खेती को बचाने के तीन उपाय

भारत को आयात शुल्क बढ़ाने होंगे और तमाम हमलों से अपनी कृषि को बचाना होगा। दुर्भाग्य से भारत अमेरिकी सलाह पर चल रहा है। भारत दोहा विकास राउंड पर हस्ताक्षर करने को उतावला है। इससे राजनीतिक संदेश जाएगा कि भारत किसी भी घरेलू कीमत पर अमेरिकी किसानों के हितों को सुरक्षित रखेगा।

ऐसा लगता है कि भारतीय कृषि में दुनिया की फिर से रुचि उत्पन्न हो गई है। शायद ही कोई सप्ताह बीतता हो जब कोई अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, विदेशी विश्वविद्यालय, धर्मार्थ संस्था या कृषि व्यवसाय में संलग्न विदेशी कंपनी कृषि संकट से निजात पाने के उपाय ढूंढ़ने के लिए भारत में सम्मेलन न करती हो। लगता है कि धनी और औद्योगिक देशों ने वंचित और उपेक्षा से घिरे कृषक समुदाय की सहायता के लिए हाथ बढ़ा दिया है। इन सभी सम्मेलनों के निष्कर्ष कुल मिलाकर एक से ही रहते हैं। इस बिंदु पर मतैक्य है कि भारतीय कृषि पैदावार में ठहराव आ गया है। इसलिए जैविक रूप से उन्नत फसलों को तेजी से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कृषि अनुसंधान में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही खाद्य पदार्थों का विपणन कंपनियों को सौंपने से किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी। अगर इन व्याख्यानों को पूरा सुनने का धैर्य हो तो इस दयालुता के पीछे छिपे निहित स्वार्थ स्पष्ट हो जाते हैं।

कंपनी या संस्थान वास्तव में नए रासायनिक उत्पाद या उपकरण बेचने का प्रयास कर रहे हैं। आपदाएं और मानवीय त्रासदियां अक्सर नए उत्पाद बेचने का सही अवसर प्रदान करती हैं। भारत की महाकृषि त्रासदी भी ऐसे ही बाजार के अवसर पेश कर रही है। हाल ही में दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में मुझे यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि वहां मौजूद अनेक विशिष्ट कृषि अर्थशास्त्रियों ने जैव उन्नत फसलों की जोरदार वकालत की। कुछ अन्य ने दलीलें पेश कीं कि नए यंत्र और उपकरणों का इस्तेमाल किया जाए, कृषि क्लीनिक खोले जाएं और अनुबंध खेती तथा खाद्य पदार्थों की फूड रिटेल चेन का मार्ग प्रशस्त किया जाए। चार अंधों और एक हाथी की कथा की तरह मुझे महसूस हुआ ये विशेषज्ञ इस अभूतपूर्व कृषि संकट के पीछे के कारणों को पहचान पाने में भी असफल रहे हैं। उनके लिए तो इसका हल नई प्रौद्योगिकी लाने और किसानों को नए-नए उपकरण बेचना मात्र है। बदले में उन्हें रिटायरमेंट के बाद आयातित फर्म के लिए सलाहकार बनने का मौका मिल जाता है या फिर बाद में अगर संभव हो तो इन्हीं कंपनियों में स्थायी नौकरी मिल जाती है। सम्मेलन में मैंने कहा कि अगर हम ऐसी कृषि पद्धति पेश करें जो जैव उन्नत फसल, रासायनिक खाद से मुक्त हो और पैदावार भी कम न हो तो क्या आपको कोई आपत्ति है?

