खाद्य सुरक्षा कानून के अमल में कोताही क्यों


भोजन न मिलने की वजह से देश में अब कोई भूखा नहीं मरेगा। अफसोस! इस कानून को बने तीन साल हो गए, मगर यह कानून आज भी पूरे देश के अंदर अमल में नहीं आ पाया है। नौ राज्यों के नागरिक भोजन का अधिकार कानून से वंचित हैं। केन्द्र सरकार द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद गुजरात समेत कुछ राज्यों की सरकारों ने अपने यहाँ इस महत्त्वपूर्ण कानून को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई है। यही वजह है कि अब सर्वोच्च न्यायालय को खुद आगे आना पड़ा है...

तत्कालीन यूपीए सरकार जब साल 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लेकर आई, तो यह उम्मीद बंधी थी कि इस विधेयक के अमल में आ जाने के बाद देश की 63.5 फीसद आबादी को कानूनी तौर पर तय सस्ती दर से अनाज का हक हासिल हो जाएगा। कानून के बनने के बाद हर भारतीय को भोजन मिलेगा। भोजन न मिलने की वजह से देश में अब कोई भूखा नहीं मरेगा। अफसोस! इस कानून को बने तीन साल हो गए, मगर यह कानून आज भी पूरे देश के अंदर अमल में नहीं आ पाया है। नौ राज्यों के नागरिक भोजन का अधिकार कानून से वंचित हैं। केन्द्र सरकार द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने के बावजूद गुजरात समेत कुछ राज्यों की सरकारों ने अपने यहाँ इस महत्त्वपूर्ण कानून को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई है। यही वजह है कि अब सर्वोच्च न्यायालय को खुद आगे आना पड़ा है।

कानून को लागू करने में हो रही देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपनी नाराजगी जताते हुए सख्त लफ्जों में कहा है कि क्या गुजरात भारत का हिस्सा नहीं है? क्या संसद का बनाया कानून गुजरात पर लागू नहीं होता? सूखाग्रस्त राज्यों में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, मनरेगा, मध्यान्ह भोजन जैसी गरीब हितैषी योजनाओं पर अमल में ढिलाई से खफा जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस आरके अग्रवाल की खंडपीठ ने सवाल उठाया कि क्या कोई राज्य सरकार इस तरह से संसद से पारित कानून को लागू करने से इनकार कर सकती है? जाहिर है कि अदालत के सभी सवाल और चिंताएं वाजिब हैं। इन राज्यों में वंचित तबकों को कुपोषण और भुखमरी से निजात दिलाने के लिये इस कानून का अमल में आना बेहद जरूरी है।

यह कोई पहली बार नहीं है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने समाज कल्याण से सम्बन्धित कानूनों मनरेगा, खाद्य सुरक्षा कानून और मध्यान्ह भोजन योजनाओं के कार्यान्वयन के बारे में केन्द्र सरकार से जवाब तलब किया हो, बल्कि इससे पहले भी पिछले महीने 18 जनवरी को केन्द्र से अदालत ने जानना चाहा था कि जिन राज्यों में यह कानून लागू नहीं हुआ है, क्या वहाँ प्रभावितों को न्यूनतम आवश्यक रोजगार और आहार उपलब्ध कराया जा रहा है? जाहिर है कि अदालत के बार-बार आगाह किए जाने के बाद भी जब सरकार नहीं जागी, तब जाकर अदालत को सख्त रुख अख्तियार करना पड़ा। खास तौर पर अदालत, गुजरात सरकार के रवैए से ज्यादा खफा थी। लिहाजा गुजरात पर ही उसने सख्त टिप्पणी की। अदालत का कहना था कि खाद्य सुरक्षा कानून, पूरे भारत के लिये है और गुजरात है कि इसका कार्यान्वयन नहीं कर रहा है। कल कोई कह सकता है कि वह आपराधिक दंड संहिता, भारतीय दंड संहिता और प्रमाण कानून को लागू नहीं करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिसमें इल्जाम लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और चंडीगढ़ सूखा प्रभावित हैं, लेकिन इनमें से आधे राज्यों मसलन बिहार, गुजरात और हरियाणा ने अपने आप को सूखाग्रस्त घोषित नहीं किया है। वहीं उत्तर प्रदेश ने अपने कुछ इलाकों को ही सूखाग्रस्त घोषित किया है। इन राज्यों में सक्षम प्राधिकारी समुचित राहत उपलब्ध नहीं करा रहे हैं। गैर सरकारी संगठन ‘स्वराज अभियान’ की ओर से दाखिल इस याचिका में सर्वोच्च न्यायालय से खास तौर पर पूरे देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की मांग की गई है।

याचिका में इसके अलावा सरकार से और भी कई मांगें हैं, मसलन सूखा प्रभावित किसानों को फसल के नुकसान की स्थिति में समय पर और समुचित मुआवजा दिया जाए। बहरहाल, याचिका की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने इस सम्बन्ध में गुजरात सरकार से तो जवाब तलब किया ही, हरियाणा सरकार से भी पूछा कि उन्होंने अपने प्रदेश को अभी तक सूखाग्रस्त राज्य क्यों घोषित नहीं किया? वहीं उत्तरप्रदेश सरकार से अदालत का सवाल था कि आखिर बुंदेलखण्ड को अब तक सूखा प्रभावित घोषित क्यों नहीं किया गया है?

