खाद्य सुरक्षा

खाद्य सुरक्षा कानून को जनसंख्या की कवरेज की दृष्टि से और अधिक समावेशी होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि इस कानून के दायरे में देश में कुल घरों का 80 प्रतिशत लाने का प्रयास किया गया होता और प्रतिमाह प्रति घर 35 किग्रा. खाद्यान्न का प्रावधान किया गया होता (अर्थात 3 रु. प्रति किग्रा. मूल्य पर चावल/2रु. प्रति किग्रा. मूल्य पर गेहूं/1रु. प्रति किग्रा. पर मोटा अनाज की दर से 30 किग्रा. चावल/गेहूं और 5 किग्रा. मोटा अनाज प्रति घर), तो खाद्यान्नों के प्रापण हेतु आर्थिक लागत के वर्तमान स्तरों पर, खाद्य सब्सिडी की राशि एक वर्ष में रु. 1,65,828 करोड़ होती। देश में सतत गरीबी, भूख और कुपोषण को देखते हुए, यह बहुत ही प्रशंसनीय है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू करने के लिए एक अध्यादेश को मंजूरी दे दी है और इस पर महामहिम राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर भी कर दिए हैं।

कुपोषण और भूख से संतप्त लोगों की संख्या में कमी लाने में देश का प्रदर्शन परिवार और व्यक्तिश: दोनों ही स्तरों पर निराशाजनक रहा है; राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश 2013 का उद्देश्य इनमें से कुछेक गंभीर चिंताओं को हल करना है। केंद्रीय सरकार का ये महत्वपूर्ण उपाय नागरिकों को मामूली कीमतों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराते हुए देश को भूख-मुक्त बनाने की दिशा में एक ठोस कदम साबित हो सकता है।

भारत में खाद्य सुरक्षा कानून का इतिहास बहुत पुराना है, जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान खाद्यान्नों की कमी को देखते हुए 1942 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की शुरूआत की गई थी। तत्कालीन सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए खाद्यान्नों का वितरण शुरू किया था और ये प्रमुख शहरों और खाद्यान्न की कमी वाले कुछेक क्षेत्रों में जारी रखा गया। लेकिन स्वतंत्रता के बाद समय के बदलाव के साथ ही भूमण्डलीय दृष्टिकोण और कुछेक चरणों में लक्षित एक दृष्टिकोण के साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली की नीति में बड़े बदलाव देखे गए हैं।

सातवीं पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को इसके दायरे में समूची जनसंख्या को लाते हुए एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई और वर्ष-दर-वर्ष यह सस्ती दरों पर जनता को खाद्यान्नों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ गरीबी से निपटने की दिशा में एक महत्वपूर्ण सरकारी तंत्र के तौर पर खड़ा हो गया।

लेकिन 1997 से खाद्यान्न के लिए एक लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) लागू की गई है। टीपीडीएस के अधीन गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) और गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) के घरों को भिन्न मूल्यों पर अलग-अलग मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध कराए जा रहे हैं।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश देश की लगभग दो तिहाई जनसंख्या को, जिसमें शहरी जनसंख्या का 50 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 75 प्रतिशत लोग शामिल हैं, सस्ती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने की गारंटी देता है। इसमें सरकार से अपेक्षा की गई है कि वह अध्यादेश लागू होने की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के लिए पात्र व्यक्तियों को प्रति माह प्रति व्यक्ति 5 कि.ग्रा. खाद्यान्न (अनाज)- चावल 3 रु. प्रति किग्रा., गेहूं 2 रु. प्रति किग्रा. और मोटा अनाज 1 रु. प्रति किग्रा. उपलब्ध करवाए।

इसके अतिरिक्त अध्यादेश में गर्भवती महिला और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए यह व्यवस्था है वे गर्भवती रहने के दौरान और बच्चे के जन्म के छह माह तक स्थानीय आंगनवाड़ी केंद्रों के जरिए मुफ्त भोजन पाने और कम से कम छह हजार रुपए का मातृत्व लाभ पाने की हकदार होंगी।

साथ ही छह माह से छह वर्ष तक की आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त समुचित भोजन प्राप्त होगा, और जो छह से चौदह वर्ष की आयु वर्ग के हैं उन्हें स्कूल की छुट्टियों के दिनों को छोड़कर सभी दिनों में सभी सरकारी स्कूलों में दोपहर का भोजन उपलब्ध कराया जाएगा। इन प्रावधानों के अलावा, उक्त अध्यादेश में महिलाओं की अधिकारिता, शिकायत निपटारा तंत्र, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार, खाद्य सुरक्षा भत्ता आदि कई अन्य सकारात्मक खू़बियां हैं।

