दो दशक पहले तक गंगा पानी से लबालब रहने वाली बारहमासी नदी थी। 2,525 किलोमीटर लम्बी इस नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी हिमालय है। इसका कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 10,80,000 वर्ग किलोमीटर है। इनमें से 8,61,000 वर्ग किलोमीटर भारत में है और शेष बांग्लादेश में। गंगा का औसत वार्षिक बहाव लगभग 38,000 घनमीटर प्रति सेकेंड (अधिकतम 70,000 घनमीटर और न्यूनतम 180 घनमीटर प्रति सेकेण्ड) है।
गंगा नदी को इस अधोगति से मुक्ति दिलाने के लिए 1985 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ की शुरुआत हुई थी। इस परियोजना का उद्देश्य व्यापक था। गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के कई कारण रहे हैं। नदी से सम्बन्धित तकनीकी ज्ञान और गंगा से सम्बन्धित आँकड़ों की कमी है। उपलब्ध आँकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता रहा है। भारत और बांग्लादेश में रहने वाले करीब 50 करोड़ लोगों के लिए गंगा नदी जीवन रेखा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गंगा नदी को माँ कहने वाले इनके धर्म-पुत्रों ने ही नदी को प्रदूषित कर दिया है। अब स्थिति यह है कि गंगा में प्रदूषण की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यह दुनिया की छठी सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। इसकी सबसे बड़ी वजह नदी में जल-मल का प्रवाह तो है ही, साथ ही औद्योगिक कचरे का लगातार गंगा में गिरना है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गंगा और इसकी सहायक नदियों पर बने बांधों के कारण इसके कुल जल-बहाव में काफी कमी आ गई है।
परिणाम यह हुआ कि गंगा की लवणता में भारी वृद्धि हो गई है। आज स्थिति यह है कि गंगा नदी का जल पीने और स्नान करने के लायक तो नहीं ही रह गया है, खेती के लिए भी इसके जल के उपयोग पर सवाल उठने लगे हैं। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि गंगा के जल को अनेक स्थानों पर किसी भी उपयोग में आने योग्य नहीं पाया गया है। इस अध्ययन में इसके जल को चार श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी है- पीने योग्य पानी। दूसरी- स्नान करने योग्य। तीसरी- सिंचाई योग्य और चौथी- किसी भी उपयोग में नहीं लाने योग्य। यह वर्गीकरण मुख्य रूप से कॉलीफार्म की उपस्थिति के आधार पर किया गया है।
गंगा नदी को इस अधोगति से मुक्ति दिलाने के लिए 1985 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ की शुरुआत हुई थी। इस परियोजना का उद्देश्य व्यापक था। प्रदूषण को घटाकर गंगा के जल की गुणवत्ता को बढ़ाना तो था ही, साथ ही जैव विविधता का संरक्षण और नदी बेसिन का समेकित विकास इसका लक्ष्य निर्धारित किया गया था। वहीं प्राप्त अनुभव का दूसरी प्रदूषित नदियों पर उपयोग किया जाना था। दुर्भाग्य से इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका। लगभग एक हजार करोड़ रुपए खर्च होने के बावजूद गंगा नदी के प्रदूषण स्तर को कम नहीं किया जा सका। इससे उलट परिणाम यह आया कि गंगा का प्रदूषण स्तर और बढ़ गया।
वाराणसी के घाटों पर प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। यहाँ के जल का बायोलॉजिकल आॅक्सीजन डिमाण्ड 25 मिली ग्राम प्रति लीटर हो गया है। सामान्य जल में यह प्रति लीटर तीन मिलीग्राम से कम होना चाहिए। इसके 15 मिलीग्राम से अधिक होने पर जल को अत्यधिक प्रदूषित माना जाता है। इसी प्रकार ‘फीकल कॉलीफार्म’ स्तर प्रति 100 मिलीलीटर में न्यूनतम सम्भावित संख्या 70 हजार से 15 लाख है। प्रति 100 मिलीलीटर में 200 कॉलोनीज से अधिक होते ही उस जल को प्रदूषित माना जाता है। गंगा में मल-जल को सीधे गिराया जाना इसका मूल कारण है। केवल हरिद्वार में ही 3.7 करोड़ लीटर और इसके किनारे बसे 12 बड़े शहरों से प्रतिदिन 8.9 करोड़ लीटर मल-जल गंगा नदी में गिरता है। गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,510 किलोमीटर की यात्रा में गंगा को कुल करीब एक अरब लीटर मल-जल ढोना पड़ रहा है।
गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के बाद फरवरी 2009 में नदियों के संरक्षण के लिए नीतियाँ बनाई गईं। इसके तहत राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का भी गठन किया गया। इस शक्ति सम्पन्न प्राधिकरण को कार्य योजना के आर्थिक नियोजन, जाँच-पड़ताल और समन्वय का कार्य सौंपा गया। इसका उद्देश्य भी गंगा नदी के प्रदूषण को कम करना और गंगा का संरक्षण सुनिश्चित करना था। पूरे नदी बेसिन के लिए यह एक समावेशी योजना की पेशकश थी। गंगा की सहायक नदी यमुना के लिए भी 2009 में एक कार्य योजना तैयार की गई। इसके लिए उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा को बड़ी राशि प्रदान की गई। इस योजना को तीन चरणों में पूरा किया जाना था। पहले दो चरणों में 40 मल-जल शुद्धिकरण प्लांट लगाए जाने थे। इन प्लांटों में 90 करोड़ लीटर मल-जल प्रतिदिन शुद्ध होना था। इन योजनाओं के कार्यान्वयन के बाद भी यमुना नदी के जल प्रदूषण में कोई कमी नहीं आई है। फिर 2011 में जापान की मदद से तीसरे चरण के लिए 1,656 करोड़ रुपए की योजना बनाई गई।
आज गंगा की सफाई अभियान के 30 वर्ष बीत चुके हैं। इसके बावजूद नदी में प्रदूषण की मात्रा लगातार बढ़ती गई है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण परिषद के हालिया आँकड़े बताते हैं कि गंगा के उद्गम स्थल को छोड़कर पूरी नदी में ‘फीकल कॉलीफार्म’ की मात्रा खतरे की सीमा से काफी ऊपर है। इसका जल मानव उपयोग के लिए वर्जित है। योजना के दायरे में जो भी ढाँचागत विकास किया गया, वह भी अब मृतप्राय हो चुका है।
गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के कई कारण रहे हैं। नदी से सम्बन्धित तकनीकी ज्ञान और गंगा से सम्बन्धित आँकड़ों की कमी है। उपलब्ध आँकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता रहा है। गंगा में विभिन्न स्थानों से प्रवाहित मल-जल की मात्रा एवं प्रदूषण सम्बन्धी जानकारी का भी अभाव है। गंगा एक्शन प्लान से जुड़े अधिकारियों का बार-बार स्थानान्तरण और घोर भ्रष्टाचार विफलता के कारणों में शामिल हैं। हमें यह समझना होगा कि गंगा को एक भौतिक इकाई के रूप में जाने बगैर बनाई गई योजना कभी सफल नहीं हो सकती। केवल आरती उतारने से गंगा शुद्ध होने वाली नहीं है।
लेखक जल विज्ञान विशेषज्ञ हैं।
गंगा नदी को इस अधोगति से मुक्ति दिलाने के लिए 1985 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ की शुरुआत हुई थी। इस परियोजना का उद्देश्य व्यापक था। गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के कई कारण रहे हैं। नदी से सम्बन्धित तकनीकी ज्ञान और गंगा से सम्बन्धित आँकड़ों की कमी है। उपलब्ध आँकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता रहा है। भारत और बांग्लादेश में रहने वाले करीब 50 करोड़ लोगों के लिए गंगा नदी जीवन रेखा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गंगा नदी को माँ कहने वाले इनके धर्म-पुत्रों ने ही नदी को प्रदूषित कर दिया है। अब स्थिति यह है कि गंगा में प्रदूषण की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि यह दुनिया की छठी सर्वाधिक प्रदूषित नदी है। इसकी सबसे बड़ी वजह नदी में जल-मल का प्रवाह तो है ही, साथ ही औद्योगिक कचरे का लगातार गंगा में गिरना है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गंगा और इसकी सहायक नदियों पर बने बांधों के कारण इसके कुल जल-बहाव में काफी कमी आ गई है।
परिणाम यह हुआ कि गंगा की लवणता में भारी वृद्धि हो गई है। आज स्थिति यह है कि गंगा नदी का जल पीने और स्नान करने के लायक तो नहीं ही रह गया है, खेती के लिए भी इसके जल के उपयोग पर सवाल उठने लगे हैं। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि गंगा के जल को अनेक स्थानों पर किसी भी उपयोग में आने योग्य नहीं पाया गया है। इस अध्ययन में इसके जल को चार श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी है- पीने योग्य पानी। दूसरी- स्नान करने योग्य। तीसरी- सिंचाई योग्य और चौथी- किसी भी उपयोग में नहीं लाने योग्य। यह वर्गीकरण मुख्य रूप से कॉलीफार्म की उपस्थिति के आधार पर किया गया है।
