भारत के गांवों में अब जैविक खेती की हवा चल रही है। यह किसानों के लिए काफी नया प्रयोग है, लेकिन वे उत्साहित हैं। जैविक खेती से जहां खाद्यान्न का भरपूर उत्पादन हो रहा है वहीं मिट्टी की उर्वरा-शक्ति भी बच रही है। वायु एवं जल प्रदूषण कम हो रहा है और किसानों को उनके उत्पादन का भरपूर मूल्य भी मिल रहा है। अब जैविक खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है, क्योंकि रासायनिक उर्वरक उपभोग के मामले में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है। ऐसे में जैविक खेती अपनाकर किसान जहां उत्पादन बढ़ा सकते हैं वहीं देश के आर्थिक सुधार में भी अपना योगदान दे सकते हैं।भारत में अभी भी पोटाश पूरी तरह से आयातित है। इसके अलावा 34 फीसदी नाइट्रोजन और 82 फीसदी फास्फेट को छोड़ दिया जाए तो बाकि हमें दूसरे देश से आयात करना पड़ता है। विकास के नित नए आयाम हासिल करने के बाद भी भारत की 70 फीसदी से अधिक आबादी गांवों में रहती हैं। गांवों में रहने वाले सभी लोग किसी न किसी रूप में खेती से जुड़े हुए हैं। यही वजह है कि भारत सरकार खेती को समृद्ध करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है। अब जैविक खेती के जरिए खाद्यान्न सुरक्षा की कोशिश की जा रही है। बदलते परिवेश के हिसाब से किसानों को खेती के प्रति जागरूक किया जा रहा है।
इन दिनों गांवों में किसान खेती के नित नए तरीके अपना रहे हैं। वैज्ञानिकों की ओर से बताई जा रही बातों को पूरी तरह से आत्मसात कर खेती को मुनाफे का कारोबार बनाया जा रहा है। चूंकि रासायनिक खाद के लगातार प्रयोग करते रहने का असर अब मिट्टी पर दिखाई पड़ने लगा है। इससे एक तरफ मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ किसानों को काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है। भारत को विभिन्न रासायनिक खादों को खरीदने के लिए दूसरे देश के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है। ऐसे में जैविक खेती अपनाकर किसान कई तरह की बचत भी कर सकते हैं और खाद्यान्न सुरक्षा के तहत चलाए जा रहे अभियान में अपना सहयोग भी दे सकते हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो रासायनिक खाद उपभोग के मामले में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है।
विभिन्न राज्यों से मिल रहे आंकड़ों में यह साफ है कि मिट्टी की उर्वरता प्रभावित तो हुई है। साथ ही हमें दूसरे देश के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है क्योंकि भारत में अभी भी पोटाश पूरी तरह से आयातित है। इसके अलावा 34 फीसदी नाइट्रोजन और 82 फीसदी फास्फेट को छोड़ दिया जाए तो बाकि हमें दूसरे देश से आयात करना पड़ता है। ऐसे में अब भारतीय कृषि वैज्ञानिक किसानों को जैविक खेती के प्रति जागरूक कर रहे हैं। विभिन्न प्रदेशों में जैविक खेती की शुरुआत भी हो गई है। जैविक खेती के अब तक के जो परिणाम सामने आए हैं वे काफी उत्साहजनक हैं। इस वजह से अब जैविक खेती का गांव-गांव प्रशिक्षण शुरू हो गया है।
सरकार की ओर से आयोजित होने वाले कृषि संबंधी प्रशिक्षणों में जैविक खेती के बारे में लाभ बताए जा रहे हैं। किसानों को पंपलेट एवं अन्य प्रचार सामग्री के जरिए जैविक खेती के फायदे बताए जा रहे हैं। इतना ही नहीं जैविक खेती के तरीके बताने के लिए हर गांव में किसान मित्र नियुक्त किए जा रहे हैं। इन गांवों में अब जैविक खेती के प्रति लहर चल पड़ी है। केंद्र सरकार भी किसानों की इस लहर में पूरी सक्रियता से साथ दे रही है। जैविक कृषि एक समग्र उत्पादन प्रबंधन सिस्टम है जो जैव विविधता, पोषक जैव वैज्ञानिक चक्र, मृदा माइक्रोबॉयल और जैव रसायन क्रियाकलाप से संबंधित कृषि स्थिति की प्रणाली के स्वास्थ्य का संवर्धन करता है। इसमें रसायन उर्वरक के स्थान पर माइक्रोबायल पोषक जैसे शैवाल, फंगस, बैक्ट्रिया, माइकोरिजा और एक्टिनोमाइसीन का उपयोग किया जाता है। कम्पोस्टिंग, हरा खाद बनाना, फसल चक्र, मिश्रित फसल, पक्षी दूर भगाना एवं फंसाना और ट्रेप फसल जैविक कृषि के अन्य सिद्धांत हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि एवं सहकारिता विभाग की ओर से किसानों को जैविक खेती के प्रति जागरूक किया जा रहा है। इसके अलावा विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्रों की ओर से भी गांव-गांव किसानों को जैविक खेती के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है। एक तरह से यह कृषि की नई क्रांति है। यह अलग बात है कि भारतीय कृषि में जैविक खेती का पुराना रिश्ता रहा है, लेकिन अब यह काफी परिमार्जित और वैज्ञानिक रूप में हमारे सामने हैं। जैविक खाद में मवेशी के गोबर, जानवरों के अपशिष्ट, ग्रामीण और शहरी कम्पोस्ट, अन्य