता है। आज खेती कार्य लाभकारी नहीं रह गया है। खेती में लागत इतनी बढ़ गयी है कि छोटे और सीमांत किसानों को उनकी वास्तविक लागत भी नहीं मिल पाती। इनपुट ज्यादा है और आउटपुट कम। ऐसे में ज्यादातर किसान विकल्पहीनता के शिकार हैं। वह मजबूरी में खेती करता है, लेकिन जैसे ही उसे बेहतर विकल्प मिलता है, वह खेती कार्य छोड़कर किसी अन्य कार्य में लग जाना चाहता है। यहां तक कि वह कृषि मजदूर के रूप में काम कर अपने परिवार का भरण-पोषण करने की इच्छा रखता है, लेकिन खेती को लाभकारी नहीं मानता। यह तो छोटे किसानों की बात रही। जहां तक बड़े भूमिपतियों का सवाल वे ज्यादातर भूमि बंटाई या ईजारेदारी पर लगा देते हैं। मंझोले किसान भी अपनी जरूरत के मुताबिक ही खेती करते हैं। इस तरह से देखा जाये तो किसानों के देश में किसानों की अधिकांश आबादी बेहतर कल की तलाश खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और जो लोग कर भी रहे हैं, वे सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं है।
सवाल सिर्फ खाद्य सुरक्षा का नहीं है। हम खाद्य सुरक्षा की बात कर रहे हैं लेकिन खेती किसानी को बचाने और इसे लाभप्रद बनाने के पुख्ता प्रयास नहीं कर रहे हैं। कृषि को लाभकारी बनाया जाना बहुत ही जरूरी है। किसान जो फसल जमीन पर लगाता है, उसको उगाने में, उसकी देख-रेख में खर्च कम हो और किसान को पर्याप्त लाभ हो (अभी तो घाटा ही हो रहा है) ऐसा होता नहीं दिखता। और न ही ऐसी सोच विकसित की जा रही है कि किसी भी कीमत पर कृषि का विकास करना है और कृषकों को लाभ पहुंचाना है। इसके लिए हमें कई स्तर पर प्रयास करना होगा। उत्पादन में वृद्धि के लिए बीज की गुणवत्ता सुनिश्चिात करनी होगी। सिंचाई के साधन विकसित करना होगा, उर्वरक, कीटनाशक आदी को सस्ते दामों पर उपलब्धता सुनिश्चिीत करना होगा। उन्हें परंपरागत तकनीक के साथ आधुनिक तकनीक से भी जोड़ना होगा, ताकि लागत कम हो, और खाद्यात्र की पैदावार बढे.. उनका मुनाफा बढे..
देखिए, खेती किसानी को लेकर हरेक स्तर पर समस्या है। किसी साल किसानों ने मेहनत की, मानसून ने साथ दिया और फसल अच्छी हो गयी। बावजूद इसके यह देखने में आता है, उत्पाद का बाजार मूल्य काफी कम हो जाता है। न तो उचित भंडारण की व्यवस्था है, न तो किसानों के लिए नजदीकी बाजार की। किसान अपनी फसल को ज्यादा दिनों तक रोके नहीं रख सकता, क्योंकि उसके पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह ज्यादा दिनों तक फसलों को रोके रख सकता है। और न ही बाजार समिति या कृषि बाजार का उचित सेटअप है, जहां अपने उत्पाद को बेचकर वह अतिरिक्त आय कर सकता है। ऐसी परिस्थिति में बिचौलिये बड़े पैमाने पर उत्पादों की खरीदारी कर लेते हैं, उन्हें तो लाभ होता है, लेकिन किसान को उसका उचित हिस्सा नहीं मिल पाता। यह तो स्थिति उस वक्त का है, जब मानसून बेहतर हुआ। लेकिन हमारे किसानों को कभी बाढ़ का सामना करना पड़ता है तो कभी सूखे का। अगर उसका नुकसान हुआ, तो वह पूरी तरह से मनीलेंडर के ऊपर निर्भर हो जाता है। ऐसे में किसानों को मनीलेंडर (साहूकार) के चंगुल से बचाने में संस्थागत क्रेडिट की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। फसल बीमा और उन्हें मुआवजा की बड़े पैमाने पर व्यवस्था हो वह साहूकार के चंगुल से बच सकता है। ऐसी परिस्थिति में किसान खेतों में कम से कम निवेश करना चाहता है, ताकि उसे जोखिम कम हो। सरकार अगर किसानों के जोखिम को वहन करे, तो वह खेती पर ज्यादा ध्यान देगा।