गंगा नदी को इस अधोगति से मुक्ति दिलाने के लिए 1985 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ की शुरुआत हुई थी। इस परियोजना का उद्देश्य व्यापक था। प्रदूषण को घटाकर गंगा के जल की गुणवत्ता को बढ़ाना तो था ही, साथ ही जैव विविधता का संरक्षण और नदी बेसिन का समेकित विकास इसका लक्ष्य निर्धारित किया गया था। वहीं प्राप्त अनुभव का दूसरी प्रदूषित नदियों पर उपयोग किया जाना था। दुर्भाग्य से इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका। लगभग एक हजार करोड़ रुपए खर्च होने के बावजूद गंगा नदी के प्रदूषण स्तर को कम नहीं किया जा सका। इससे उलट परिणाम यह आया कि गंगा का प्रदूषण स्तर और बढ़ गया।
वाराणसी के घाटों पर प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। यहाँ के जल का बायोलॉजिकल आॅक्सीजन डिमाण्ड 25 मिली ग्राम प्रति लीटर हो गया है। सामान्य जल में यह प्रति लीटर तीन मिलीग्राम से कम होना चाहिए। इसके 15 मिलीग्राम से अधिक होने पर जल को अत्यधिक प्रदूषित माना जाता है। इसी प्रकार ‘फीकल कॉलीफार्म’ स्तर प्रति 100 मिलीलीटर में न्यूनतम सम्भावित संख्या 70 हजार से 15 लाख है। प्रति 100 मिलीलीटर में 200 कॉलोनीज से अधिक होते ही उस जल को प्रदूषित माना जाता है। गंगा में मल-जल को सीधे गिराया जाना इसका मूल कारण है। केवल हरिद्वार में ही 3.7 करोड़ लीटर और इसके किनारे बसे 12 बड़े शहरों से प्रतिदिन 8.9 करोड़ लीटर मल-जल गंगा नदी में गिरता है। गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,510 किलोमीटर की यात्रा में गंगा को कुल करीब एक अरब लीटर मल-जल ढोना पड़ रहा है।
गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के बाद फरवरी 2009 में नदियों के संरक्षण के लिए नीतियाँ बनाई गईं। इसके तहत राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का भी गठन किया गया। इस शक्ति सम्पन्न प्राधिकरण को कार्य योजना के आर्थिक नियोजन, जाँच-पड़ताल और समन्वय का कार्य सौंपा गया। इसका उद्देश्य भी गंगा नदी के प्रदूषण को कम करना और गंगा का संरक्षण सुनिश्चित करना था। पूरे नदी बेसिन के लिए यह एक समावेशी योजना की पेशकश थी। गंगा की सहायक नदी यमुना के लिए भी 2009 में एक कार्य योजना तैयार की गई। इसके लिए उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा को बड़ी राशि प्रदान की गई। इस योजना को तीन चरणों में पूरा किया जाना था। पहले दो चरणों में 40 मल-जल शुद्धिकरण प्लांट लगाए जाने थे। इन प्लांटों में 90 करोड़ लीटर मल-जल प्रतिदिन शुद्ध होना था। इन योजनाओं के कार्यान्वयन के बाद भी यमुना नदी के जल प्रदूषण में कोई कमी नहीं आई है। फिर 2011 में जापान की मदद से तीसरे चरण के लिए 1,656 करोड़ रुपए की योजना बनाई गई।
आज गंगा की सफाई अभियान के 30 वर्ष बीत चुके हैं। इसके बावजूद नदी में प्रदूषण की मात्रा लगातार बढ़ती गई है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण परिषद के हालिया आँकड़े बताते हैं कि गंगा के उद्गम स्थल को छोड़कर पूरी नदी में ‘फीकल कॉलीफार्म’ की मात्रा खतरे की सीमा से काफी ऊपर है। इसका जल मानव उपयोग के लिए वर्जित है। योजना के दायरे में जो भी ढाँचागत विकास किया गया, वह भी अब मृतप्राय हो चुका है।
गंगा एक्शन प्लान की घोर विफलता के कई कारण रहे हैं। नदी से सम्बन्धित तकनीकी ज्ञान और गंगा से सम्बन्धित आँकड़ों की कमी है। उपलब्ध आँकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाता रहा है। गंगा में विभिन्न स्थानों से प्रवाहित मल-जल की मात्रा एवं प्रदूषण सम्बन्धी जानकारी का भी अभाव है। गंगा एक्शन प्लान से जुड़े अधिकारियों का बार-बार स्थानान्तरण और घोर भ्रष्टाचार विफलता के कारणों में शामिल हैं। हमें यह समझना होगा कि गंगा को एक भौतिक इकाई के रूप में जाने बगैर बनाई गई योजना कभी सफल नहीं हो सकती। केवल आरती उतारने से गंगा शुद्ध होने वाली नहीं है।
लेखक जल विज्ञान विशेषज्ञ हैं।
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