खेती बने देश की मजबूती का आधार

कृषि
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चुनाव पास आते ही किसान और खेती की याद सभी को आने लगी है उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के बकाए के लिये पैकेज दिये जा रहे हैं, तो किसानों के उत्पाद के न्यूनतम समर्थन मूल्य में रिकार्ड वृद्धि के बाद केन्द्र सरकार उनसे खरीद को सुनिश्चित करने पर मुस्तैद दिखने की कोशिश कर रही है। अभी घोषित नीति के अनुसार, सबसे बड़ा बदलाव अनाज खरीद में निजी क्षेत्र की भागीदारी है और योजना अक्टूबर से शुरू होगी अर्थात खरीफ की खरीद के साथ अभी तक अनुभव यही रहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवहार में अधिकतम समर्थन मूल्य बन जाता है और हर जगह खुले बाजार की कीमतें इससे नीचे ही रहती हैं।

इतना ही नहीं, ज्यादातर किसानों को अपनी ज्यादातर फसल खुले बाजार में इससे कम कीमत पर बेचनी पड़ती है। सो इस बार मोदी सरकार की यह परीक्षा भी हो जाएगी कि वह कीमत बढ़ाने भर की वीर है या फैसले को लागू कराने की वीर भी है। जो योजना खरीद के बारे में घोषित हुई है, उसके अनुसार अगर राज्य पीएम-आशा अर्थात प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान के तहत शुरू तीन योजनाओं प्राइस सपोर्ट स्कीम (पीएसएस), प्राइस डेफिशिएंसी पेमेंट स्कीम (पीडीपीएस) और प्राइवेट प्रोक्योरमेंट एंड स्टॉकिस्ट स्कीम (पीपीएसएस) में से किसी एक को चुनते हैं, तो कुल खरीद के 25 फीसदी हिस्से पर वित्तीय समर्थन दिया जाएगा।

इसके लिये केन्द्र ने 15 हजार करोड़ से ज्यादा की रकम मंजूर की करीब 7 हजार करोड़ इस फसल वर्ष के लिये और 8 हजार करोड़ अगले फसल वर्ष के लिये। इसके अलावा किसानों को ज्यादा कर्ज उपलब्ध कराने के लिये नाफेड को भी साढ़े सोलह हजार करोड़ रुपए दिये जाएँगे।

पीएसएस को सिर्फ दालों, तिलहन और नारियल पर केन्द्रित किया जाएगा तो पीडीपीएस पहले से पंजीकृत किसानों को बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अन्तर के भुगतान पर फोकस करेगा। यह मध्य प्रदेश के भावान्तर भुगतान योजना के विस्तार जैसा है।

कई जानकारों का मानना है कि पीएसएस योजना तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिये ही आई है। जहाँ तिलहन और दलहन का उत्पादन ज्यादा होता है और जहाँ कुछ ही दिनों में चुनाव होने हैं। चुनावी साल हो या कोई और जाहिर तौर पर सरकार किसानों के मोर्चे पर पूरी तरह मुस्तैद दिखना चाहती है। उसके पिछले दिनों अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य में जो भारी वृद्धि की है, ये कदम उसे लागू कराने के लिये हैं और जैसा सरकार का दावा है, यह दाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस वायदे को पूरा करते हैं जो किसान को लागत से ड्यौढ़ा देने का था।

तब चर्चा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानने की थी और अब जब सरकार ने यह घोषणा कर दी है तो योगेन्द्र यादव जैसे किसान नेता कहते हैं कि यह धोखा है क्योंकि इसमें लागत खर्च की गणना में किसान के पारिवारिक श्रम का हिसाब नहीं जोड़ा गया है। वह जोड़ने से कीमतें और ऊपर जाएँगी और तभी खेती लाभदायक हो पाएगी।

दूसरी ओर स्वामीनाथन अय्यर जैसे अर्थशास्त्री हैं, जिनका मानना है कि इतना ऊँचा समर्थन मूल्य घोषित करके सरकार ने अपने और किसानों के गले में फाँस डाल लिया है। न इतने ऊँचे मूल्य पर कोई अनाज खरीदेगा, न वापस बेचा जा सकेगा और न निर्यात हो पाएगा। डॉलर के चढ़ते जाने के बावजूद दाम इतने ज्यादा हो गए हैं कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार की कीमतें नीचे दिखती हैं और सरकार का यह फैसला बाजार की माँग और आपूर्ति के बुनियादी फार्मूले को नजरअन्दाज करता है।