मैं जिस कृषि पद्धति का बात कर रहा हूं उसमें कोई खुदकुशी नहीं होगी, तेजी से बढ़ते नक्सलवाद के प्रभाव में तीव्र गिरावट आएगी और गांवों से शहरों की ओर पलायन का चक्र उलटा हो जाएगा। इसके लिए अरबों-खरबों रुपये के बचाव पैकेज की जरूरत भी नहीं होगी। न ही इसमें रासायनिक कारखाने लगाने के लिए भारी भरकम धनराशि निवेश करनी होगी। बस हमें नजरिया बदलने और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है और हम किसानों की आत्महत्याएं रोकने में कामयाब हो जाएंगे। यकीन रखें, यह पूरी तरह संभव है।
 

कृषि में सुधार के तीन सिद्धांत हैं।


पहला सिद्धांत है कृषि भूमि की सही देखभाल। हरित क्रांति की देन सघन खेती पद्धति ने प्राकृतिक संसाधन आधार नष्ट कर दिया है। पूरे देश में मिट्टी की ताकत निचोड़ ली गई है। कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल ने पर्यावरण और मानव खाद्य उत्पादन को विषैला कर दिया है। भूमिगत जल के भंडार भी खत्म होने लगे हैं। हमें इस पर ध्यान देना होगा कि केवल आंध्र प्रदेश में ही नहीं, बल्कि देश के अनेक भागों में भी किसान बिना कीटनाशकों और खादों के फसल उगा रहे हैं। न उपज में कमी हो रही है और न ही फसल पर कीटों का हमला हो रहा है। पर्यावरण तो स्वच्छ हुआ ही है। खाद्य पदार्थ स्वस्थ व सुरक्षित हैं। दूसरा सिद्धांत है सुनिश्चित कृषि आय। इस आम धारणा कि फसल की पैदावार बढ़ने से खेती की आमदनी बढ़ती है, उसके विपरीत किसानों की आय घट गई है। हरित क्रांति के चालीस साल बाद एक खेतिहर परिवार की औसत मासिक आय महज 24 सौ रुपये है। यहां तक कि अमेरिका और यूरोप में भी सट्टा बाजार, वस्तु विनिमय, अनुबंध खेती और खाद्य पदार्थों की फुटकर चेन शुरू होने के बावजूद कृषकों की आय बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। भारत में भी यही विपणन ढांचा खड़ा करने से खेती से आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी। इसके मूल आधार में खामियां हैं और यह किसानों के लिए लाभदायक नहीं है।

कोई आश्चर्य नहीं कि धनी और औद्योगिक देशों में किसान इसलिए अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं कि वहां भारी कृषि अनुदान के रूप में उन्हें प्रत्यक्ष आर्थिक सहायता मिलती है। भारत के किसानों को भी प्रति एकड़ आधार पर सीधी आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए। तीसरा सिद्धांत वैश्विक अर्थव्यवस्था से कृषि के एकीकरण से संबंधित है। 2008 के पूर्वार्ध में विश्व ने अभूतपूर्व खाद्य संकट झेला है। करीब 37 देशों में खाद्य पदार्थों को लेकर दंगे हुए। इन देशों में लगभग सभी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ कृषि के एकीकरण के चक्कर में कस्टम ड्यूटी हटा ली थी और आयात शुल्कों में भारी कमी कर दी थी। वर्षों तक सस्ते आयात ने खाद्य पदार्थ के क्षेत्र में उन्हें आत्मनिर्भर नहीं रहने दिया।

पिछले 30 सालों में तीसरी दुनिया के 149 में से 105 देश खाद्य पदार्थों का आयात करने लगे हैं। दोहा वार्ता के सफलतापूर्वक संपन्न होने के बाद बचे हुए देश भी खाद्य पदार्थों का आयात करने लगेंगे। सालों में बनी खाद्य आत्मनिर्भरता को भारत ऐसे बर्बाद करने की मुसीबत नहीं झेल सकता। भारत को आयात शुल्क बढ़ाने होंगे और तमाम हमलों से अपनी कृषि को बचाना होगा। दुर्भाग्य से भारत अमेरिकी सलाह पर चल रहा है। भारत दोहा विकास राउंड पर हस्ताक्षर करने को उतावला है। इससे राजनीतिक संदेश जाएगा कि भारत किसी भी घरेलू कीमत पर अमेरिकी किसानों के हितों को सुरक्षित रखेगा। यह बात हैरान करती है कि आखिर कब भारत 60 करोड़ कृषक समुदाय की जीविका और भविष्य की रक्षा करने की सीख लेगा?
 

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