दुनिया के समस्त जीव हमारे साथी हैं, तथा उन्हें भी इस दुनिया में रहने का अधिकार है। वर्तमान पीढ़ी भविष्य की ट्रस्टी है जिसका यह उत्तरदायित्व है कि प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखें। प्राकृतिक संसाधन संभ्रांत वर्ग की विलासिता के लिए वस्तुओं का ढेर नहीं है इनकी तो इज्जत करनी है ताकि भविष्य में भी मनुष्य और जैविक दुनिया जिंदा रह सके। तेजी से नष्ट होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों की प्रक्रिया में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है तथा इसके प्रति चिंता गहरा जाना स्वाभाविक है। “अनुदानों से लाभान्वित लोग चाहे वे कागज के कारखानेदार हो, जिन्हें बाजार भाव से एक हजार गुना कम भाव पर बांस मिल रहा हो या शहर में रहने वाले लोग हो, जिन्हें पानी उसकी वास्तविक लागत से 50 गुना कम भाव पर मिल रहा हो या कि बड़े किसान हो जिन्हें बिजली उसकी पैदावार की कीमत से 20 गुना कम पर मिल रही हो”, ये सब लोग मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों को अपनी अकुशलता और फिजूलखर्ची के कारण समाप्त करते चले जा रहे हैं।
प्राकृतिक संसाधनों की इन फिजूलखर्चियों को चूंकि तत्काल भुगतान नहीं पड़ता इसलिए उनमें मितव्ययिता की कोई इच्छा नहीं होती। लाभ प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है और इन लाभान्वित विशिष्ट लोगों, नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों का एक गठजोड़ बन जाता है जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा शोषण करते रहते हैं।
उपरोक्त उस घोषणा-पत्र के अंश हैं, जो जुलाई ‘89 के दूसरे सप्ताह में नागपुर की एक बैठक में बनाया गया है। देश में एक हरित मंच (ग्रीन फ्रंट) बने इसकी चर्चा उन लोगों में चल रही है जो बिगड़ते पर्यावरण और विस्थापना से उत्पन्न समस्याओं और विकास की वर्तमान पद्धतियों के दुष्परिणामों से चिंतित हैं। मार्च के महीने में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के सुदूर अंचल में इंद्रावती के किनारे बसे हेमलकसा में एक बैठक हुई थी बैठक में मुख्य रूप से वे क्रियाशील (एक्टिविस्ट) लोग थे जो बड़े बांधों से उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। बैठक में बाबा आमटे एवं ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की नेता सुश्री मेधा पाटकर के अलावा बंजर भूमि विकास बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष श्रीमति कमला चौधरी “प्रिया” के श्री राजेश टंडन, “लोकायन” के श्री स्मितु कोठारी, “समाज परिवर्तन समुदाय”, धारवाड़ के श्री एस.आर. हीरेमठ आदि समाज-वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। इस बैठक के निर्णयानुसार एक छोटी कमेटी ने उपरोक्त घोषणा-पत्र का मसविदा तैयार किया है। इसे तैयार करने में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस, बंगलौर के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. माधव गाडगिल का प्रमुख हाथ है। अभी यह मसविदा अंतिम नहीं है। देश के करीब 60 ऐसे वैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों को जो बिगड़ते हुए पर्यावरण से चिंतित हैं या इसकी रोकथाम की मैदानी लड़ाई में लगे हैं, इसे विचारार्थ भेजा गया है। आशा की जाती है कि एक माह में उपरोक्त अपनी प्रतिक्रियाएं भेज सकेंगे तथा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पुनः महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के आनंन्दवन में एक बड़ी बैठक होगी। घोषणा-पत्र में जो आधारभूत सिद्धांत तय होंगे उनके आधार पर क्या देश में एक “हरित मंच” बन सकता है, तथा यदि हां, तो फिर उसका स्वरूप कैसा हो, इस पर विचार करने के लिए ऐसे स्वयंसेवी संगठनों, मैदानी समूहों और व्यक्तियों का शीघ्र ही एक सम्मेलन भी होगा।
उपरोक्त मसविदा कहता है कि इस समय देश के समक्ष जो समस्याएं हैं उनमें तीन प्रमुख हैं। पहली है, प्राकृतिक संसाधन, जैसे जंगल और पानी का भारी दुरुपयोग, जैविक विभिन्नताओं का नाश और ओजोन छतरी तक का प्रदूषण। दूसरी है, बढ़ती हुई सामाजिक एवं आर्थिक विषमता तथा तीसरी बड़े पैमाने पर विशेषतः ग्रामीण इलाकों में पूर्ण तथा अर्द्ध-बेराजगारी जिसका नतीजा यह है कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ता ही जा रहा है। मसविदा आगे कहता है कि ये समस्याएं इस प्रक्रिया से जुड़ी है, जो शहरों, उद्योगों और सघन खेती (इंटेन्सिव कल्टिवेशन) को बहुत ही सस्ती कीमत पर प्राकृतिक संसाधन मुहैया करती है, जिसकी भारी कीमत गांवों और जंगलों को चुकानी पड़ती है। विडंबना यह है कि यह होता है राज्य की शक्तिशाली मशीनरी के बल पर।
