खेती-किसानी को कैसे मिले राहत


किसान हमारे नीति-निर्माताओं की उतनी तवज्जो कभी नहीं पा सके जितनी के वे हकदार हैं। यही कारण है कि उत्पादन-अतिरेक की स्थिति में उन्हें अपनी उपज औने-पौने दाम में बेचने तक के लाले पड़ जाते हैं। किसी प्राकृतिक आपदा के चलते उनकी फसल मारी जाती है, तो उन्हें हुए खासे आर्थिक नुकसान की संतोषजनक तरीके से भरपाई सरकार की तरफ से नहीं हो पाती। जो कर्ज उन्होंने लिया होता है, उसे वह चुका नहीं पाते। किसानों का हालिया आंदोलन इन्हीं दो मुद्दों-उपज के वाजिब दाम और कर्जा माफी-पर केंद्रित हैं। दुख की बात तो यह है कि किसान के ये दोनों मुद्दे कोई आज के नहीं हैं। केंद्र में रही करीब-करीब हर सरकार ने इन्हें सुलझाने का उन्हें भरोसा दिया, लेकिन हर बार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इसी सब पर है इस बार का हस्तक्षेप:

भारतीय शहरों पर नजर डाल लेने भर से स्पष्ट हो जाता है कि गाँवों से शहरों की तरफ लोगों के बेलगाम पलायन से शहरों में अफरा-तफरी फैल सकती है। कृषि क्षेत्र के साथ समस्या है कि हम अभी भी 1970 के दशक में हुई कथित हरित क्रांति पर ही अटके हुए हैं। दुखद है कि हालिया किसान आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। चर्चा इस विरोधाभास पर केंद्रित हो गई है : बंपर उत्पादन के बाद भी किसान दंगा आमादा क्यों हैं? लेकिन अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता सकता है कि बंपर पैदावार होने पर कीमतें गिरती हैं, जो उपभोक्ताओं के लिये भले ही अच्छी बात है, लेकिन किसानों के लिये नहीं। यही कारण है कि सरकार हस्तक्षेप करते हुए न्यूनतम समर्थक मूल्य पर पैदावार की खरीद सुनिश्चित करती है। साथ ही, उपभोक्ताओं को सब्सिडी मुहैया कराती है ताकि वे किफायती दाम पर खाद्यान्न प्राप्त कर सकें। यही सब हम बीते पचास वर्षों के दौरान 1965 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की स्थापना के बाद से करते रहे हैं। अगर यह प्रणाली इस लंबे समय से कारगर बनी हुई है, तो हम क्यों अभी भी संकट दर संकट से घिर जाते हैं?

अरसे से हम कहते रहे हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को कृषि क्षेत्र से बाहर निकालना समाधान परक होगा। बेशक, हमें निनिर्माण क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा रोजगार अवसर पैदा करने होंगे। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि 2050 में भी, हालिया आकलनों के मुताबिक, ग्रामीण भारत में 800 मिलियन लोग रह रहे होंगे। भारतीय शहरों पर नजर डाल लेने भर से स्पष्ट हो जाता है कि गाँवों से शहरों की तरफ लोगों के बेलगाम पलायन से शहरों में अफरा-तफरी फैल सकती है। इसलिए जरूरी है कि कृषि क्षेत्र के हालात तत्काल सहज बनाए जाएँ। कृषि क्षेत्र से समाधान निकाला जाना जरूरी है। कृषि क्षेत्र के साथ समस्या है कि हम अभी भी 1970 के दशक में हुई कथित हरित क्रांति पर ही अटके हुए हैं। मैंने कथित शब्द का इस्तेमाल खास कारण से किया है। बेशक, इस कथित हरित क्रांति के बाद खाद्य उत्पादन में नाटकीय बढ़ोत्तरी हुई। आज स्थिति यह है कि भारत को अपनी खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने के लिये विश्व के अन्य देशों के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ते। दरअसल, यह क्रांति गेहूँ और चावल के उत्पादन के मामले में थी।

हरित क्रांति से नहीं बनी बात


लेकिन यह तथ्य है कि कथित हरित क्रांति में भारतीय कृषि का दो-तिहाई क्षेत्र पूरी तरह से अनदेखा रहा। और यही वह इलाका है जहाँ ऐसी फसलें-दालें तथा जौ-बाजरे जैसे मोटे अनाज-उगाई जाती हैं, जो देश के सर्वाधिक गरीबों द्वारा उगाई और खाई जाती है। फिर इस क्रांति में ‘हरित’ जैसा कुछ नहीं है, क्योंकि बाद के वर्षों में इससे टिकाऊ, आर्थिक और पर्यावरणीय तकाजों सम्बंधी संकट उभर आए। बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से भूमि और जल पर खासा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। सघन-जल का इस्तेमाल करने वाली फसलों के लिये गहरे ड्रिल करके टय़ूबवेल लगाए गए। ऐसा करते समय भारत की बेजोड़ हाइड्रोलॉजी को अनदेखा किया गया। तथ्य है कि भारत की जमीन का दो-तिहाई हिस्सा चट्टानी बनावट वाला है, जिसमें कुदरती तौर पर रिचार्ज होने की दर खासी नीची है। परिणाम हुआ कि जल का गंभीर संकट पैदा हो गया है। भूमिगत जल खासा नीचे हो गया है, और जल की गुणवत्ता भी तेजी से प्रभावित हुई है।

पेयजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड, मर्करी यहाँ तक कि यूरेनियम जैसे तत्व पाए गए हैं। ऐसे स्वास्थ्य सम्बंधी गम्भीर मुद्दे उभर आए हैं। हालत यह है कि उत्पादन का अपेक्षित स्तर बनाए रखने के लिये किसानों ने ज्यादा से ज्यादा उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल जारी रखा। इससे लागत में तो नाटकीय वृद्धि हुई लेकिन उत्पादन में उस अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हो सकी। बीते दो दशकों के दौरान तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसा भारतीय इतिहास में कभी नहीं देखा गया। तो हम किसानों द्वारा आत्महत्या और हिंसा की इस दोहरी त्रासदियों से कैसे निबटें?

सबसे पहले तो पर्यावरण अनुकूल खेती की तरफ रुख करना होगा। जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर तो ऐसा किया जाना और भी जरूरी है। खासी मात्रा में ऐसे प्रमाण मिल सकते हैं, जिनसे साबित होता है कि गैर-रासायनिक कृषि लाभार्जक विकल्प बन चुकी है। जैसे-जैसे किसान सिंथेटिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भरता कम करते हैं, वैसे-वैसे वे पर्यावरणीय दुष्चक्र से बाहर निकलने लगते हैं। खेती करने में आने वाली उनकी लागत भी कम होती है और उत्पादन में भी कोई कमी नहीं आने पाती। गैर-रासायनिक खेती के सबसे बड़े पैरवीकार तो हमारे प्रधानमंत्री ही हैं। उन्होंने सॉयल हेल्थ कार्ड स्कीम लाँच की है जिससे किसानों को अपने आदानों के इस्तेमाल करने में सुविधा होगी। सरकार के लिये जरूरी है कि इस क्षेत्र में मिलने वाली सब्सिडी को हरित पुट देने की गरज से समग्र पैकेज की घोषणा करे।

जल प्रबंधन किया जाए दुरुस्त


दूसरे हमें सतही और भूमिगत जल, दोनों के प्रबंधन में सुधार की ओर ध्यान देना होगा ताकि किसानों को सिंचाई के लिये पर्याप्त जल मिल सके। इस तरह कि किसी को भी जल पर अधिकार से वंचित न रहना पड़े। इस दिशा में सकारात्मक उपाय हो रहे हैं, लेकिन सरकार के स्तर पर कुछ हिचक जरूर देखने को मिली है। जल संसाधन मंत्रालय ने अभी तक भूमिगत जल संबंधी विधेयक के मसौदे पर काम को आगे नहीं बढ़ाया है। यह बिल 19वीं सदी में पारित ब्रिटिश कॉमन लॉ का स्थान ग्रहण करेगा जो भूमिगत जल का बेतहाशा इस्तेमाल निषिद्ध नहीं करता। यही कारण है कि भारत की कृषि संकट से घिर गई है। सो, इस दिशा में तत्काल आगे बढ़ा जाए।

तीसरे हमें गाँवों में आजीविका के अन्य विकल्पों को जारी रखना होगा। पशुपालन और मत्स्यपालन जैसे विकल्पों पर हाल में लाए गए कुछ नीतिगत बदलावों से प्रभाव पड़ सकता है। हमें जल-सघन वाली गेहूँ और चावल की खेती से अन्य फसलों की उपज लेने की ओर बढ़ना होगा। इन फसलों के लिये बीज, जल और अन्य आदानों के इस्तेमाल में तो बदलाव लाने ही हैं, साथ ही मोटे अनाजों और दालों के उत्पादन पर भी पर्याप्त ध्यान देना होगा। इसके लिये दालों और मोटे अनाजों से तैयार खाद्य पदार्थों को आंगनवाड़ी और मिड-डे मील कार्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए।

चौथे हमें कृषि-प्रसंस्करण क्षेत्र में ढाँचागत सुविधाएँ तैयार करने के लिये निवेश बढ़ाना होगा। इस तरफ पर्याप्त ध्यान दिया होता तो आज किसानों को सब्जियाँ और दूध सड़क पर फेंकने की नौबत नहीं आती। पाँचवीं बात यह कि किसानों खासकर 85 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसानों तक ऋण और बीमा संबंधी सुविधाएँ पहुँचाया जाना सुनिश्चित होना चाहिए। यही कारण है कि मैं किसानों को कर्ज माफी के खिलाफ हूँ। मेरा मानना है कि इससे बैंकिंग प्रणाली कमजोर पड़ जाती है। और आखिर में मेरा कहना है कि हमें एक मजबूत उत्पादन संगठन खड़ा करना होगा जो अलग-थलग पड़े किसानों की समस्याओं पर गौर करके उन्हें बाजार में भागीदारी करके लाभान्वित होने में सहायक हो सके।

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