पशु अपशिष्ट, फसलों के अपशिष्ट और हरी खाद शामिल हैं। इस प्रकार से ये अपशिष्ट मृदा की उर्वरकता और उत्पादकता बढ़ाने में उपयोगी होते हैं। हाल में ही जारी आंकड़ो के मुताबिक जैविक खादों के प्रति किसानों में काफी जागरूकता आई है। जो किसान जैविक खेती अपना रहे हैं, उनका जीवन-स्तर भी काफी ऊंचा हुआ है क्योंकि अब कोई भी व्यक्ति रासायनिक खाद से तैयार किए गए उत्पाद को ग्रहण नहीं करना चाहता है। यही वजह है कि जैसे ही लोगों को पता चला है कि यह उत्पाद जैविक खेती के जरिए पैदा किया गया है तो लोग मुंहमांगी कीमत देने को तैयार हो जाते हैं। विभिन्न राज्यों से केंद्रीय कृषि मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि हुई है कि किसानों में जैविक खेती के प्रति ललक पैदा हुई है।
अधिकांश किसान जैविक खेती के प्रति इसलिए भी आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि जैव उर्वरक से उत्पादन तो मिलता ही है, साथ ही मिट्टी की उर्वरता शक्ति भी बरकरार रहती है। यह मृदा की जलधारिता क्षमता बढ़ाता है और सूक्ष्म जीवों के क्रियाकलाप को सक्रिय करता है जो मिट्टी में पौधों के भोजन तत्व तैयार करते हैं। वास्तव में जैविक खेती जीवों के सहयोग से की जाने वाली खेती के तरीके को कहते हैं। प्रकृति ने स्वयं संचालन के लिए जीवों का विकास किया है जो प्रकृति को पुर्नऊर्जा प्रदान करने वाले जैव संयंत्र भी हैं। यही जैविक व्यवस्था खेतों में कार्य करती है। खेतों में रसायन डालने से ये जैविक व्यवस्था नष्ट होने को है तथा भूमि और जल-प्रदूषण बढ़ रहा है। यही वजह है कि आज जैविक खेती समय की मांग भी है। खेतों में हमें उपलब्ध जैविक साधनों की मदद से खाद, कीटनाशक दवाई, चूहा नियंत्रण हेतु दवा वगैरह बनाकर उनका उपयोग करना होगा। इन तरीकों के उपयोग से हमें पैदावार भी अधिक मिलेगी एवं अनाज, फल-सब्जियां भी विषमुक्त एवं उत्तम होंगी। प्रकृति के सूक्ष्म जीवाणुओं एवं जीवों का तंत्र दोबारा हमारी खेती में सहयोगी कार्य कर सकेगा।
एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर करीब 14 लाख उत्पादक जैविक खेती कर रहे हैं। कृषि भूमि का करीब दो-तिहाई हिस्सा घास भूमि है। फसल वाला क्षेत्र 82 लाख हेक्टेयर है जो कुल जैविक कृषि भूमि का एक चौथाई हिस्सा है। एशिया, लेटिन अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैविक खाद्यान्नों के महत्वपूर्ण उत्पादक और निर्यातक हैं। जैविक उत्पाद की वैश्विक बिक्री वर्ष 2008 में 50.9 अरब डॉलर तक पहुंच गई जो वर्ष 2003 में हुई 25 अरब डॉलर से दुगुनी थी। जैविक उत्पादों के लिए उपभोक्ताओं की मांग मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका और यूरोप से है।
भारत में, वर्ष 2003-04 में जैविक खेती को लेकर गंभीरता दिखाई गई और 42,000 हेक्टेयर क्षेत्र से जैविक खेती की शुरुआत हुई। वर्ष 2004-05 में जैविक खेती के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 42,000 हेक्टेयर था। मार्च 2010 तक यह बढ़कर 10 लाख 80 हजार हेक्टेयर हो गया। इसके अतिरिक्त 34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जंगलों से फसल एकत्र की जाती है। इस प्रकार मार्च 2010 तक जैविक प्रमाणीकरण का कुल क्षेत्र 44 लाख 80 हजार हेक्टेयर था जिसमें पिछले 6 वर्ष में 25 गुना वृद्धि हुई है। जोती हुई जैविक भूमि में 7.56 लाख हेक्टेयर प्रमाणीकृत है, जबकि 3.2 लाख हेक्टेयर रूपान्तरण की प्रक्रिया में है।
सरकार की सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व व्यापार विकास एवं विनियामक अधिनियम के तहत अधिसूचित जैविक उत्पादन पर राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीओपी) देश के प्रमाणित जैविक उत्पाद के निर्यात पर नजर रखता है। वर्ष 2008-09 के दौरान, भारत ने करीब 18.78 लाख टन प्रमाणित जैविक उत्पादों का उत्पादन किया। इसमें से 591 करोड़ रुपए के करीब 54,000 टन खाद्य पदार्थों का निर्यात किया गया। कपास से संबद्ध 77,000 टन से ज्यादा के उत्पादन के साथ भारत एक साल पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा जैविक कपास उत्पादक देश बन गया। भारत के जैविक निर्यातों में अनाज, दालें, शहद, चाय, मसाले, तिलहन, फल, सब्जियां, कपास के तंतु, कॉस्मैटिक्स और बॉडी केयर उत्पाद हैं।
एक तरफ किसान जैविक खेती को लेकर गंभीरता दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार की ओर से भी कंधे से कंधा मिलाकर किसानों का सहयोग किया जा रहा है। कृषि मंत्रालय देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, पूर्वोत्तर के लिए प्रौद्योगिकी मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना संचालित कर रहा है। राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना गाजियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र तथा बैंगलुरू, भुवनेश्वर, हिसार, इम्फाल, जबलपुर और नागपुर स्थित छह क्षेत्रीय केंद्रों के माध्यम से अक्टूबर 2004 में लागू की गई।