बड़े बांध, आण्विक संस्थान, यूकेलिप्टस लगाए जाने, पानी के प्रदूषण, जंगल की कटाई आदि के खिलाफ देश भर में अलग-अलग अनेकों समूह या तो आंदोलन में लगे हैं या चेतना पैदा करने का काम कर रह हैं। कई वैज्ञानिक, समाजशास्त्री और लेखक भी इससे जुड़े हैं। सरकार एवं सत्ता की ओर से यह कहा जाता है कि ये विकास-विरोधी है, विदेशी ऐजेंट हैं, तथा नुमाइश के लिए आदिवासियों को उसी हालत में बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि इन आंदोलनों से जुड़े लोगों की वैचारिक पृष्ठभूमि बहुत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने प्रस्तुत हो। यह भी जरूरी है कि अलग-अलग काम कर रहे ये समूह इस तरह आपस में जुड़े कि अपनी सम्मिलित शक्ति के बल पर ये राज्य की नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित कर सकें।
विकास की आधुनिक पद्धतियों के बुरे नतीजे अब सामने आ गए हैं। अब तीसरी दुनिया ही नहीं बाकी विकसित दोनों दुनिया के लोग भी समझते जा रहे हैं कि दुनिया अब ज्वालामुखी पर खड़ी है तथा मनुष्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। इस संकट का मुख्य कारण विकास की केंद्रित व्यवस्था एवं प्राकृतिक संसाधनों को मनुष्य के भोग-विलास का साधन मात्र समझना है। मनुष्य और प्रकृति का जो प्रेमल रिश्ता है उसे भुला दिया गया है।
मसविदा कहता है कि अब हमें यह समझ लेना चाहिए कि “दुनिया के समस्त जीव हमारे साथी हैं, तथा उन्हें भी इस दुनिया में रहने का अधिकार है। वर्तमान पीढ़ी भविष्य की ट्रस्टी है जिसका यह उत्तरदायित्व है कि प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखें। प्राकृतिक संसाधन संभ्रांत वर्ग की विलासिता के लिए वस्तुओं का ढेर नहीं है इनकी तो इज्जत करनी है ताकि भविष्य में भी मनुष्य और जैविक दुनिया जिंदा रह सके।”
तेजी से नष्ट होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों की प्रक्रिया में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है तथा इसके प्रति चिंता गहरा जाना स्वाभाविक है। प्राकृतिक साधनों को बचाने की लड़ाई के साथ विकास की पद्धति के सवाल जुड़े हुए हैं तथा यह भ्रम अब तेजी से टूट रहा है कि वर्तमान औद्योगीकरण की केंद्रीय अर्थव्यवस्था तरक्की की कुंजी है। बड़े बांधों से होने वाला विनाश वर्तमान बीमार अर्थव्यवस्था का एक लक्षण है। हमें ऐसी वैकल्पिक विकास की पद्धति को लेकर चलना होगी जिस पर लोगों का नियंत्रण हो तभी विषमता दूर होगी और प्राकृतिक संसाधन भी बचेंगे। इसलिए जो व्यक्ति अथवा समूह पर्यावरण-नाश अथवा विस्थापन की समस्याओं से जूझ रहे हैं वे वास्तव में सामाजिक न्याय पर आधारित एक व्यापक विचारधारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हरित घोषणा-पत्र पर्यावरण और विकास की बहस के मुद्दों को उभारता है तथा उस दिशा को स्पष्ट करता है जो सामाजिक न्याय पर आधारित वकास और पर्यावरण को आगे बढ़ा सके। इस आधार पर बनने वाला ‘हरित मंच’ यदि ताकतवर बन सका तो देश के राजनैतिक दल एवं सरकार उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे।
(सप्रेस द्वारा पेनोस, पर्यावरण कक्ष एवं गांधी शांति केंद्र के सहयोग से) साभार -शताब्दी संदेश, 1-8-1989
प्राकृतिक संसाधनों की इन फिजूलखर्चियों को चूंकि तत्काल भुगतान नहीं पड़ता इसलिए उनमें मितव्ययिता की कोई इच्छा नहीं होती। लाभ प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है और इन लाभान्वित विशिष्ट लोगों, नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों का एक गठजोड़ बन जाता है जो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा शोषण करते रहते हैं।