खाद्य सुरक्षा कानून के संबंध में कुछेक पर्यवेक्षक सरकार के लिए लागत प्रभावों को लेकर चिंता प्रकट कर रहे हैं। हर साल केंद्रीय बजट में खाद्य सब्सिडी के तौर पर उपलब्ध कराई गई राशि का भुगतान भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) को किया जाता है, जो कि खाद्यान्नों की खरीद के लिए एफसीआई द्वारा वहन की जाने वाली आर्थिक लागत और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए अर्जित खाद्यानों के केंद्रीय समर्थन मूल्य (सीआईपी) के बीच के अंतर पर आधारित होती है। इस वर्ष के केंद्रीय बजट 2013-14 में यह प्रस्ताव किया गया था कि इस वर्ष केंद्रीय सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जाने वाली खाद्य सब्सिडी रु. 90,000 करोड़ के आसपास होगी।

लेकिन खाद्य सुरक्षा कानून के कार्यान्वयन के लिए इस वर्ष के लिए अपेक्षित वित्तीय संसाधनों का स्तर रु. 1,25,000 करोड़ तक होने का अनुमान है (जो कि देश के सकल घरेलू उत्पाद का करीब 1.25 प्रतिशत होगा), इसके अतिरिक्त, मध्याह्न भोजन योजना और समेकित बाल विकास सेवाएं योजना के लिए वर्तमान बजटीय प्रावधान भी कानून के कुछ प्रावधानों को पूरा करने के वास्ते उपयोग में लाए जाएंगे।

लेकिन कुछ पर्यवेक्षकों और नीति विश्लेषकों का कहना है कि खाद्य सुरक्षा कानून को जनसंख्या की कवरेज की दृष्टि से और अधिक समावेशी होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि इस कानून के दायरे में देश में कुल घरों का 80 प्रतिशत लाने का प्रयास किया गया होता (अर्थात केवल सर्वोच्च 20 प्रतिशत घरों को ही बाहर रखा जाता) और प्रतिमाह प्रति घर 35 किग्रा. खाद्यान्न का प्रावधान किया गया होता (अर्थात 3 रु. प्रति किग्रा. मूल्य पर चावल/2रु. प्रति किग्रा. मूल्य पर गेहूं/1रु. प्रति किग्रा. पर मोटा अनाज की दर से 30 किग्रा. चावल/गेहूं और 5 किग्रा. मोटा अनाज प्रति घर), तो खाद्यान्नों के प्रापण हेतु आर्थिक लागत के वर्तमान स्तरों पर, खाद्य सब्सिडी की राशि एक वर्ष में रु. 1,65,828 करोड़ होती। देश में भूख और कुपोषण की गंभीर समस्याओं और केंद्रीय सरकार के लिए अपना राजस्व बढ़ाने हेतु कदम उठाने की उपलब्ध संभावना के मद्देनजर, सरकार के लिए वास्तव में खाद्य सुरक्षा कानून के कवरेज का दायरा बढ़ाने की जरूरत है।

दरअसल वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट, 2012 में यह उल्लेख किया गया है कि ''भारत मज़बूत आर्थिक विकास के बावजूद, ग्रामीण भारत के लिए, अपने वैश्विक भूख सूचकांक में सुधार लाने में पीछे रह गया है।'' इसमें यह उल्लेख किया गया है कि करीब 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और आधी से अधिक गर्भवती महिलाएं एनीमिया से ग्रस्त हैं। इसके अतिरित अध्यादेश में केवल अनाज के वितरण पर ध्यान केन्द्रित किया गया है, जिससे भूख की समस्या तो दूर हो जाएगी, लेकिन हो सकता है कि ये कुपोषण कम करने में बहुत ज्यादा असरदार न हो।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए उपलब्ध कराया गया चावल, गेहूं और मोटा अनाज भूख से लड़ने के लिए कैलरीज प्रदान करेगा, परंतु एक स्वास्थ्यवर्धक भोजन में अनाजों के साथ-साथ दालें और उच्च मात्रा में विटामिन तथा खनिजों की आवश्यकता होती है।

इसी प्रकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली में नई जान फूंकने के लिए बुनियादी सुविधाओं (खाद्यान्नों के भंडारण और परिवहन आदि से संबंधित) में व्याप्त अंतर को भी पाटना होगा। साथ ही मध्याह्न भोजन योजना और समेकित बाल विकास योजना जैसी योजनाओं के उचित कार्यान्वयन के लिए केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों दोनों को और अधिक पर्याप्त कदम उठाने होंगे।

इसके बावजूद, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश में देश में भूख और कुपोषण की गंभीर चुनौतियों से निपटने की काफी संभावनाएं मौजूद हैं और इससे देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए केंद्रीय और राज्य सरकारों के सक्रिय उपायों से अपेक्षित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।

(लेखक: नई दिल्ली स्थित एक नीति अनुसंधान संगठन 'सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए)' से संबद्ध हैं।

ई-मेल: nilachala@cbgaindia।org

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