क्यों मचा सूखे का कोहराम

मौसम की बेरुखी पर कोहराम मचा है। इसके बाद भी पंजाब, हरियाणा जैसे कई राज्यों में बासमती धान की अधिकांश रोपाई हो चुकी है। इन हालात में किसान किस तरह की फसलों को लगाएं ताकि उन्हें कम लागत में भरण-पोषण के लायक पैसा मिल जाए। इस मसले पर प्रकाश डालती विशेषज्ञों से वार्ता पर आधारित दिलीप कुमार यादव की रिपोर्ट।

.सूखे पर सरकार और मौसम विज्ञानियों का कोहराम किसानों को परेशान कर रहा है। इस समस्या से उबरने के तरीकों पर कोई ठोस बात अभी तक निकल कर सामने नहीं आई है। बरसात की कमी का सर्वाधिक असर धान की खेती वाले राज्यों पर होगा, लेकिन क्या हमारी धान की जरूरत इतनी ज्यादा है कि हमारे खाने के लिए इसकी पूर्ति नहीं होगी। सवाल यह उठता है कि देश में उगाए धान का कितना हिस्सा हम विदेशों को भेजते हैं? कम पानी में होने वाली दाल, तिल आदि की कितनी मात्रा हम विदेशों से आयात करते हैं? यदि धान का रकबा आधा भी रह जाए, तब भी देश में चावल की कमी नहीं होगी और दलहन का क्षेत्रफल बढ़ जाए तो हमें इन्हें विदेशों से नहीं मंगाना पड़ेगा। मसलन जितना पैसा हमें धान के निर्यात से मिलता है, उतने की बचत दालों और तिलहन के आयात करने के हालात से बच कर हो सकती है।

अलनीनो का असर मौसम पर होगा। इसे लेकर देश में हर तरफ चिंता का माहौल है। इधर, धान की खेती करने वाले किसानों ने इराक संकट और मौसम की बेरुखी के चलते फसल को बचाने के लिए डीजल का भण्डारण शुरू कर दिया है। यह स्थिति किसी मायने में ठीक नहीं है। इससे किसानों को बेहद दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। बचाव के लिए किसान संभावित प्रभावित इलाकों में धान की रोपाई का क्षेत्रफल कम करके भी काम चला सकते हैं, लेकिन जरूरत उन्हें इस ओर प्रेरित करने की है। यह काम सरकारी महकमों का है।

चिंता का विषय बरसात के पैटर्न को लेकर है। अलनीनो के चलते बरसात कितने अंतराल पर और कितनी कमजोर या तेज होगी, इसका असर भी फसलों पर पड़ेगा। यदि बरसात होने का अंतराल ज्यादा बढ़ गया तो ढेंचा, बाजरा, ग्वार, अरहर, कपास जैसी कई फसलों के उत्पादन पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।

पूसा संस्थान, नई दिल्ली के धान के प्रजनक वैज्ञानिक डॉ. ए.के. सिंह ने बताया कि गुजरे साल 35 हजार करोड़ रु. का बासमती चावल विदेशों को निर्यात किया गया। देश में बासमती का क्षेत्रफल दो मिलियन हेक्टेयर रहा था, जिसकी इस बार भी बहुत ज्यादा कम होने की संभावना नहीं है। वर्तमान हालात में भी पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धान की रोपाई पर मौसम का कोई खास असर नहीं है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिक्कत आएगी। लंबी अवधि की परंपरागत बासमती में थोड़ी दिक्कत हो सकती है। उनकी मानें तो पूर्वी यूपी, झरखंड, बिहार, उड़ीसा पर कमजोर मानसून का असर होगा।

सरसों अनुसंधान निदेशालय के निदेशक डॉ. धीरज सिंह के अनुसार अलनीनो का असर होगा, लेकिन कितना होगा, यह अभी भविष्य के गर्त में है। इसका किस इलाके पर कितना असर होगा, यह देखने वाली बात है। इसे लेकर किसान सिर्फ इतना कर सकते हैं कि कम पानी की जरूरत वाली फसलों को प्राथमिकता दें।

सीमैट के दक्षिण एशिया कॉर्डिनेटर डॉ. राजगुप्ता की मानें तो गन्ना, धान, सिंघाड़ा जैसी चंद फसलें हैं, जिन्हें ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। खरीफ की बाकी फसलों को ज्यादा पानी की आवश्यक्ता नहीं होती, लेकिन एक या दो पानी जब भी जरूरी होते हैं, समय पर मिल जाने चाहिए।

ग्वार, मूंग, बाजरा, ज्वार, मक्का, तिल, कपास, अरहर सहित अनेक फसलें हैं, जिन्हें कम पानी में लिया जा सकता है। हमारी बुआई का तरीका यह है कि पहले हम पानी देते हैं, फिर उसको सुखा देते हैं। इसके बाद बुआई करते हैं। पानी की कमी में यह तरीका काम नहीं करेगा। धान की सीधी बुआई करें और बाद में पानी दें। गहराई ज्यादा न हो, इस बात का ध्यान रखें। जून में मानसून का असर दिख चुका है।जुलाई में इसके कमजोर रहने की इतनी ज्यादा संभावना नहीं लगती। वह जबलपुर में 600 एकड़ फॉर्म पर धान की सीधी बुआई करा चुके हैं।

सूखे में करें तिल की खेती


.तिल की खेती किसानों ने करनी छोड़ दी है। इतना ही नहीं, पहले बाजरा जैसी फसलों के साथ लोग तिल के चंद कूंड़ देकर खुद की जरूरत के लिए तिल उगाया करते थे, लेकिन नीलगायों द्वारा नुकसान किए जाने के कारण लोगों ने इस तरीके को भी बंद कर दिया है। इसी का नतीजा है कि इस बार तिल बाजार में बेहद महंगा रहा। कमजोर मानसून की स्थिति में तिल की खेती अच्छा मुनाफा दे सकती है।