हरित क्रांति के पहले चरण में पंजाब, हरियाणा आदि में व्यापक पैमाने पर सरकारी निवेश हुआ। इसके परिणाम भी सामने आये। कुछ महत्वपूर्ण खाद्यात्रों के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। पूर्वी भारत में खेती के विकास की असीमित संभावनाएं हैं। जमीन उपजाऊ है। लेकिन प्राकृतिक कारणों से अनिश्चि्तता भी बहुत है। लगभग 40 फीसदी इलाका बाढ़ ग्रस्त है। 10 फीसदी इलाके में हर दूसरे साल सुखाड़ की स्थिति होती है। ऐसे में अगर सरकार इन इलाकों में खेती का विकास करना चाहती है, द्वितीय हरित क्रांति लाने को उत्सुक है, तो सिर्फ चंद करोड़ रुपये से बात नहीं बनने वाली और न ही 1000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन से इस सपने को पूरा किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक निवेश और दीर्घकालिक रणनीति की आवश्यकता है, तभी इन इलाकों में खेती का समुचित विकास किया जा सकता है।
इस दावे के पीछे पुख्ता सोच है। मैं खुद बिहार के कृषि रोड मैप तैयार करने वाली टीम में शामिल रहा हूं। बिहार का कृषि रोड मैप काफी अच्छा है और बिहार की धरती काफी उपजाऊ है और किसान मेहनती। जो किसान पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जाकर वहां खेती के व्यवस्था को सुधार सकते हैं, वे मौका मिलने पर अपने राज्य की तसवीर भी बदल सकते हैं। जरूरत है उनपर भरोसा करने की और उन्हें बेहतर सुविधा मुहैया कराने की। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनके इसी सोच को बढ़ावा देते हुए कृषि प्रधान राज्य बिहार को कृषि के क्षेत्र में अव्वल बनाना चाहते हैं। इसी का नतीजा है बिहार का कृषि रोड मैप। लेकिन इसके लिए काफी मेहनत की जरूरत होगी। कई स्तर पर काम करना होगा। किसान के आय में इजाफे के लिए उत्पादन, भंडारण और प्रसंस्करण क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में बहुत प्रयास करना होगा। आधुनिक तकनीक को प्रोत्साहन, जैविक कृषि और उन्नत बीजों के उपयोग को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है। श्री विधि तकनीक को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है। सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है। राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा दिये जाने का प्रयास हो रहा है। किसान भी सरकार के प्रयास में सहयोग दे रहे हैं। पिछले साल नालंदा के एक किसान ने जैविक विधि से आलू उत्पादन में रिकार्ड बना दिया। किसानों ने धान के पैदावार में भी रिकार्ड बनाया है। मार्केटिंग, क्रेडिट और इंश्योरेंस की व्यवस्था को बेहतर बनाया जाये, तो किसान खेती कार्य से जुड़ेंगे और बिहार में सतरंगी क्रांति के सपनों को साकार किया जा सकेगा। भंडारण को लेकर भी बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में समस्या है, हालांकि केंद्र सरकार के सहयोग से इस दिशा में काम हो रहा है। सब्जी, फल, एवं अन्य नकदी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देकर किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है।