इसी तरह राष्ट्रीय बागवानी मिशन और पूर्वोत्तर के लिए प्रौद्योगिकी मिशन के तहत जैविक बागवानी खेती के लिए अधिकतम 10,000 रुपए प्रति हेक्टेयर लागत की 50 फीसदी की दर पर (प्रति लाभार्थी 4 हेक्टेयर तक) सहायता दी जाती है। वर्मी कम्पोस्ट इकाइयां लगाने के लिए भी प्रत्येक लाभार्थी को 30,000 रुपए की लागत पर 50 फीसदी की दर पर सहायता मुहैया कराई जा रही है। उन किसानों के समूह को पांच लाख रुपए की सहायता मुहैया कराई जा रही है जो जैविक खेती प्रमाणन के लिए 50 हेक्टेयर के क्षेत्र कवर करते हैं। केंद्र सरकार के प्रयासों के अलावा कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, नागालैंड, सिक्किम, मिजोरम और उत्तराखण्ड पहले ही जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए नीतियां तैयार कर चुके हैं। नागालैंड, सिक्किम, मिजोरम और उत्तराखण्ड ने भविष्य में 100 फीसदी जैविक होने का फैसला किया है।
रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उपज में वृद्धि तो होती है लेकिन अधिक प्रयोग से मृदा की उर्वरता तथा संरचना पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इसलिए रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैव उर्वरकों के प्रयोग से फसल को पोषक तत्वों की आपूर्ति होने के साथ मृदा उर्वरता भी स्थिर बनी रहती है। जैव उर्वरकों का प्रयोग रासायनिक उर्वरकों के साथ करने से रासायनिक उर्वरकों की क्षमता बढ़ती है जिससे उपज में वृद्धि होती है।
जैव उर्वरक जीवाणु खाद है। खाद में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल में पहले से विद्यमान नाइट्रोजन को पकड़कर फसल को उपलब्ध कराते हैं और मिट्टी में मौजूद अघुलनशील फास्फोरस को पानी में घुलनशील बनाकर पौधों को देते हैं। इस प्रकार रासायनिक खाद की आवश्यकता सीमित हो जाती है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि जैविक खाद के प्रयोग से 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर भूमि को प्राप्त हो जाती है तथा उपज 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों को थोड़ा कम प्रयोग करके बदले में जैविक खाद का प्रयोग करके फसलों की भरपूर उपज पाई जा सकती है। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के पूरक तो हैं ही, साथ ही ये उनकी क्षमता भी बढ़ाते हैं। फास्फोबैक्ट्रिया और माइकोराइजा नामक जैव उर्वरक के प्रयोग से खेत में फास्फोरस की उपलब्धता में 20 से 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है।
1. ये अन्य रासायनिक उर्वरकों से सस्ते होते हैं जिससे फसल उत्पादन की लागत घटती है।
2. जैव उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रोजन व घुलनशील फास्फोरस की फसल के लिए उपलब्धता बढ़ती है।
3. इससे रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो जाता है।
4. जैविक खाद से पौधों मे वृद्धिकारक हारमोंस उत्पन्न होते हैं जिनसे उनकी बढ़वार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
5. जैविक खाद से फसल में मृदाजन्य रोग नहीं होते।
6. जैविक खाद से खेत में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या में बढ़ोतरी होती है।
7. जैविक खाद से पर्यावरण सुरक्षित रहता है।
जैव उर्वरकों का प्रयोग बीजोपचार या जड़ उपचार अथवा मृदा-उपचार द्वारा किया जाता है-
बीजोपचार- बीजोपचार के लिए 200 ग्राम जैव उर्वरक का आधा लीटर पानी में घोल बनाएं। इस घोल को 10-15 किलो बीज के ढेर पर धीरे-धीरे डालकर हाथों से मिलाएं जिससे कि जैव उर्वरक अच्छी तरह और समान रूप से बीजों पर चिपक जाएं। इस प्रकार तैयार उपचारित बीज को छाया में सुखाकर तुरंत बुवाई कर दें।
जड़ उपचार- जैविक खाद का जड़ोपचार द्वारा प्रयोग रोपाई वाली फसलों में करते हैं। चार किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25 लीटर पानी में घोल बनाएं। एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त पौध की जड़ों को 25-30 मिनट तक उपरोक्त घोल में डुबोकर रखें। उपचारित पौध को छाया में रखे तथा यथाशीघ्र रोपाई कर दें।
मृदा उपचार- एक हेक्टेयर भूमि के लिए 200 ग्राम वाले 25 पैकेट जैविक खाद की आवश्यकता पड़ती है। 50 किलोग्राम मिट्टी, 50 किलोग्राम कम्पोस्ट खाद में 5 किलोग्राम जैव उर्वरक को अच्छी तरह मिलाएं। इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई के समय या बुवाई से 24 घंटे पहले समान रूप से छिड़कें। इसे बुवाई के समय कूंडों या खूडो में भी डाल सकते हैं।
