खेती को नकारती खाद्य सुरक्षा

खेती पर कंपनियों की दखल से खाद्य सुरक्षा को बड़ा खतरा है। खेतों से भूख शांत करने वाली फसलें उगाने के बजाए एकल नगदी फसलें, उद्योगों के लिए कच्चा माल व अमीरों की गाड़ियां चलाने के लिए निर्मित सड़कें एवं जेट्रोफा जैसी फसलें उगाना खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं।

खाद्यान्न का आयात कर भारत अपनी खाद्य सुरक्षा नहीं कर सकता। आवश्यकता इस बात की है कि देश में कृषि और खाद्यान्न की विविधता बनाए रखते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पुनः व्यवस्थित किया जाए। साथ ही साथ किसानों को पारम्परिक बीजों के प्रयोग हेतु प्रोत्साहित करना भारत को अपनी सार्वभौमिकता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक को संसद में लाए जाने की पूरी तैयारी कर ली है। विधेयक के मसौदे पर कई बार चर्चाएं होने के बावजूद खाद्यान्न की असली बुनियाद खेती-किसानी की बढ़ती समस्याओं का समाधान विधेयक से गायब है। भूखों को भोजन मिले यह निःसंदेह अच्छा काम है। किंतु भूख कैसे पैदा हो रही है और अन्नदाता स्वयं भुखमरी की ओर क्यों बढ़ रहा है इसका समाधान ढूंढा जाना बहुत जरुरी है। खेती के बिना खाद्य सुरक्षा कैसे होगी? सभी तरह के अनाज खेतों से किसानों की मेहनत से ही आते हैं किसी कारखाने से नहीं। किंतु लगता है सरकार के लिए अन्नदाता किसान नहीं बल्कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जो भारतीय किसान की जड़ काटने में लगी हैं। ये कंपनियां अब विदेशों में हर वर्ष डम्प पड़ने वाले घटिया गेहूं-चावल को भारत सरकार को अच्छे दामों से बेचेगी, फिर पीडीएस के मार्फत यही अनाज गरीबों तक पहुंचेगा। इसका सबसे बुरा असर छोटे एवं सीमांत किसानों पर तो पड़ेगा ही किंतु बड़ा किसान भी इसकी मार झेलेगा।

पहली हरित क्रांति एवं गलत कृषि नीति ने किसानों की जीवन पद्धति व संस्कृति को उजाड़ कर कृषि को व्यापार बनाकर उसे घाटे का सौदा बना दिया। विविधता युक्त खेती एकल नगदी फसल में बदल दी गई। बिना लागत की खेती भारी लागत आधारित हुई। पहले किसान कर्जदार नहीं थे किंतु आज हर एक किसान कर्ज के जाल में फंसा है। किसानों के घरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीज, रासायनिक खादें, कीटनाशक जहर सहित अनेक उपकरण हैं किंतु अन्न का दाना नहीं है। ऊपर से बैंक और साहूकारों का कर्ज और साथ में उगाही का उत्पीड़न। इसी निराशा से दुखी 2 लाख से अधिक किसान अब तक आत्महत्या कर चुके हैं। यही कारण है कि किसान के बेटा-बेटी अब किसान नहीं बनना चाहते। एक अनुमान के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक किसान खेती छोड़कर बेरोजगारी की तरफ बढ़ना चाहते हैं। सरकार किसानों को पारम्परिक जीवन पद्धति, संस्कृति और विविधतापूर्ण खेती की ओर लौटने में मदद करने के बजाए उनसे अप्रत्यक्ष रूप से खेती छीनने के प्रयास कर रही है।