देखिए, गांव से जुड़ा कोई भी ऐसा काम नहीं है, जिसमें पंचायत की भूमिका नहीं हो सकती है। खेती तो ग्रामीण इलाकों का ही विषय है। खेती के प्रसार में पंचायत अहम भूमिका निभा सकता है। यहां तक की रोडमैप में भी प्रत्येक पंचायत में कृषि प्रसार अभिकर्ता और पंचायत कृषि पदाधिकारी को नियोजित किये जाने की बात कही गयी है। एग्रीकल्चर स्नातकों की नियुक्ति भी की गयी है। जो किसानों को खेती की तकनीक, उनसे संबंधित सरकारी योजनाओं की जानकारी और उनके समस्याओं को निपटाने में भूमिका निभा रहे हैं। एग्रीकल्चर क्रेडिट के विकास में पैक्स, कॉपरेटिव सोसाइटी, विभिन्न स्तरों पर गठित किये जाने वाले स्वयं सहायता समूह का अहम रोल है। ये न सिर्फ किसानों के क्रेडिट को बढ़ाने में मदद करेंगे, बल्कि जोखिम वहन करने की उनकी क्षमता भी बढ़ेगी।
भारत को किसानों का देश कहा जाता है? लेकिन आज किसान खेती किसानी को छोड़कर दूसरे रोजगार से जुड़ना चाहते हैं? क्या वजह मानते हैं?
भारत किसानों का देश है और आज भी देश की अधिकांश आबादी कृषि कार्य में संलग्न है, इस बात में कोई संदेह नहीं है। लेकिन जहां तक खेती किसानी छोड़ने का प्रश्न है, स्वाभाविक रूप से प्रत्येक व्यक्ति बेहतर की तलाश करता है। आज खेती कार्य लाभकारी नहीं रह गया है। खेती में लागत इतनी बढ़ गयी है कि छोटे और सीमांत किसानों को उनकी वास्तविक लागत भी नहीं मिल पाती। इनपुट ज्यादा है और आउटपुट कम। ऐसे में ज्यादातर किसान विकल्पहीनता के शिकार हैं। वह मजबूरी में खेती करता है, लेकिन जैसे ही उसे बेहतर विकल्प मिलता है, वह खेती कार्य छोड़कर किसी अन्य कार्य में लग जाना चाहता है। यहां तक कि वह कृषि मजदूर के रूप में काम कर अपने परिवार का भरण-पोषण करने की इच्छा रखता है, लेकिन खेती को लाभकारी नहीं मानता। यह तो छोटे किसानों की बात रही। जहां तक बड़े भूमिपतियों का सवाल वे ज्यादातर भूमि बंटाई या ईजारेदारी पर लगा देते हैं। मंझोले किसान भी अपनी जरूरत के मुताबिक ही खेती करते हैं। इस तरह से देखा जाये तो किसानों के देश में किसानों की अधिकांश आबादी बेहतर कल की तलाश खेती-किसानी छोड़ रहे हैं और जो लोग कर भी रहे हैं, वे सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके पास विकल्प नहीं है।
यह तो बहुत ही नकारात्मक तसवीर है? ऐसे में खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चिभत होगी?
सवाल सिर्फ खाद्य सुरक्षा का नहीं है। हम खाद्य सुरक्षा की बात कर रहे हैं लेकिन खेती किसानी को बचाने और इसे लाभप्रद बनाने के पुख्ता प्रयास नहीं कर रहे हैं। कृषि को लाभकारी बनाया जाना बहुत ही जरूरी है। किसान जो फसल जमीन पर लगाता है, उसको उगाने में, उसकी देख-रेख में खर्च कम हो और किसान को पर्याप्त लाभ हो (अभी तो घाटा ही हो रहा है) ऐसा होता नहीं दिखता। और न ही ऐसी सोच विकसित की जा रही है कि किसी भी कीमत पर कृषि का विकास करना है और कृषकों को लाभ पहुंचाना है। इसके लिए हमें कई स्तर पर प्रयास करना होगा। उत्पादन में वृद्धि के लिए बीज की गुणवत्ता सुनिश्चिात करनी होगी। सिंचाई के साधन विकसित करना होगा, उर्वरक, कीटनाशक आदी को सस्ते दामों पर उपलब्धता सुनिश्चिीत करना होगा। उन्हें परंपरागत तकनीक के साथ आधुनिक तकनीक से भी जोड़ना होगा, ताकि लागत कम हो, और खाद्यात्र की पैदावार बढे.. उनका मुनाफा बढे..