कम्पोस्ट खाद
कम्पोस्टिंग वनस्पति और पशु अपशिष्ट को तुरंत गलाकर खेत में मौजूद अन्य अपशिष्टों को भी पौधे के भोजन के लिए तैयार करते हैं। इन अपशिष्टों में पत्तियां, जड़ें, ठूंठ, फसल के अवशेष, पुआल, बाड़, घास-पात आदि शामिल हैं। तैयार कम्पोस्ट भुरभुरे, भूरा से गहरा भूरा आर्द्रता वाली सामग्री का मिश्रण जैसी होती है। मूल रूप से कम्पोस्ट दो प्रकार के होते हैं। पहला एरोबिक और दूसरा गैर-एरोबिक।
एरोबिक कम्पोस्टिंग- इसमें प्रतिदिन मवेशी का प्रयुक्त बेडिंग, मवेशीशाला का झाड़ू बुहारन और कुछ मूत्र सनी मिट्टी अस्तबल से हटाई जाती है। इसे मवेशी के गोबर के साथ मिलाया जाता है और थोड़ी-सी राख मिला दी जाती है और इसे अच्छी निकासी वाले स्थल पर रखा जाता है। धीरे-धीरे 30 से 45 सेंमी ऊंचाई की परत बनती है। यह ढेर वर्षा ऋतु के शुरू होने के पहले बनता है। पहली भारी वर्षा के बाद उसमें डूबी हुई सामग्रियां दोनों ओर की 1.2 मीटर पट्टी 2.4 मीटर चौड़ी पट्टी पर रेक बनाती है। इस प्रकार से ढेर की ऊंचाई लगभग एक मीटर बढ़ जाती है। यह प्रक्रिया आर्द्र क्षय से बचाती है और सड़न तुरंत आरंभ होना सुनिश्चित करती है। जब तीन से चार सप्ताह के बाद ढेर कम होता है तो इसे दूसरा टर्निंग दिया जाता है और अंदर की सामग्री के साथ बाहरी सामग्रियां मिलाकर नया ढेर बना लिया जाता है। लगभग एक माह या अधिक दिनों के बाद यह वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है, बादल वाले दिन से ढेर को अंतिम टर्निंग दिया जाता है। कम्पोस्ट को चार माह के बाद प्रयोग किया जा सकता है।
गैर-एरोबिक कम्पोस्टिंग- इसमें सुविधाजनक आकार के गड्ढे में फार्म के अवशेषों को जमा किया जाता है। सामान्य तौर पर यह लगभग 4.5 मीटर लंबा, 1.5 मीटर चौड़ा और एक मीटर गहरा होता है। प्रत्येक दिन के संग्रहण को पतली परत में फैला दिया जाता है। उसके ऊपर ताजा गोमूत्र (4.5 किलो), राख (140 से 170 ग्राम) और पानी (18 से 22 लीटर) का छिड़काव किया जाता है। तब यह सघन बना दिया जाता है। जब तक कच्ची सामग्री 30 से 46 सेंटीमीटर इसके किनारे से ऊपर होती है तब इसे मिट्टी और गोबर के मिश्रण से प्लास्टर कर दिया जाता है। सघन आर्द्र सामग्रियां आगे बिना किसी प्रकार के कार्य के ही लगभग चार से पांच माह में कम्पोस्ट बन जाती हैं। इस कम्पोस्ट में सामान्य रूप से करीब 0.8 से 1 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है।
वर्मी कंपोस्ट यानी केंचुआ खाद
केंचुआ खाद तैयार करने के लिए छायादार स्थान में 10 फीट लम्बा, 3 फीट चौड़ा, 12 इंच गहरा पक्का ईंट सीमेंट का ढांचा बनाएं। जमीन से 12 इंच ऊंचे चबूतरे पर यह निर्माण करें। इस ढांचे में आधी या पूरी पकी गोबर कचरे की खाद बिछा दें। इसमें फीट में 100 केंचुए डालें। इसके ऊपर जूट के बोरे डालकर प्रतिदिन सुबह-शाम पानी डालते रहें। इसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा नमी ना रहे। दो माह बाद यह खाद बन जाएगी, 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से इस खाद का उपयोग करें। वर्मी कम्पोस्ट के लिए केंचुए की मुख्य किस्में- आइसीनिया फोटिडा, यूड्रिलस यूजीनिया और पेरियोनेक्स एक्जकेटस है। यह मिट्टी की उर्वरता एवं उत्पादकता को लंबे समय तक बनाए रखती हैं। मृदा की उर्वराशक्ति बढ़ती है जिससे फसल उत्पादन में स्थिरता के साथ गुणात्मक सुधार होता है। यह नाइट्रोजन के साथ फास्फोरस एवं पोटाश तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को भी सक्रिय करता है।
वर्मी कम्पोस्ट के लाभ- जैविक खाद होने के कारण वर्मी कम्पोस्ट में लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता अधिक होती है जो भूमि में रहने वाले सूक्ष्म जीवों के लिए लाभदायक एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। वर्मी कम्पोस्ट में उपस्थित पौध पोषक तत्व पौधों को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। मृदा में जीवांश पदार्थ (ह्यूमस) की वृद्धि होती है, जिससे मृदा संरचना, वायु संचार तथा मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भूमि उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है। अपशिष्ट पदार्थों या जैव उपघटित कूड़े-कचरे का पुर्नचक्रण आसानी से हो जाता है।
मटका खाद
मटका खाद तैयार करने के लिए गौमूत्र 10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 500 ग्राम, बेसन 500 ग्राम - सभी को मिलाकर मटके में भरकर 10 दिन सड़ाएं। फिर 200 लीटर पानी में घोलकर गीली जमीन पर कतारों के बीच छिटक दें। 15 दिन बाद दोबारा इसका छिड़काव करें।
हरी खाद
