खेती की पारम्परिक पद्धति की प्रासंगिकता

मध्य प्रदेश में निवास करने वाली आदिम जनजाति बैगा पारम्परिक तौर पर बेंवर खेती करती आ रही है। कृषि की इस पद्धति से न केवल जैव विविधता की रक्षा होती है बल्कि मिट्टी की उर्वरा भी बनी रहती है। आवश्यकता इस बात की है कि कृषि की इस प्रणाली का उपयोग आधुनिक विकास प्रक्रिया का हिस्सा किस प्रकार बने। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि हम लोग प्रतिदिन 0.5 मिली ग्राम जहर खाते हैं। इंटरनेशनल फाउंडेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेंट नामक संस्था ने आलू के 100 नमूनों में से 12 और टमाटर के 100 नमूनों में से 48 में जहर पाया था। इसी तरह उत्तर प्रदेश के वैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया कि हमारे शरीर में साल भर में करीब 174 मिली ग्राम जहर पहुंचता है और यह जहर अगर शरीर में एक साथ पहुंच जाए तो व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित है। शरीर के अंदर यह जहर दूध, फल, सब्जी और अनाज खाने से धीमे गति से पहुंचता है और यह सब आज रासायनिक खेती में उपयोग होने वाले उर्वरक के कारण हो रहा है।

हम लोग ज्यों-ज्यों विकास की ओर अग्रसर हो रहे हैं, वैसे-वैसे हम अपनी संस्कृति और परंपराओं को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। देश ने वर्ष 1966-67 में हरित क्रांति का आगाज तो किया, लेकिन अंधाधुंध रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग भी इसी के साथ प्रचलन में आया, जिसका परिणाम आज फलों व सब्जियों में जहर के रूप में सामने आ रहा है। मौजूदा समय में जरूरत है तो रासायनिक खेती के बेहतर विकल्प तलाशने की और वह जैविक खेती के रूप में सामने आ रहा है। अर्थात फिर से प्राकृतिक तरीके से खाद तैयार कर खेती करना। लेकिन इस प्रक्रिया में हम आदिवासियों की ‘बेंवर खेती’ को भूल रहे हैं, जिसमें खेती करने के लिए न तो किसी प्रकार की खाद व दवाई की आवश्यकता पड़ती है और न ही सिंचाई करने के लिए पानी और हल से जोत की जरूरत। उसके बावजूद इसमें बम्पर पैदावार होती है। विशेषकर यह पहाड़ी इलाकों के लिए बेहतर विकल्प बनकर उभर सकता है।

रासायनिक खेती की बनिस्बत बेंवर खेती के कई फायदे हैं। बिना हल चलाए खेती करने से पहाड़ अथवा ढलान की मिट्टी के कटाव को रोका जाता है। इसके खेत तैयार करने के लिए न तो पेड़ों को काटा जाता है और न ही जमीन जोती जाती है। इसकी सिंचाई व इसमें खाद डालने के लिए किसानों को सोचना भी नहीं पड़ता है। यह पूरी तरह बारिश पर निर्भर है। इसलिए इस तरह की खेती पहाड़ी इलाकों में ज्यादा सुरक्षित है, जहां बारिश समय पर होती है। बेंवर खेती की मिश्रित प्रणाली के कारण फसल में कीड़ा लगने का खतरा भी नहीं रहता है। इसमें बाढ़ व अकाल झेलने की क्षमता भी होती है और यह कम लागत व अधिक उत्पादन की तर्ज पर काम करता है। फिलहाल बैगा आदिवासी इसमें डोंगर, कुटकी, शांवा, सलहार, मंडिया, खास, झुंझरू, बिदरा, डेंगरा, ज्वार, कांग, उड़द, ककड़ी, मक्का, भेजरा सहित सौ से ज्यादा अनाज उगाते हैं। इसके अलावा औषधि की भी खेती करते हैं।

बेंवर खेती के लिए जमीन तैयार करने में भी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। मौजूदा खेती की तरह इसमें किसानों को न तो बिजली, पानी के लिए रोना पड़ता है और न ही उर्वरक लेने के लिए मारामारी करनी पड़ती है। इसमें सबसे पहले खेती की जमीन पर छोटे-छोटे पेड़ों व झाड़ियों को काटकर बिछाया जाता है, फिर झाड़ियां सूखने के बाद उसमें आग लगा दी जाती है। आग जलने के बाद राख की वहां एक परत बन जाती है, जिसमें बरसात शुरू होने से एक सप्ताह पहले विभिन्न किस्मों के बीज मिलाकर उसे खेत में छिड़क दिया जाता है। बारिश के बाद उसमें फसल लहलहाने लगती है।

आज भी इस तरह की खेती आदिवासी इलाकों में होती है। यह जैविक खेती का ही एक रूप है। मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले के समनापुर विकासखंड के कई गांवों में बैगा आदिवासी इस तरह की खेती करके अनाज का उत्पादन करते हैं और अपनी आजीविका चलाते हैं। ‘बेंवर खेती’ पूरी तरह से जैविक, पारिस्थितिक, प्रकृति के अनुकूल और मिश्रित खेती है। इसकी खासियत यह है कि इस खेती में एक साथ 16 प्रकार के बीजों का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें कुछ बीज अधिक पानी में अच्छी फसल देते हैं, तो कुछ बीज कम पानी होने या सूखा पड़ने पर भी अच्छा उत्पादन करते हैं। इससे खेत में हमेशा कोई-न-कोई फसल लहलहाते रहती है। इससे किसानों के परिवार को भूखे मरने की नौबत भी नहीं आती और न ही किसान को आत्महत्या करने की स्थिति उत्पन्न होती है। फिलहाल इस तरह की खेती पर रोक लगी हुई है। सन् 1864 में अंग्रेजों के वन कानून ने इस पर रोक लगा दी थी। उसके बाद भी डिंडौरी जिले के बैगाचक और बैगाचक से लगे छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में कुछ बैगा जनजाति ‘बेंवर खेती’ को अपनाए हुए हैं। सरकार को चाहिए की वह इसे बढ़ावा दे और इससे आम किसानों को भी जोड़े।

श्री एस. के. सिन्हा स्वतंत्र लेखक हैं।

Path Alias

/articles/khaetai-kai-paaramaparaika-padadhatai-kai-paraasangaikataa

Post By: Hindi
×