खेत मानव जाति के लिये अन्न भण्डार हैं। खेती निवाले से आजीविका का साधन बनी। हरित क्रान्ति के बाद बाजार यानी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों के जरिए खेतों में जड़ें जमा ली। हाड़तोड़ मेहनत किसान की, मोटा मुनाफा कम्पनियों का। अर्थशास्त्र का बड़ा खेल है। देश में कृषि खाद-बीज-कीटनाशक का जुआ हो गई है। बम्पर उपज की आस से बोए गए ‘विदेशी’ बीज अक्सर ‘अन्नदाताओं’ को धोखा भी देते हैं। कर्ज में डूबा हताश किसान मौत को गले लगाने को मजबूर होता है। सरकार की हालत बीजूका जैसी है। जो खेत की बाढ़ किनारे खड़ी देख सब कुछ रही है लेकिन कर कुछ नहीं रही।
किसान की कीमत पर बीज ‘गणित’
देश-दुनिया में जैव संवर्धित बीज (जीएम सीड्स) का मुद्दा खेत-खलिहानों से सत्ता के गलियारों तक गूँजता रहा है। भारत में कपास की खेती करने वाले काश्तकारों के लिये ये जीएम बीज अक्सर परेशानी का सबब बनते हैं। इसी वर्ष मार्च में केन्द्र सरकार ने जीएम कपास के बीजों के दामों में कटौती के साथ-साथ रॉयल्टी फीस में भी 74 फीसदी तक की कमी कर दी है। जीएम वॉलगार्ड-2 कपास के बीजों की दर 830-1000 रुपए प्रति 450 ग्राम से घटाकर 800 रुपए कर दी।
दुनिया की सबसे बड़ी बीज उत्पादक कम्पनी मानसेंटों द्वारा भारत से अपने व्यापार को समेटने की चेतावनी के बावजूद सरकार ने ये कदम उठाया था। लगा एनडीए सरकार किसान हितैषी है। लेकिन इसी माह के अन्तिम सप्ताह में सरकार ने पलटी खाई। कटौती के फैसले को वापस लिया। अमरीका की दिग्गज कम्पनी का कथित दबाव काम आया। हालांकि, आधिकारिक रूप से सरकार ने फैसला वापस लेने का कोई ठोस कारण नहीं बताया है।
जीएम बीजों की रॉयल्टी पर विवाद क्यों?
देश में कपास की 90 फीसदी बुवाई मानसेंटों के बीटी कपास के बीज की होती है। ये परम्परागत भारतीय कपास के बीज से महंगा है। भारत में वर्ष 2002 में जीएम बीजों की बिक्री शुरू हुई थी। पिछले दो-तीन साल से बीटी कपास ने किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। कम्पनी का वादा था कि बीटी कपास के बीज से पैदावार अधिक होती है साथ ही इसमें कीड़ा नहीं लगता है।
लेकिन देश के कई राज्यों मेें इस बीज को बोने के बावजूद किसानों को कम्पनी के दावे के अनुरूप नतीजे नहीं मिले। सैकड़ों हताश किसान आत्महत्या को मजबूर हुए। ऐसे में इन बीजों के दाम घटाने की माँग उठ रही थी।
क्या सरकार घटा सकती है इन बीजों के दाम?
विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार फिलहाल मानसेंटो से टकराव की स्थिति को टालना चाहती है। क्योंकि वॉलगार्ड-2 का बीज जल्द ही उत्पादकता को खो देगा। जीएम बीजों में सुधार के लिये निरन्तर शोध की जरूरत होती है। यदि मानसेंटो वॉलगार्ड-3 को भारत में नहीं लाती तो भारतीय किसानों के लिये दिक्कतें और ज्यादा हो जाएँगी। क्योंकि वॉलगार्ड-2 किसानों को आगे मुनाफा नहीं दे सकेगी।
फिर नए बीज की अवधारणा कैसे पूरी होगी?