फसल की बुआई हेतु खेत की तैयारी कर लें। इसके बाद तैयार खेत में 2 से 2.5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला दें। जुलाई के पहले सप्ताह में मानसून की पहली वर्षा होते ही बुआई कर दें। ग्वार व मूंग के साथ कतारों में बोने से अधिक उपज व आमदनी होती है।

बीज को तीन ग्राम थीरम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर उपचारित करने के बाद एजैटोबैक्टर कल्चर से उपचारित करके बोयें। एक हेक्टेयर बीज हेतु 2-3 पैकेट कल्चर पर्याप्त है। शाखा वाली किस्में आर टी 46, आर टी 125, आरटी 127, प्रगति (एमटी-75), टाइप-13 और टीसी-25 शाखा रहित प्रताप (सी 50) जैसी अनेक किस्में हैं। पूसा एवं अन्य विश्वविद्यालयों की कई किस्में भी उपलब्धता के आधार पर बोई जा सकती हैं।

शाखा वाली किस्मों की बुआई हेतु 2.5 किलोग्राम बीज एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए पर्याप्त होता है, जबकि शाखा रहित किस्मों की बुआई हेतु 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त रहता है। शाखा वाली किस्मों की बुआई में कतार से कतार की दूरी 30-35 सेंटीमीटर तथा पौधों से पौधों की दूरी 15 सेंटीमीटर रखें, जबकि शाखा रहित किस्मों की बुआई में कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधों से पौधों की दूरी 10-15 सेंटीमीटर रखें।

1. डीएपी या एसएसपी की पूरी मात्रा एवं यूरिया की आधी मात्रा आखिरी जुताई के साथ दे दें।
2. यूरिया की आधी मात्रा बुआई के 25 दिन के बाद खड़ी फसल में दें।
3. आखिरी जुताई के समय 50 किलोग्राम डीएपी अथवा 150 किलोग्राम एसएसपी+25 किलोग्राम यूरिया दें।
4. बुआई के 25 दिन के बाद या बुआई के 4-5 सप्ताह बाद हल्की बारिश के समय 25 किलोग्राम यूरिया खड़ी फसल में बुरक दें।

कम पानी में अच्छा पैसा दे ग्वार


.दलहनी फसलों में ग्वार एक मुख्य फसल है। इसमें लागत कम आती है और बेचने में भी किसी तरह का जोखिम नहीं रहता। विश्व में इसका 80 फीसदी से ज्यादा उत्पादन अकेले भारत में होता है। इसके 50 से ज्यादा औद्योगिक उपयोग हैं। कमजोर मानसून में इससे बेहतरीन कोई दूसरी फसल नहीं हो सकती।

राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इसकी खेती होती है। इसमें रोग भी बहुत ज्यादा नहीं लगते। बीज शोधन किया जाए तो इनसे भी बचा जा सकता है। ग्वार की दो तरह की किस्में बाजार में मिलती हैं। पहली कम समय में पकने वाली, दूसरी लंबी अवधि की किस्में। कम समय वाली किस्में 85 से 90 दिन लेती हैं, वहीं लंबी अवधि वाली किस्में 110 से 120 दिन का समय लेती हैं।

कम समय में पकने वाली उन्नत किस्मों में आरएसजी 936, 1002,1003, 1017,1055 हैं। इन्हें किसान अभी लगा सकते हैं। यह सभी किस्में राजस्थान राज्य की हैं। इनका उत्पादन अन्य राज्यों में भी अच्छा मिल रहा है। लंबी अवधि की किस्मों में आरएसजी 986, 1031, 1042 से उत्पादन अच्छा मिलता है।

खुशहाली देगी मूंग की खेती


.मौसम की बेरुखी में मूंग की खेती भी मुनाफे का सौदा हो सकती है। कम लागत और पानी की जरूरत वाली यह फसल इस समय भी लगाई जा सकती है। दलहन की खेती की तरफ किसानों का रुझन कम होने के कारण दालों की कीमत बाजार में ठीक-ठाक ही चल रही हैं। बदलते मौसम के किसाब से किसानों को भी अपना मन बदलना होगा।

मूंग की फसल की बुआई हेतु खेत की तैयारी कर लें। जुलाई के पहले सप्ताह में मानसून की पहली वर्षा होते ही बुआई कर दें। बीज को 2 ग्राम कार्बेनेडेजिम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें। उपचारित करने के बाद राइजोबियम कल्चर से उपचारित करके बोएं एक हेक्टेयर बीज हेतु 2- 3 पैकेट कल्चर पर्याप्त रहता है। दलहनी फसलों में इन कल्चरों का प्रयोग बेहद कारगर पाया गया है।

बीज की बुआई से पहले यह तय कर लें कि खेत में मूंग के बाद कौन सी फसल लेनी है? उसी के हिसाब से किस्म का चयन करें। मूंग की 60 दिन में पकने वाली किस्में भी हैं और लंबी अवधि की किस्में भी बाजार में मौजूद हैं। एचएमएम-16, 851, गंगा, 8 (गंगोत्री), गंगा 1 (जमनोत्री), एमयूएम 2, आरएमजी 268, एमएमएल-668 और पूसा वैसाखी किस्म इस समय लगाई जा सकती है। बुआई हेतु 15- 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त है। बुआई में कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 10-12 सेंटीमीटर रखें। डीएपी यूरिया या एसएसपी की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के साथ दे दें। 85 किलोग्राम डीएपी अथवा किलोग्राम एसएसपी +35 किलोग्राम यूरिया दें।

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