खाद्य सुरक्षा में सिर्फ गेहूं-चावल की व्यवस्था करने का मतलब है बहुमूल्य, स्वाभिमानी, स्वावलम्बी एवं पोषणकारी जैव विविधता पर अप्रत्यक्ष हमला। देश के कुल कृषि क्षेत्र का दो तिहाई के लगभग असिंचित है, जिससे 44 प्रतिशत खाद्यान्न, 75 प्रतिशत दालें व 90 प्रतिशत कथित मोटा अनाज मिलता है। 50 प्रतिशत श्रमिकों को रोजगार एवं 60 प्रतिशत मवेशियों का चारा भी इसी असिंचित क्षेत्र से आता है। असिंचित खेती में मुख्यतः मंडुआ (रागी), ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी एवं चीना आदि सहित विविधता युक्त दलहन, तिलहन व साग भाजी मिश्रित फसलें उगाई जाती हैं। ये अनाज ग्रामीण मेहनतकश लोगों के भोजन का मुख्य हिस्सा हैं और उनकी खान-पान की संस्कृति में रचे बसे हैं। इसलिए वैज्ञानिक एवं सरकारी भाषा में इन्हें उपेक्षित भाव से मोटे अनाज कहा जाता है। जबकि पौष्टिकता की दृष्टि से ये गेहूं-चावल से कई गुना ज्यादा हैं। अंग्रेजी में इन्हें मिलेट कहते हैं। अब इनके महत्व को देखते हुए डॉक्टर व आहार विशेषज्ञ आरोग्य व पोषण की दृष्टि से लोगों को मिलेट खाने की सलाह देते हैं। इनसे बहुराष्ट्रीय निगमों का बीज, खाद एवं कीटनाशक उद्योग नहीं चलता इसलिए इन्हें हतोत्साहित करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। सन् 1956-61 में गेहूं की खेती 12.84 मिलियन हेक्टेयर में और मोटे यानि पौष्टिक अनाज 36.02 मिलियन हेक्टेयर में की जाती थी। 2001-06 आते-आते गेहूं का क्षेत्र बढ़कर 26.02 मिलियन हेक्टेयर हो गया और पौष्टिक अनाज का क्षेत्र घटकर 21.31 मिलियन हेक्टेयर रह गया।

सरकार पीडीएस एवं अपने बफर स्टाक में सिर्फ गेहूं-चावल रखकर खाद्यसुरक्षा मानकर बड़ी गलती कर रही है। जबकि कई आदिवासी बाहुल्य इलाकों में आज भी गेहूँ नहीं खाया जाता। रागी, ज्वार, बाजरा एवं सांवर आदि के बिना खाद्यसुरक्षा अधूरी है। दरअसल ये विविधता युक्त फसलें उन बहुराष्ट्रीय निगमों के कब्जे में नहीं हैं, जो पहले भूख पैदा कर रहे हैं और पीछे से भोजन परोसने की वकालत करते हैं। सरकार भी इन पौष्टिक अनाजों को खाद्यान्न के बजाए शराब बनाने के लिए कच्चा माल मानकर अमीरों की मौज-मस्ती की पूर्ति कर रही है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के क्षेत्र महाराष्ट्र एवं गुजरात आदि राज्यों में बड़ी मात्रा में ज्वार-बाजरे से शराब बनाई जा रही है। सरकार के बफर स्टाक में भले ही दुगना अनाज हो किंतु आम आदमी के लिए सड़ा गला एवं चूहों के मल मूत्र युक्त गेहूं व चावल की आपूर्ति जगजाहिर है। इस सस्ते अनाज को खाकर लोगों की जितनी बचत होती है, उससे अधिक पैसा डॉक्टरों की झोली में जा रहा है। क्योंकि इसे खाने से बीमारियां हो रही हैं।

खाद्य सुरक्षा कानून खाद्यान्न असुरक्षा पैदा न करे इसके लिए जरुरी है कि किसानों और खेती की बदहाली के लिए जिम्मेदार कृषि नीति में बदलाव लाया जाए। पीडीएस में गेहूं-चावल के अलावा पौष्टिक अनाजों एवं दलहन तिलहन को शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण भारत सिर्फ पीडीएस के सहारे नहीं है अपितु ग्रामीणों की खाद्य व्यवस्था के मूल आधार विविधता युक्त फसलें, जल, जंगल एवं जमीन हैं। जंगलों से बारहमासी कुछ न कुछ कंदमूल, फल एवं साग-भाजी मिलती है तो नदियों एवं समुद्र किनारे रहने वाले लोगों की जीविका का आधार मछलियां हैं लेकिन आज इन संसाधनों पर विकास की मार पड़ने से लोगों की आजीविका खतरे में है। जिस उपजाऊ जमीन पर फसलें उगती थीं, वहां बड़े-बड़े प्रदूषणकारी उद्योग, कॉलोनियां, सेज एवं माल्स के कांक्रीट से बने जंगल उगाने की योजनाओं को विकास माना जा रहा है। जलवायु परिवर्तन एवं जंगली जानवरों की मार अलग से है। खेती की जीवन पद्धति, संस्कृति एवं आजीविका को छीनकर सिर्फ कमाई का धंधा बनाना और खेती पर कंपनियों की दखल से खाद्य सुरक्षा को बड़ा खतरा है। खेतों से भूख शांत करने वाली फसलें उगाने के बजाए एकल नगदी फसलें, उद्योगों के लिए कच्चा माल व अमीरों की गाड़ियां चलाने के लिए निर्मित सड़कें एवं जेट्रोफा जैसी फसलें उगाना खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं।

(लेखक बीज बचाओ आंदोलन के संचालक हैं।)

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