अक्सर ऐसा देखा गया है कि पर्याप्त मात्रा में खाद्यात्र या अन्य फसलों के उत्पादन के बाद भी किसान लाभ की स्थिति में नहीं होता?
देखिए, खेती किसानी को लेकर हरेक स्तर पर समस्या है। किसी साल किसानों ने मेहनत की, मानसून ने साथ दिया और फसल अच्छी हो गयी। बावजूद इसके यह देखने में आता है, उत्पाद का बाजार मूल्य काफी कम हो जाता है। न तो उचित भंडारण की व्यवस्था है, न तो किसानों के लिए नजदीकी बाजार की। किसान अपनी फसल को ज्यादा दिनों तक रोके नहीं रख सकता, क्योंकि उसके पास इतनी क्षमता नहीं है कि वह ज्यादा दिनों तक फसलों को रोके रख सकता है। और न ही बाजार समिति या कृषि बाजार का उचित सेटअप है, जहां अपने उत्पाद को बेचकर वह अतिरिक्त आय कर सकता है। ऐसी परिस्थिति में बिचौलिये बड़े पैमाने पर उत्पादों की खरीदारी कर लेते हैं, उन्हें तो लाभ होता है, लेकिन किसान को उसका उचित हिस्सा नहीं मिल पाता। यह तो स्थिति उस वक्त का है, जब मानसून बेहतर हुआ। लेकिन हमारे किसानों को कभी बाढ़ का सामना करना पड़ता है तो कभी सूखे का। अगर उसका नुकसान हुआ, तो वह पूरी तरह से मनीलेंडर के ऊपर निर्भर हो जाता है। ऐसे में किसानों को मनीलेंडर (साहूकार) के चंगुल से बचाने में संस्थागत क्रेडिट की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। फसल बीमा और उन्हें मुआवजा की बड़े पैमाने पर व्यवस्था हो वह साहूकार के चंगुल से बच सकता है। ऐसी परिस्थिति में किसान खेतों में कम से कम निवेश करना चाहता है, ताकि उसे जोखिम कम हो। सरकार अगर किसानों के जोखिम को वहन करे, तो वह खेती पर ज्यादा ध्यान देगा।
केंद्र सरकार हरित क्रांति के क्षेत्र का विस्तार कर अब पूर्वी भारत में खेती के विकास की तरफ ध्यान दे रही है? इसके लिए बजटीय आवंटन भी किया गया है?
हरित क्रांति के पहले चरण में पंजाब, हरियाणा आदि में व्यापक पैमाने पर सरकारी निवेश हुआ। इसके परिणाम भी सामने आये। कुछ महत्वपूर्ण खाद्यात्रों के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई। पूर्वी भारत में खेती के विकास की असीमित संभावनाएं हैं। जमीन उपजाऊ है। लेकिन प्राकृतिक कारणों से अनिश्चि्तता भी बहुत है। लगभग 40 फीसदी इलाका बाढ़ ग्रस्त है। 10 फीसदी इलाके में हर दूसरे साल सुखाड़ की स्थिति होती है। ऐसे में अगर सरकार इन इलाकों में खेती का विकास करना चाहती है, द्वितीय हरित क्रांति लाने को उत्सुक है, तो सिर्फ चंद करोड़ रुपये से बात नहीं बनने वाली और न ही 1000 करोड़ रुपये के बजटीय आवंटन से इस सपने को पूरा किया जा सकता है। इसके लिए व्यापक निवेश और दीर्घकालिक रणनीति की आवश्यकता है, तभी इन इलाकों में खेती का समुचित विकास किया जा सकता है।
बिहार कृषि प्रधान राज्य है, झारखंड में भी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है? बिहार सरकार ने कृषि के विकास के लिए रोडमैप बनाया है और कृषि विकास के जरिए बिहार को विकास की पटरी पर लाने का दावा कर रही है? कितना भरोसा है इस दावे पर?