हरी खाद बनाने में लेगुमिनस पौधे का उत्पादन शामिल होता है। उनका उपयोग उनके सहजीवी नाइट्रोजन या नाइट्रोजन फिक्सिंग क्षमता के कारण किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में गैर-लेगुमिनस पौध का भी उपयोग किया जाता है। आमतौर पर मैदानी इलाके में सनई, ढेंचा आदि को हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। पूरी फसल को मिट्टी पलट हल से जोत दिया जाता है। इससे फसल मिट्टी में दब जाती है और सड़ने के बाद खाद बन जाती है।
(लेखक किसान क्लब से जुड़े हैं और जैविक खेती अपना रहे हैं)
ई-मेलः yashwant.rawats@gmail.com
इन दिनों गांवों में किसान खेती के नित नए तरीके अपना रहे हैं। वैज्ञानिकों की ओर से बताई जा रही बातों को पूरी तरह से आत्मसात कर खेती को मुनाफे का कारोबार बनाया जा रहा है। चूंकि रासायनिक खाद के लगातार प्रयोग करते रहने का असर अब मिट्टी पर दिखाई पड़ने लगा है। इससे एक तरफ मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ किसानों को काफी पैसा खर्च करना पड़ रहा है। भारत को विभिन्न रासायनिक खादों को खरीदने के लिए दूसरे देश के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है। ऐसे में जैविक खेती अपनाकर किसान कई तरह की बचत भी कर सकते हैं और खाद्यान्न सुरक्षा के तहत चलाए जा रहे अभियान में अपना सहयोग भी दे सकते हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो रासायनिक खाद उपभोग के मामले में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है।
विभिन्न राज्यों से मिल रहे आंकड़ों में यह साफ है कि मिट्टी की उर्वरता प्रभावित तो हुई है। साथ ही हमें दूसरे देश के सामने हाथ फैलाना पड़ रहा है क्योंकि भारत में अभी भी पोटाश पूरी तरह से आयातित है। इसके अलावा 34 फीसदी नाइट्रोजन और 82 फीसदी फास्फेट को छोड़ दिया जाए तो बाकि हमें दूसरे देश से आयात करना पड़ता है। ऐसे में अब भारतीय कृषि वैज्ञानिक किसानों को जैविक खेती के प्रति जागरूक कर रहे हैं। विभिन्न प्रदेशों में जैविक खेती की शुरुआत भी हो गई है। जैविक खेती के अब तक के जो परिणाम सामने आए हैं वे काफी उत्साहजनक हैं। इस वजह से अब जैविक खेती का गांव-गांव प्रशिक्षण शुरू हो गया है।
सरकार की ओर से आयोजित होने वाले कृषि संबंधी प्रशिक्षणों में जैविक खेती के बारे में लाभ बताए जा रहे हैं। किसानों को पंपलेट एवं अन्य प्रचार सामग्री के जरिए जैविक खेती के फायदे बताए जा रहे हैं। इतना ही नहीं जैविक खेती के तरीके बताने के लिए हर गांव में किसान मित्र नियुक्त किए जा रहे हैं। इन गांवों में अब जैविक खेती के प्रति लहर चल पड़ी है। केंद्र सरकार भी किसानों की इस लहर में पूरी सक्रियता से साथ दे रही है। जैविक कृषि एक समग्र उत्पादन प्रबंधन सिस्टम है जो जैव विविधता, पोषक जैव वैज्ञानिक चक्र, मृदा माइक्रोबॉयल और जैव रसायन क्रियाकलाप से संबंधित कृषि स्थिति की प्रणाली के स्वास्थ्य का संवर्धन करता है। इसमें रसायन उर्वरक के स्थान पर माइक्रोबायल पोषक जैसे शैवाल, फंगस, बैक्ट्रिया, माइकोरिजा और एक्टिनोमाइसीन का उपयोग किया जाता है। कम्पोस्टिंग, हरा खाद बनाना, फसल चक्र, मिश्रित फसल, पक्षी दूर भगाना एवं फंसाना और ट्रेप फसल जैविक कृषि के अन्य सिद्धांत हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि एवं सहकारिता विभाग की ओर से किसानों को जैविक खेती के प्रति जागरूक किया जा रहा है। इसके अलावा विभिन्न कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्रों की ओर से भी गांव-गांव किसानों को जैविक खेती के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है। एक तरह से यह कृषि की नई क्रांति है। यह अलग बात है कि भारतीय कृषि में जैविक खेती का पुराना रिश्ता रहा है, लेकिन अब यह काफी परिमार्जित और वैज्ञानिक रूप में हमारे सामने हैं। जैविक खाद में मवेशी के गोबर, जानवरों के अपशिष्ट, ग्रामीण और शहरी कम्पोस्ट, अन्य पशु अपशिष्ट, फसलों के अपशिष्ट और हरी खाद शामिल हैं। इस प्रकार से ये अपशिष्ट मृदा की उर्वरकता और उत्पादकता बढ़ाने में उपयोगी होते हैं। हाल में ही जारी आंकड़ो के मुताबिक जैविक खादों के प्रति किसानों में काफी जागरूकता आई है। जो किसान जैविक खेती अपना रहे हैं, उनका जीवन-स्तर भी काफी ऊंचा हुआ है क्योंकि अब कोई भी व्यक्ति रासायनिक खाद से तैयार किए गए उत्पाद को ग्रहण नहीं करना चाहता है। यही वजह है कि जैसे ही लोगों को पता चला है कि यह उत्पाद जैविक खेती के जरिए पैदा किया गया है तो लोग मुंहमांगी कीमत देने को तैयार हो जाते हैं। विभिन्न राज्यों से केंद्रीय कृषि मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि हुई है कि किसानों में जैविक खेती के प्रति ललक पैदा हुई है।