जीएम बीजों का इस्तेमाल यानी एक ऐसा फन्दा है जिसमें एक बार फँसकर किसान बाहर नहीं निकल सकता है। बीज के लिये किसान कम्पनी पर निर्भर हो जाता है। किसान और सरकार ये नहीं जान सकती हैं कि अगले कथित नए बीज के दाम क्या होंगे। कुछ विशेषज्ञों का दावा है कि जीएम बीजों के इस्तेमाल से मिट्टी की उपज क्षमता भी घटती है।
जैविक खेती : स्वस्थ धरा, स्वस्थ जन
जैविक खेती का मूल है बिना रसायनों की खेती। इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता भी कायम रहती है और इससे उपजने वाले अनाज से जन-धन भी स्वस्थ रहता है। जैविक खेती को प्रोत्साहित करने और अपनाने में आन्ध्र प्रदेश अग्रणी है। यहाँ के 50 लाख किसानों ने कभी रसायनों का प्रयोग नहीं किया।
रासायनिक खेती : रसातल का कारण
वर्ष 1950 में देश में 5 करोड़ मीट्रिक टन अनाज की पैदावार के लिये 540 मीट्रिक टन रासायनिक खाद (फर्टिलाइजर) का इस्तेमाल होता था, अब 26.30 करोड़ मीट्रिक टन अनाज पैदावार के लिये 90 हजार मीट्रिक टन फर्टिलाइजर का प्रयोग। ज्यादा उपज की आपाधापी रसातल का कारण बन रही है।
सुबीज पास - क्यों फैलाए हम झोली
बीज ही नहीं हमारे पास सुबीज का भण्डार है। देश में बैंगन की ही 4 हजार से अधिक प्रजातियों के बीज उपलब्ध हैं। लेकिन सरकार ने मानसेंटो की सहायक कम्पनी मेहको से करार कर बीटी ब्रिंजल की जीएम सब्जी की पैदावार को मंजूरी दी थी। विरोध के बाद सरकार को फैसला वापसी को मजबूर होना पड़ा।
घाटा सिर्फ काश्तकार का…
देवेंदर शर्मा (कृषि विशेषज्ञ)
पुणे के पास वडगाँव रासाई के किसान देवीदास परमाने ने 10 मई को ही 952 किलो प्याज बेचा। मुनाफा हुआ 1 रुपए। जी हाँ, ये हाल एक देश के सैकड़ों हजार किसानों का है। फिर चाहे वो प्याज उगाने वाले किसान हों या फिर टमाटर उगाने वाले। नासिक और पुणे के किसानों ने टमाटर की बम्पर पैदावार को सड़कों पर फेंक दिया।
दाम आन्ध्र प्रदेश के नलगोंडा में भी यही आलम है। अर्थशास्त्री तो इस विडम्बना को माँग और आपूर्ति के कटु सिद्धान्त का हवाला देकर पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन सवाल ये है कि टमाटर और प्याज उगाने वाले किसानों के नुकसान की भरपाई कौन करेगा। छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में किसानों ने 10 हजार हेक्टेयर में उगी टमाटर की फसल को तोड़ने से मना कर दिया। कारण टमाटर तोड़ने और पैकिंग की लागत ज्यादा बैठती। नुकसान के कारण हताश किसान खुदकुशी को मजबूर होता है।
सरकार ने देश की 585 मंडियों को कॉमन ई-ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म से जोड़ने के लिये राष्ट्रीय कृषि मार्केट स्कीम लांच की है। 17 राज्यों के व्यापारी इसके जरिए सस्ती दरों पर खरीद कर सकते थे। लेकिन बिचौलियों के कारण लाभ किसान को नहीं मिल पाता है। सरकार ने 500 करोड़ रुपए का कीमत स्थरीकरण कोष बनाया, लेकिन विरोधाभास देखिए, पिछले साल इस कोष से प्याज की बढ़ी कीमतों से शहरी उपभोक्ता को राहत दी गई। सरकारी संस्था नैफेड ने इस कोष से प्याज की खरीदारी कर खुले बाजार में बेचान किया।