इस दावे के पीछे पुख्ता सोच है। मैं खुद बिहार के कृषि रोड मैप तैयार करने वाली टीम में शामिल रहा हूं। बिहार का कृषि रोड मैप काफी अच्छा है और बिहार की धरती काफी उपजाऊ है और किसान मेहनती। जो किसान पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जाकर वहां खेती के व्यवस्था को सुधार सकते हैं, वे मौका मिलने पर अपने राज्य की तसवीर भी बदल सकते हैं। जरूरत है उनपर भरोसा करने की और उन्हें बेहतर सुविधा मुहैया कराने की। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनके इसी सोच को बढ़ावा देते हुए कृषि प्रधान राज्य बिहार को कृषि के क्षेत्र में अव्वल बनाना चाहते हैं। इसी का नतीजा है बिहार का कृषि रोड मैप। लेकिन इसके लिए काफी मेहनत की जरूरत होगी। कई स्तर पर काम करना होगा। किसान के आय में इजाफे के लिए उत्पादन, भंडारण और प्रसंस्करण क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में बहुत प्रयास करना होगा। आधुनिक तकनीक को प्रोत्साहन, जैविक कृषि और उन्नत बीजों के उपयोग को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है। श्री विधि तकनीक को बढ़ावा दिये जाने की जरूरत है। सरकार इस दिशा में प्रयास कर रही है। राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा दिये जाने का प्रयास हो रहा है। किसान भी सरकार के प्रयास में सहयोग दे रहे हैं। पिछले साल नालंदा के एक किसान ने जैविक विधि से आलू उत्पादन में रिकार्ड बना दिया। किसानों ने धान के पैदावार में भी रिकार्ड बनाया है। मार्केटिंग, क्रेडिट और इंश्योरेंस की व्यवस्था को बेहतर बनाया जाये, तो किसान खेती कार्य से जुड़ेंगे और बिहार में सतरंगी क्रांति के सपनों को साकार किया जा सकेगा। भंडारण को लेकर भी बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में समस्या है, हालांकि केंद्र सरकार के सहयोग से इस दिशा में काम हो रहा है। सब्जी, फल, एवं अन्य नकदी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देकर किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है।
कृषि के विकास में पंचायत की भूमिका को किस रूप में देखते हैं? पैक्स कृषि साख के विकास के लिए कितना महत्वपूर्ण है?
देखिए, गांव से जुड़ा कोई भी ऐसा काम नहीं है, जिसमें पंचायत की भूमिका नहीं हो सकती है। खेती तो ग्रामीण इलाकों का ही विषय है। खेती के प्रसार में पंचायत अहम भूमिका निभा सकता है। यहां तक की रोडमैप में भी प्रत्येक पंचायत में कृषि प्रसार अभिकर्ता और पंचायत कृषि पदाधिकारी को नियोजित किये जाने की बात कही गयी है। एग्रीकल्चर स्नातकों की नियुक्ति भी की गयी है। जो किसानों को खेती की तकनीक, उनसे संबंधित सरकारी योजनाओं की जानकारी और उनके समस्याओं को निपटाने में भूमिका निभा रहे हैं। एग्रीकल्चर क्रेडिट के विकास में पैक्स, कॉपरेटिव सोसाइटी, विभिन्न स्तरों पर गठित किये जाने वाले स्वयं सहायता समूह का अहम रोल है। ये न सिर्फ किसानों के क्रेडिट को बढ़ाने में मदद करेंगे, बल्कि जोखिम वहन करने की उनकी क्षमता भी बढ़ेगी।
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