अधिकांश किसान जैविक खेती के प्रति इसलिए भी आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि जैव उर्वरक से उत्पादन तो मिलता ही है, साथ ही मिट्टी की उर्वरता शक्ति भी बरकरार रहती है। यह मृदा की जलधारिता क्षमता बढ़ाता है और सूक्ष्म जीवों के क्रियाकलाप को सक्रिय करता है जो मिट्टी में पौधों के भोजन तत्व तैयार करते हैं। वास्तव में जैविक खेती जीवों के सहयोग से की जाने वाली खेती के तरीके को कहते हैं। प्रकृति ने स्वयं संचालन के लिए जीवों का विकास किया है जो प्रकृति को पुर्नऊर्जा प्रदान करने वाले जैव संयंत्र भी हैं। यही जैविक व्यवस्था खेतों में कार्य करती है। खेतों में रसायन डालने से ये जैविक व्यवस्था नष्ट होने को है तथा भूमि और जल-प्रदूषण बढ़ रहा है। यही वजह है कि आज जैविक खेती समय की मांग भी है। खेतों में हमें उपलब्ध जैविक साधनों की मदद से खाद, कीटनाशक दवाई, चूहा नियंत्रण हेतु दवा वगैरह बनाकर उनका उपयोग करना होगा। इन तरीकों के उपयोग से हमें पैदावार भी अधिक मिलेगी एवं अनाज, फल-सब्जियां भी विषमुक्त एवं उत्तम होंगी। प्रकृति के सूक्ष्म जीवाणुओं एवं जीवों का तंत्र दोबारा हमारी खेती में सहयोगी कार्य कर सकेगा।
14 लाख उत्पादक जैविक खेती में जुटे
एक अनुमान के अनुसार दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर करीब 14 लाख उत्पादक जैविक खेती कर रहे हैं। कृषि भूमि का करीब दो-तिहाई हिस्सा घास भूमि है। फसल वाला क्षेत्र 82 लाख हेक्टेयर है जो कुल जैविक कृषि भूमि का एक चौथाई हिस्सा है। एशिया, लेटिन अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैविक खाद्यान्नों के महत्वपूर्ण उत्पादक और निर्यातक हैं। जैविक उत्पाद की वैश्विक बिक्री वर्ष 2008 में 50.9 अरब डॉलर तक पहुंच गई जो वर्ष 2003 में हुई 25 अरब डॉलर से दुगुनी थी। जैविक उत्पादों के लिए उपभोक्ताओं की मांग मुख्य रूप से उत्तरी अमेरिका और यूरोप से है।
भारत में, वर्ष 2003-04 में जैविक खेती को लेकर गंभीरता दिखाई गई और 42,000 हेक्टेयर क्षेत्र से जैविक खेती की शुरुआत हुई। वर्ष 2004-05 में जैविक खेती के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 42,000 हेक्टेयर था। मार्च 2010 तक यह बढ़कर 10 लाख 80 हजार हेक्टेयर हो गया। इसके अतिरिक्त 34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जंगलों से फसल एकत्र की जाती है। इस प्रकार मार्च 2010 तक जैविक प्रमाणीकरण का कुल क्षेत्र 44 लाख 80 हजार हेक्टेयर था जिसमें पिछले 6 वर्ष में 25 गुना वृद्धि हुई है। जोती हुई जैविक भूमि में 7.56 लाख हेक्टेयर प्रमाणीकृत है, जबकि 3.2 लाख हेक्टेयर रूपान्तरण की प्रक्रिया में है।
सरकार की सक्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्व व्यापार विकास एवं विनियामक अधिनियम के तहत अधिसूचित जैविक उत्पादन पर राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीओपी) देश के प्रमाणित जैविक उत्पाद के निर्यात पर नजर रखता है। वर्ष 2008-09 के दौरान, भारत ने करीब 18.78 लाख टन प्रमाणित जैविक उत्पादों का उत्पादन किया। इसमें से 591 करोड़ रुपए के करीब 54,000 टन खाद्य पदार्थों का निर्यात किया गया। कपास से संबद्ध 77,000 टन से ज्यादा के उत्पादन के साथ भारत एक साल पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा जैविक कपास उत्पादक देश बन गया। भारत के जैविक निर्यातों में अनाज, दालें, शहद, चाय, मसाले, तिलहन, फल, सब्जियां, कपास के तंतु, कॉस्मैटिक्स और बॉडी केयर उत्पाद हैं।
जैविक खेती पर सरकार का रुख
एक तरफ किसान जैविक खेती को लेकर गंभीरता दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार की ओर से भी कंधे से कंधा मिलाकर किसानों का सहयोग किया जा रहा है। कृषि मंत्रालय देश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, पूर्वोत्तर के लिए प्रौद्योगिकी मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना संचालित कर रहा है। राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना गाजियाबाद स्थित राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र तथा बैंगलुरू, भुवनेश्वर, हिसार, इम्फाल, जबलपुर और नागपुर स्थित छह क्षेत्रीय केंद्रों के माध्यम से अक्टूबर 2004 में लागू की गई।