किसान के नाम पर सब्सिडी का उपभोक्ता को फायदा। किसानों की आमदनी को अगले 6 साल में दोगुना करने का सरकारी दावा ऐसे हालात में पस्त नजर आता है। सुधार करने होंगे कि प्याज समेत सभी कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित हो और मंडियों में एमएसपी से कम दाम में आढ़तिए खरीद नहीं कर सकें।
नीम यूरिया पर समस्या कायम
निहार गोखले
देश में खाद के रूप में तीन मुख्य तत्व यूरिया, फास्फोरस और पोटैशियम का अनुपात पहले से डिगा हुआ है।
देश के खेतों ने अधिक मात्रा में यूरिया ‘पी’ लिया है। तोड़ निकाला गया है नीम कोटेड यूरिया सरकारी फरमान है कि नीम कोटेड यूरिया का उत्पादन 35 फीसदी से 75-100 फीसदी हो। दो फायदे होंगे- पहला, नीम से मिट्टी में यूरिया के घुलने की प्रक्रिया धीमी होगी। जिससे घातक नाइट्रोजन पर काबू पाया जा सकेगा। दूसरा, यूरिया का गैर कृषि कार्यों में अवैध इस्तेमाल को रोका जा सकेगा। वर्ष 2003 से ही नीम कोटेड यूरिया की कवायद चल रही है। सरकार ने पिछले साल से कार्रवाई तेज की है। कम्पनियों को 5 फीसदी अधिक दाम वसूलने की छूट दी गई है, लेकिन सब्सिडी का मुद्दा सामने आया है। किसानों को खाद सब्सिडी कम होगी।
साथ ही एक और समस्या का जवाब सामने नहीं आया है। देश में खाद के रूप में तीन मुख्य तत्व यूरिया, फॉस्फोरस और पोटैशियम का अनुपात पहले से डिगा हुआ है। सस्ता होने के कारण यूरिया (नाइट्रोजन) का इस्तेमाल देश में अन्धाधुन्ध तरीके से होता है। जबकि बाकी दो रसायनिक खाद का इस्तेमाल देश में कम होता है। इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
ऐसे में नीम कोटेड यूरिया भी खेती की मूलभूत समस्या का हल नहीं खोज पाएगा। राष्ट्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के अनुसार नीम यूरिया के इस्तेमाल से धान की खेती में 6-12 फीसदी अधिक उपज प्राप्त हुई है। देश में वर्ष 2015-16 के दौरान नीम यूरिया का उत्पादन 32.7 लाख मीट्रिक टन हुआ, जो कि इससे पिछले वर्ष की तुलना में दोगुना है।
खेती के खस्ताहाल
सूखा और किसान आत्महत्या सबसे बड़ी समस्याएँ हैं। वर्ष 2011 के जनसंख्या आँकड़ों के मुताबिक देश के 56 फीसदी कामगार खेती से जुड़े हैं। भारत में खेती कम उत्पादकता, सिंचाई साधनों के अभाव व विपणन समस्याओं से घिरी है। शौर्ज्य भौमिक की रिपोर्ट
मौत बनी ‘खेती’
1,130 किसानों ने खुदकुशी की महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में वर्ष 2015 में (मीडिया रिपोर्ट)।
400 किसान खुदकुशी कर चुके हैं मराठवाड़ा में इस वर्ष के चार माह में।
क्यों : सूखा और कर्ज नहीं चुका पाने के कारण उपजी हताशा, सरकार की अनदेखी और अधूरे प्रयास।
बंजर होते खेत
12 करोड़ हेक्टेयर भूमि देश में बंजर हो चुकी है। इससे कृषि की पैदावार में भारी कमी की आशंका।
कारणः इसमें से सवा 8 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पानी की कमी के कारण, 2.4 करोड़ हेक्टेयर रसायनों के कारण, 1.2 करोड़ हेक्टेयर हवा से।
बड़ा आकारः बंजर भूमि का क्षेत्रफल जर्मनी के क्षेत्रफल का 4 गुना है।
1.34 करोड़ टन अतिरिक्त पैदावार यदि मिट्टी का कटाव नहीं हो तो।
कम कमाई, बढ़ता कर्ज
47,000 रु. औसत कर्ज है प्रत्येक काश्तकार परिवार पर राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के आँकड़ों के अनुसार।