देश के कई राज्यों में इस साल भयंकर सूखा पड़ा है। सूखा प्रभावित राज्यों में उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ शामिल हैं। सूखे की वजह से इन राज्यों में ग्रामीण गरीबों के लिये उपलब्ध कृषि सम्बन्धी रोजगार में बेहद कमी आई है। इन लोगों को एक तरफ मनरेगा में काम नहीं मिल पा रहा है, तो दूसरी तरफ भोजन का अधिकार कानून लागू न होने की वजह से वे सस्ते अनाज से भी वंचित हैं। जाहिर है, ऐसे विषम हालात में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने नागरिकों की आर्थिक सुरक्षा के लिये विशेष प्रयास करें ताकि उन्हें भूखा न रहना पड़े। लेकिन अपने दायित्वों के निर्वाह में केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ही नाकाम रही हैं।

सरकार की घोर उपेक्षा की वजह से इन राज्यों में लोगों को खासी परेशानियाँ झेलना पड़ रही हैं। यहाँ तक कि उनका जीवन संकट में है। जबकि हमारे संविधान का अनुच्छेद-21 देश के हर नागरिक को जीने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। वहीं अनुच्छेद-14 के तहत उन्हें कानून के समक्ष समानता की भी गारण्टी हासिल है। यह अनुच्छेद देश की सीमाओं के अंदर सभी व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करता है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को अपने यहाँ लागू न करके, राज्य सरकारें लोगों के बुनियादी अधिकारों की अवहेलना कर रही हैं। भोजन का अधिकार कानून, संसद के अंदर सर्वसम्मति से पारित किया गया था और तत्कालीन केन्द्र सरकार ने देश के सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों से इस कानून को अपने-अपने यहाँ लागू करने के लिये उन्हें पूरा एक साल का समय दिया था। वह भी इसलिए कि कानून का फायदा किसको मिले और किसको नहीं, लाभ प्राप्तकर्ताओं का आखिरी फैसला राज्य सरकार को ही करना था। एक साल की बात छोड़ो, कानून को बने तीन साल से ज्यादा हो गए, लेकिन आज भी कई राज्य सरकारें अपने यहाँ इस कानून को लागू करने में संजीदा नहीं हैं। केन्द्र सरकार, कानून को लागू करने की समय सीमा तीन बार बढ़ा चुकी है। आखिरी समय सीमा 30 सितंबर, 2015 तय की गई थी, लेकिन इस समय सीमा में भी काम आगे नहीं बढ़ा है।

कुछ राज्य सरकारें अभी भी अपने यहाँ इस कानून को लागू करने के लिये और वक्त मांग रही है। बार-बार समय सीमा बढ़ाए जाने के बाद भी जब राज्य सरकारें नहीं जागीं, तो पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने इन राज्यों को सख्त लहजे में चेतावनी देते हुए यहाँ तक कह दिया था कि अब इस मामले में किसी भी राज्य या केन्द्रशासित प्रदेश को कोई रियायत नहीं मिलेगी। जो राज्य अपने यहाँ इस कानून को लागू करने में नाकामयाब रहे हैं, उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत केन्द्र द्वारा दिया जाने वाला एपीएल और बीपीएल परिवारों के लिये अतिरिक्त खाद्यान्न का आवंटन रोक दिया जाएगा। उन्हें इस मद में केन्द्र की ओर से कोई खाद्यान्न या रकम नहीं मिलेगी। सरकार का यह फैसला सही भी है। जब तलक सरकार इस दिशा में कोई सख्त कदम नहीं उठाएगी, तब तक राज्य सरकारें इस कानून को यूँ ही लटकाए रखेंगी। जिसका खामियाजा इन राज्यों की गरीब जनता को भुगतना पड़ेगा। बहरहाल, अब इस मामले में अगली सुनवाई 12 फरवरी को होगी।

इससे पहले केन्द्र सरकार को 10 फरवरी तक एक हलफनामा दायर कर अदालत को यह बतलाना होगा कि उसने और तमाम राज्य सरकारों ने अपने-अपने यहाँ सूखे से निबटने के लिये क्या उपाय किए हैं? कोई भी लोककल्याणकारी सरकार अपने कमजोर तबकों की भलाई के लिये कल्याणकारी योजनाएँ, कानून बनाने और आपदा के समय राहत मुहैया कराने का काम करती है। समाज कल्याण से सम्बन्धित कानून मसलन खाद्य सुरक्षा और मनरेगा जोकि संसद में सर्वसम्मति से पारित हुए हैं, इन कानूनों पर कोई राज्य सरकार यह कह कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि वह जब चाहेगी, तब यह कानून अपने यहाँ लागू करेगी।

इन कानूनों पर अमल ऐच्छिक नहीं है। जैसे आपराधिक न्याय व्यवस्था पर कोई समझौता नहीं हो सकता, वैसी ही स्थिति संसद से पारित कल्याणकारी कानूनों की भी है। कोई राज्य यदि अपने यहाँ इन कानूनों को लागू करने में कोताही बरत रहा है तो निश्चित तौर पर वह संसद की सर्वोच्चता से भी सीधे-सीधे इनकार कर रहा है। सरकार जिस गम्भीरता से कानून बनाने का काम करती है, वैसी ही गम्भीरता से उसे इन कानूनों को देश के अंदर सभी जगह लागू करवाने की कोशिश करनी चाहिए। वरना कानून का फायदा सभी देशवासियों को कैसे मिल पाएगा?

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