इसी तरह राष्ट्रीय बागवानी मिशन और पूर्वोत्तर के लिए प्रौद्योगिकी मिशन के तहत जैविक बागवानी खेती के लिए अधिकतम 10,000 रुपए प्रति हेक्टेयर लागत की 50 फीसदी की दर पर (प्रति लाभार्थी 4 हेक्टेयर तक) सहायता दी जाती है। वर्मी कम्पोस्ट इकाइयां लगाने के लिए भी प्रत्येक लाभार्थी को 30,000 रुपए की लागत पर 50 फीसदी की दर पर सहायता मुहैया कराई जा रही है। उन किसानों के समूह को पांच लाख रुपए की सहायता मुहैया कराई जा रही है जो जैविक खेती प्रमाणन के लिए 50 हेक्टेयर के क्षेत्र कवर करते हैं। केंद्र सरकार के प्रयासों के अलावा कर्नाटक, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, नागालैंड, सिक्किम, मिजोरम और उत्तराखण्ड पहले ही जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए नीतियां तैयार कर चुके हैं। नागालैंड, सिक्किम, मिजोरम और उत्तराखण्ड ने भविष्य में 100 फीसदी जैविक होने का फैसला किया है।
जैव उर्वरकों का महत्व
रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उपज में वृद्धि तो होती है लेकिन अधिक प्रयोग से मृदा की उर्वरता तथा संरचना पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इसलिए रासायनिक उर्वरकों के बजाय जैव उर्वरकों के प्रयोग से फसल को पोषक तत्वों की आपूर्ति होने के साथ मृदा उर्वरता भी स्थिर बनी रहती है। जैव उर्वरकों का प्रयोग रासायनिक उर्वरकों के साथ करने से रासायनिक उर्वरकों की क्षमता बढ़ती है जिससे उपज में वृद्धि होती है।
क्या हैं जैव उर्वरक
जैव उर्वरक जीवाणु खाद है। खाद में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल में पहले से विद्यमान नाइट्रोजन को पकड़कर फसल को उपलब्ध कराते हैं और मिट्टी में मौजूद अघुलनशील फास्फोरस को पानी में घुलनशील बनाकर पौधों को देते हैं। इस प्रकार रासायनिक खाद की आवश्यकता सीमित हो जाती है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि जैविक खाद के प्रयोग से 30 से 40 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर भूमि को प्राप्त हो जाती है तथा उपज 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों को थोड़ा कम प्रयोग करके बदले में जैविक खाद का प्रयोग करके फसलों की भरपूर उपज पाई जा सकती है। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के पूरक तो हैं ही, साथ ही ये उनकी क्षमता भी बढ़ाते हैं। फास्फोबैक्ट्रिया और माइकोराइजा नामक जैव उर्वरक के प्रयोग से खेत में फास्फोरस की उपलब्धता में 20 से 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है।
जैव उर्वरकों से लाभ
1. ये अन्य रासायनिक उर्वरकों से सस्ते होते हैं जिससे फसल उत्पादन की लागत घटती है।
2. जैव उर्वरकों के प्रयोग से नाइट्रोजन व घुलनशील फास्फोरस की फसल के लिए उपलब्धता बढ़ती है।
3. इससे रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो जाता है।
4. जैविक खाद से पौधों मे वृद्धिकारक हारमोंस उत्पन्न होते हैं जिनसे उनकी बढ़वार पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
5. जैविक खाद से फसल में मृदाजन्य रोग नहीं होते।
6. जैविक खाद से खेत में लाभकारी सूक्ष्म जीवों की संख्या में बढ़ोतरी होती है।
7. जैविक खाद से पर्यावरण सुरक्षित रहता है।
जैविक खाद का प्रयोग कैसे करें
जैव उर्वरकों का प्रयोग बीजोपचार या जड़ उपचार अथवा मृदा-उपचार द्वारा किया जाता है-
बीजोपचार- बीजोपचार के लिए 200 ग्राम जैव उर्वरक का आधा लीटर पानी में घोल बनाएं। इस घोल को 10-15 किलो बीज के ढेर पर धीरे-धीरे डालकर हाथों से मिलाएं जिससे कि जैव उर्वरक अच्छी तरह और समान रूप से बीजों पर चिपक जाएं। इस प्रकार तैयार उपचारित बीज को छाया में सुखाकर तुरंत बुवाई कर दें।
जड़ उपचार- जैविक खाद का जड़ोपचार द्वारा प्रयोग रोपाई वाली फसलों में करते हैं। चार किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25 लीटर पानी में घोल बनाएं। एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त पौध की जड़ों को 25-30 मिनट तक उपरोक्त घोल में डुबोकर रखें। उपचारित पौध को छाया में रखे तथा यथाशीघ्र रोपाई कर दें।
मृदा उपचार- एक हेक्टेयर भूमि के लिए 200 ग्राम वाले 25 पैकेट जैविक खाद की आवश्यकता पड़ती है। 50 किलोग्राम मिट्टी, 50 किलोग्राम कम्पोस्ट खाद में 5 किलोग्राम जैव उर्वरक को अच्छी तरह मिलाएं। इस मिश्रण को एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बुवाई के समय या बुवाई से 24 घंटे पहले समान रूप से छिड़कें। इसे बुवाई के समय कूंडों या खूडो में भी डाल सकते हैं।
किसान घर में तैयार करें खाद
कम्पोस्ट खाद
कम्पोस्टिंग वनस्पति और पशु अपशिष्ट को तुरंत गलाकर खेत में मौजूद अन्य अपशिष्टों को भी पौधे के भोजन के लिए तैयार करते हैं। इन अपशिष्टों में पत्तियां, जड़ें, ठूंठ, फसल के अवशेष, पुआल, बाड़, घास-पात आदि शामिल हैं। तैयार कम्पोस्ट भुरभुरे, भूरा से गहरा भूरा आर्द्रता वाली सामग्री का मिश्रण जैसी होती है। मूल रूप से कम्पोस्ट दो प्रकार के होते हैं। पहला एरोबिक और दूसरा गैर-एरोबिक।