25 प्रतिशत कर्ज साहूकारों और अन्य सूदखोरों के मार्फत लिया जाता है।
6,426 रुपए है औसत काश्तकार की माहवार आय और 6,423 रुपए खर्चा।
सिमटती खेती
17 प्रतिशत ही अंश है खेती का देश की सकल घरेलू आय में (2015-16 का अनुमान)
सेहत पर सेंध
जीएम फूड के नुकसान समझते हुए अमरीकन एकेडमी ऑफ एनवायरमेंटल मेडिसिन (एएईएम) ने डॉक्टर्स को मरीजों के लिये नॉन-जीएम डाइट सुझाने की माँग की है।
जीएम से फूड एलर्जी
फूड एलर्जी, ऑटिजिम, जननांगों पर असर, पाचन में गड़बड़ी जीएम फूड से होती है। मानवों में जीएम खाद्य के ऐसे अंश शरीर मेंं रह जाते हैं जो दीर्घावधि में बीमार कर सकते हैं। यदि, जीएम सोयाबीन में डाले तो ये जीन मानव डीएनए में स्थानान्तरित हो सकते हैं।
घातक बीमारी की जड़
अमरीका में हुए अध्ययन में जानवरों में जीएम खाद्य उपभोग के परिणामस्वरूप अंग विकार, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल और प्रतिरोध क्षमता में कमी, बुढ़ापा और नपुंसकता जैसी बीमारियों के तथ्य उजागर हुए हैं।
बढ़ाते हैं ग्लोबल वार्मिंग
भिन्न-भिन्न प्रजातियों में जीन मिक्सिंग से अप्रत्याशित साइड इफेक्ट के खतरे भी ढेरों हैं। जीएम प्लांट विषैले तत्व, एलर्जन, कैंसरकारी तत्व छोड़ सकते हैं।
जीएम बीज वातावरण में खुले घूमते हैं। जीएम प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा सकता है। इनसे खतरा जैविक खेती करने वालों को भी रहता है।
सरकार को भारी पड़ने वाली है ये अनदेखी
देश में किसानों की दशा और सरकार के रवैए के बारे में स्वराज अभियान और जय किसान आंदोलन के संस्थापक डॉ. योगेंद्र यादव से बातचीत के अंश
क्या मोदी सरकार किसानों की हितैषी है?
प्याज के खुदरा बाजार में दाम जब 60 रुपए प्रति किलो हो जाते हैं तो सरकार पंजों के बल आ जाती है। लगता है कि कोई राष्ट्रीय संकट आ गया। लेकिन पिछले हफ्ते जब किसान को प्याज एक रुपए प्रति किलो बेचने पड़े तो कोई हलचल नहीं हुई। भाड़ में जाये किसान। शहरी लोगों को तो प्याज सस्ता मिल रहा है। ये है सरकार का हाल। मंत्री अपनी इमेज बनाने में लगे हैं। किसानों की अनदेखी हो रही है। सरकार को ये अनदेखी भारी पड़ने वाली है।
हालिया केन्द्रीय बजट को किसानों को समर्पित बताया जा रहा है?
दरअसल, पिछले बजट के समान ही हालिया केन्द्रीय बजट में घोषणाएँ की गई हैं। पिछले बजट के समान ही किसान से जुड़े मदों में भारी कटौती की गई है। सरकार की ओर से हल्ला ज्यादा मचाया जा रहा है। मैं पूछता हूँ कि क्या कृषि क्षेत्र को सचमुच फायदा हुआ है। पिछले साल की कटौती की ही बामुश्किल भरपाई हो सकी है। मनरेगा में भी 6 साल पुराने बजट आवंटन आँकड़े हैं।
इस बार के बजट में जो आवंटन हुआ है वो वर्ष 2009-10 के बराबर ही है। ऐसे में ये बजट किसानों के लिए फायदेमन्द किस प्रकार से हुआ। हमने गहन शोध के बाद आँकड़े निकाले हैं कि मनरेगा में सरकार को 78 हजार करोड़ रुपए का आवंटन करना चाहिए था, लेकिन ये आवंटन हुआ है 38 हजार करोड़ रुपए का। ये आँकड़े काफी हैं सरकार की किसान और ग्रामीण क्षेत्र के प्रति कथन प्रतिबद्धताओं की पोल खोलने के लिये।
सरकार की किसानों के प्रति नीतियाँ कैसी हैं?