स्वामी का तर्क है कि इन्हें जबरन लागू कराने से कीमतें, खासकर दाल और खाद्य तेल की, एक बार में काफी ऊपर जाएँगी और किसान को खुश करने के चक्कर में सरकार आम उपभोक्ताओं की नजर में गिर जाएगी। अभी अगर ज्यादातर दालें सत्तर के नीचे चल रही हैं l अरहर वगैरह की खरीद साठ-पैंसठ सौ प्रति क्विंटल करके कौन व्यवसायी दाल सौ रुपए के नीचे बेच पाएगा और जैसे ही कीमतें बढ़नी शुरू होंगी दूसरे तरह की हाहाकार मचनी शुरू हो जाएगी।

इस बार सरकार ने किसान से खरीद के काम में पहली बार आधिकारिक रूप से निजी क्षेत्र अर्थात निजी आढ़तियों को भी शामिल करने का फैसला किया है। महाराष्ट्र सरकार में जहाँ पिछली बार दलहन, खासकर अरहर की सरकारी खरीद में भारी घोटाला हुआ था और एक मंत्री तक की सीधी भागीदारी बताई गई, पिछले दिनों यह घोषणा और कर दी गई कि जो आढ़ती न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे कीमत पर अनाज खरीदते पकड़े जाएँगे, उन्हें एक साल कैद और 50 हजार रुपए जुर्माना लगेगा और माना जाता है कि यह फैसला प्रधानमंत्री से पूछकर लिया गया था।

स्वामीनाथन अय्यर मानते हैं कि नियंत्रित कीमत और अनिवार्यता का यह घाल-मेल किसी को लाभ नहीं देगा और आर्थिक उदारीकरण के भाजपा के दावे का मखौल उड़ाता है। स्वामी यह कह सकते हैं क्योंकि उनको मुख्य चिन्ता उदारीकरण की है। भाजपा चुनाव के ठीक पहले साल में ऐसा कोई जोखिम मोल नहीं ले सकती क्योंकि हर तरफ से सिर्फ यही संदेश आ रहा है कि शहरी वोटर तो ठीक हैं, सिर्फ किसान और नौजवान नाराज हैं और जब उत्तर प्रदेश के कैराना में गन्ना किसानों का गुस्सा फूटा तो कोई घोषणा, कोई कम्युनल कार्ड काम न आया।

असल में भाजपा भी जो कर रही हैं, वह इसी बाध्यता के चलते कर रही है। उदारीकरण के प्रति उसका कमिटमेंट स्वामीनाथन अय्यर से कम नहीं है और स्वामी तो लेख लिखते हैं, भाजपा ने फैसले लिये हैं। ऐसा अटल राज में भी हुआ और आज मोदी राज में भी हुआ। अटल जी के समय तो स्वदेशी का मुखौटा भी कुछ समय रहा पर इस बार तो मनमोहन-चिदम्बरम से भी तेज उदारीकरण और उदारीकरण का दूसरा दौर पूरा करने की जल्दी है।

यह आम हिसाब रहा है कि तेज आर्थिक विकास होगा तो उसका असर नीचे तक रिसकर जाएगा ही पर दिक्कत यह है कि यह मॉडल भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिये उपयुक्त है या नहीं यह अभी भी साफ नहीं है। सभी अध्ययन बता रहे हैं कि 25 साल में खेती अलाभकर हुई है। पर सारी बदहाली के बावजूद आज भी हमारे दो तिहाई लोग खेती-किसानी-पशुपालन के भरोसे जीवन बसर करते हैं।

जहाँ अभी भी शहरीकरण काफी कम है और लाख स्मार्ट सिटी योजना हो अभी दूर-दूर तक गाँवों की मजबूती बनी रहने का लक्षण साफ दिखता है। ऐसे में उदारीकरण जो तेज गैर-बराबरी पैदा कर रहा है, उस पर अंकुश लगाए बगैर काम नहीं चलने वाला है और गैर-बराबरी में व्यक्तियों के बीच जितना फासला बढ़ रहा है, उससे ज्यादा गाँव-शहर, खेती-व्यापार और किसान-उद्योगपति के बीच बढ़ा है।


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