एरोबिक कम्पोस्टिंग- इसमें प्रतिदिन मवेशी का प्रयुक्त बेडिंग, मवेशीशाला का झाड़ू बुहारन और कुछ मूत्र सनी मिट्टी अस्तबल से हटाई जाती है। इसे मवेशी के गोबर के साथ मिलाया जाता है और थोड़ी-सी राख मिला दी जाती है और इसे अच्छी निकासी वाले स्थल पर रखा जाता है। धीरे-धीरे 30 से 45 सेंमी ऊंचाई की परत बनती है। यह ढेर वर्षा ऋतु के शुरू होने के पहले बनता है। पहली भारी वर्षा के बाद उसमें डूबी हुई सामग्रियां दोनों ओर की 1.2 मीटर पट्टी 2.4 मीटर चौड़ी पट्टी पर रेक बनाती है। इस प्रकार से ढेर की ऊंचाई लगभग एक मीटर बढ़ जाती है। यह प्रक्रिया आर्द्र क्षय से बचाती है और सड़न तुरंत आरंभ होना सुनिश्चित करती है। जब तीन से चार सप्ताह के बाद ढेर कम होता है तो इसे दूसरा टर्निंग दिया जाता है और अंदर की सामग्री के साथ बाहरी सामग्रियां मिलाकर नया ढेर बना लिया जाता है। लगभग एक माह या अधिक दिनों के बाद यह वर्षा की मात्रा पर निर्भर करता है, बादल वाले दिन से ढेर को अंतिम टर्निंग दिया जाता है। कम्पोस्ट को चार माह के बाद प्रयोग किया जा सकता है।
गैर-एरोबिक कम्पोस्टिंग- इसमें सुविधाजनक आकार के गड्ढे में फार्म के अवशेषों को जमा किया जाता है। सामान्य तौर पर यह लगभग 4.5 मीटर लंबा, 1.5 मीटर चौड़ा और एक मीटर गहरा होता है। प्रत्येक दिन के संग्रहण को पतली परत में फैला दिया जाता है। उसके ऊपर ताजा गोमूत्र (4.5 किलो), राख (140 से 170 ग्राम) और पानी (18 से 22 लीटर) का छिड़काव किया जाता है। तब यह सघन बना दिया जाता है। जब तक कच्ची सामग्री 30 से 46 सेंटीमीटर इसके किनारे से ऊपर होती है तब इसे मिट्टी और गोबर के मिश्रण से प्लास्टर कर दिया जाता है। सघन आर्द्र सामग्रियां आगे बिना किसी प्रकार के कार्य के ही लगभग चार से पांच माह में कम्पोस्ट बन जाती हैं। इस कम्पोस्ट में सामान्य रूप से करीब 0.8 से 1 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है।
वर्मी कंपोस्ट यानी केंचुआ खाद
केंचुआ खाद तैयार करने के लिए छायादार स्थान में 10 फीट लम्बा, 3 फीट चौड़ा, 12 इंच गहरा पक्का ईंट सीमेंट का ढांचा बनाएं। जमीन से 12 इंच ऊंचे चबूतरे पर यह निर्माण करें। इस ढांचे में आधी या पूरी पकी गोबर कचरे की खाद बिछा दें। इसमें फीट में 100 केंचुए डालें। इसके ऊपर जूट के बोरे डालकर प्रतिदिन सुबह-शाम पानी डालते रहें। इसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा नमी ना रहे। दो माह बाद यह खाद बन जाएगी, 15 से 20 क्विंटल प्रति एकड़ की दर से इस खाद का उपयोग करें। वर्मी कम्पोस्ट के लिए केंचुए की मुख्य किस्में- आइसीनिया फोटिडा, यूड्रिलस यूजीनिया और पेरियोनेक्स एक्जकेटस है। यह मिट्टी की उर्वरता एवं उत्पादकता को लंबे समय तक बनाए रखती हैं। मृदा की उर्वराशक्ति बढ़ती है जिससे फसल उत्पादन में स्थिरता के साथ गुणात्मक सुधार होता है। यह नाइट्रोजन के साथ फास्फोरस एवं पोटाश तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों को भी सक्रिय करता है।
वर्मी कम्पोस्ट के लाभ- जैविक खाद होने के कारण वर्मी कम्पोस्ट में लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की क्रियाशीलता अधिक होती है जो भूमि में रहने वाले सूक्ष्म जीवों के लिए लाभदायक एवं उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। वर्मी कम्पोस्ट में उपस्थित पौध पोषक तत्व पौधों को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। मृदा में जीवांश पदार्थ (ह्यूमस) की वृद्धि होती है, जिससे मृदा संरचना, वायु संचार तथा मृदा की जलधारण क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भूमि उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है। अपशिष्ट पदार्थों या जैव उपघटित कूड़े-कचरे का पुर्नचक्रण आसानी से हो जाता है।
मटका खाद
मटका खाद तैयार करने के लिए गौमूत्र 10 लीटर, गोबर 10 किलो, गुड़ 500 ग्राम, बेसन 500 ग्राम - सभी को मिलाकर मटके में भरकर 10 दिन सड़ाएं। फिर 200 लीटर पानी में घोलकर गीली जमीन पर कतारों के बीच छिटक दें। 15 दिन बाद दोबारा इसका छिड़काव करें।
हरी खाद
हरी खाद बनाने में लेगुमिनस पौधे का उत्पादन शामिल होता है। उनका उपयोग उनके सहजीवी नाइट्रोजन या नाइट्रोजन फिक्सिंग क्षमता के कारण किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में गैर-लेगुमिनस पौध का भी उपयोग किया जाता है। आमतौर पर मैदानी इलाके में सनई, ढेंचा आदि को हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। पूरी फसल को मिट्टी पलट हल से जोत दिया जाता है। इससे फसल मिट्टी में दब जाती है और सड़ने के बाद खाद बन जाती है।
(लेखक किसान क्लब से जुड़े हैं और जैविक खेती अपना रहे हैं)
ई-मेलः yashwant.rawats@gmail.com
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Post By: pankajbagwan