आप कह सकते हैं कि दो साल लगातार सूखे के कारण मोदी सरकार के दौरान कृषि जीडीपी में 0.25 फीसदी की गिरावट को सरकार से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। मानसून पर किसी सरकार का कोई बस नहीं होता। लेकिन यदि आप मोदी सरकार की नीतियों के बारे में देखेंगे तो ये अब तक की सबसे अधिक किसान विरोधी सरकार है। ये दावा मैं पूरी गम्भीरता के साथ कर रहा हूँ। मेरे तीन तर्क हैं। पहला- सरकार ने वादा किया था कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से 50 फीसदी अधिक दिया जाएगा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में ही सरकार ने यूटर्न लेते हुए हलफनामा दिया कि ये सम्भव नहीं है। दूसरा-किल्लत के बाद भी यूरिया आयात के प्रति सरकार चुप्पी साधे हुए है।
सिंचाई की क्या स्थिति है?
हल्ला मचाया जा रहा है कि इस मद में 80 हजार करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं। लेकिन आज तक ये रहस्य बना हुआ है कि ये आँकड़ा कहाँ से आया है। वित्तमंत्री और कृषि मंत्री तक इसका जवाब नहीं दे सके हैं। ये सरासर झूठ है।
विज्ञान की आड़ में होता व्यावसायीकरण
जीएम बीजों पर एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) की समन्वयक कविता कुरुंगती से बातचीत के अंश...
जीएम फसलों के व्यावसायीकरण के प्रति सरकार उत्सुक क्यों है?
जी हाँ, हालत खासे विरोधाभासी हैं। सरकार के भीतर और भाजपा शासित प्रदेशों में इसे लेकर विरोध के स्वर उठ रहे हैं। लेकिन पर्यावरण मंत्री विज्ञान की आड़ में जीएम फसलों के फील्ड ट्रायल का समर्थन कर रहे हैं। जबकि इस प्रकार के फील्ड ट्रायल का सीधा अर्थ इन फसलों का व्यवसायीकरण ही है। जबकि कई कमेटियाँ कह चुकी हैं कि जीएम फसलें अन्तिम विकल्प होनी चाहिए।
जैविक-सम्पोषित कृषि की सम्भावनाओं के बावजूद प्रगति क्यों नहीं हुई?
जैविक खेती के निश्चय ही सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं। लेकिन इसके लिये सरकार और किसान के स्तर पर भी बदलाव होने चाहिए। हमारी कृषि सोच अधिक-से-अधिक पैदावार की हो गई है। किसान को रात और दिन अस्तित्व के बारे में सोचने को मजबूर करते हैं। जैविक और रसायन रहित खेती के बारे में हमने एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी है जिससे बदलाव की उम्मीद है।
प्रधानमंत्री जैविक खेती के पक्षधर हैं, क्या हालात में बदलाव हुआ?
वर्तमान केन्द्र सरकार पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये प्रयास कर रही है। सरकार की ओर से इस दिशा में कई फ्लैगशिप परियोजनाएँ चलाई गई हैं। लेकिन इस सबके बावजूद जैविक खेती के लिये बहुत कुछ किया जाना जरूरी है। फिर चाहे वो राशि का आवंटन हो अथवा परियोजनाओं का क्रियान्वयन। जीएम बीजों के बारे में सरकार को अपनी स्थिति साफ करनी होगी। कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से विरोधाभासी बयान दिये जाते हैं। सरकार को ये साफ करना चाहिए कि जैविक और पराउत्पत्ति मूलक (ट्रांसजैनिक्स) पद्धति साथ-साथ नहीं चल सकती है।
जीएम डाटा और जीईएसी पर सरकार क्या कुछ छिपा रही है?
केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने हाल में जीएम डाटा और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) की रिपोर्ट सार्वजनिक करने के आदेश दिये थे। लेकिन अब तक सरकार की ओर से आम नहीं किया गया है। इससे ये स्पष्ट है कि सरकार कुछ-न-कुछ छिपा रही है।
क्या संकर हाइब्रिड जीएम से बेहतर हैं?
तकनीक का सन्तुलित उपयोग फायदेमन्द हो सकता है। संकर बीजों का उपयोग पैदावार को बढ़ाने के लिये हो सकता है। लेकिन ये दुख की बात है कि हमारे देश में आज तक बीज उपचार के सरकारी दावे खोखले ही साबित हुए हैं। परम्परागत बीजों की पूर्ण क्षमता का दोहन ही नहीं किया गया है। देश में जीएम बीजों को हाइब्रिड के नाम पर बेचकर किसानों को गुलाम बनाया जा रहा है।
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