उपरोक्त उस घोषणा-पत्र के अंश हैं, जो जुलाई ‘89 के दूसरे सप्ताह में नागपुर की एक बैठक में बनाया गया है। देश में एक हरित मंच (ग्रीन फ्रंट) बने इसकी चर्चा उन लोगों में चल रही है जो बिगड़ते पर्यावरण और विस्थापना से उत्पन्न समस्याओं और विकास की वर्तमान पद्धतियों के दुष्परिणामों से चिंतित हैं। मार्च के महीने में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के सुदूर अंचल में इंद्रावती के किनारे बसे हेमलकसा में एक बैठक हुई थी बैठक में मुख्य रूप से वे क्रियाशील (एक्टिविस्ट) लोग थे जो बड़े बांधों से उत्पन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। बैठक में बाबा आमटे एवं ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ की नेता सुश्री मेधा पाटकर के अलावा बंजर भूमि विकास बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष श्रीमति कमला चौधरी “प्रिया” के श्री राजेश टंडन, “लोकायन” के श्री स्मितु कोठारी, “समाज परिवर्तन समुदाय”, धारवाड़ के श्री एस.आर. हीरेमठ आदि समाज-वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। इस बैठक के निर्णयानुसार एक छोटी कमेटी ने उपरोक्त घोषणा-पत्र का मसविदा तैयार किया है। इसे तैयार करने में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेस, बंगलौर के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. माधव गाडगिल का प्रमुख हाथ है। अभी यह मसविदा अंतिम नहीं है। देश के करीब 60 ऐसे वैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों को जो बिगड़ते हुए पर्यावरण से चिंतित हैं या इसकी रोकथाम की मैदानी लड़ाई में लगे हैं, इसे विचारार्थ भेजा गया है। आशा की जाती है कि एक माह में उपरोक्त अपनी प्रतिक्रियाएं भेज सकेंगे तथा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पुनः महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के आनंन्दवन में एक बड़ी बैठक होगी। घोषणा-पत्र में जो आधारभूत सिद्धांत तय होंगे उनके आधार पर क्या देश में एक “हरित मंच” बन सकता है, तथा यदि हां, तो फिर उसका स्वरूप कैसा हो, इस पर विचार करने के लिए ऐसे स्वयंसेवी संगठनों, मैदानी समूहों और व्यक्तियों का शीघ्र ही एक सम्मेलन भी होगा।
उपरोक्त मसविदा कहता है कि इस समय देश के समक्ष जो समस्याएं हैं उनमें तीन प्रमुख हैं। पहली है, प्राकृतिक संसाधन, जैसे जंगल और पानी का भारी दुरुपयोग, जैविक विभिन्नताओं का नाश और ओजोन छतरी तक का प्रदूषण। दूसरी है, बढ़ती हुई सामाजिक एवं आर्थिक विषमता तथा तीसरी बड़े पैमाने पर विशेषतः ग्रामीण इलाकों में पूर्ण तथा अर्द्ध-बेराजगारी जिसका नतीजा यह है कि गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ता ही जा रहा है। मसविदा आगे कहता है कि ये समस्याएं इस प्रक्रिया से जुड़ी है, जो शहरों, उद्योगों और सघन खेती (इंटेन्सिव कल्टिवेशन) को बहुत ही सस्ती कीमत पर प्राकृतिक संसाधन मुहैया करती है, जिसकी भारी कीमत गांवों और जंगलों को चुकानी पड़ती है। विडंबना यह है कि यह होता है राज्य की शक्तिशाली मशीनरी के बल पर।
बड़े बांध, आण्विक संस्थान, यूकेलिप्टस लगाए जाने, पानी के प्रदूषण, जंगल की कटाई आदि के खिलाफ देश भर में अलग-अलग अनेकों समूह या तो आंदोलन में लगे हैं या चेतना पैदा करने का काम कर रह हैं। कई वैज्ञानिक, समाजशास्त्री और लेखक भी इससे जुड़े हैं। सरकार एवं सत्ता की ओर से यह कहा जाता है कि ये विकास-विरोधी है, विदेशी ऐजेंट हैं, तथा नुमाइश के लिए आदिवासियों को उसी हालत में बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए यह जरूरी है कि इन आंदोलनों से जुड़े लोगों की वैचारिक पृष्ठभूमि बहुत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने प्रस्तुत हो। यह भी जरूरी है कि अलग-अलग काम कर रहे ये समूह इस तरह आपस में जुड़े कि अपनी सम्मिलित शक्ति के बल पर ये राज्य की नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित कर सकें।
विकास की आधुनिक पद्धतियों के बुरे नतीजे अब सामने आ गए हैं। अब तीसरी दुनिया ही नहीं बाकी विकसित दोनों दुनिया के लोग भी समझते जा रहे हैं कि दुनिया अब ज्वालामुखी पर खड़ी है तथा मनुष्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। इस संकट का मुख्य कारण विकास की केंद्रित व्यवस्था एवं प्राकृतिक संसाधनों को मनुष्य के भोग-विलास का साधन मात्र समझना है। मनुष्य और प्रकृति का जो प्रेमल रिश्ता है उसे भुला दिया गया है।
मसविदा कहता है कि अब हमें यह समझ लेना चाहिए कि “दुनिया के समस्त जीव हमारे साथी हैं, तथा उन्हें भी इस दुनिया में रहने का अधिकार है। वर्तमान पीढ़ी भविष्य की ट्रस्टी है जिसका यह उत्तरदायित्व है कि प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखें। प्राकृतिक संसाधन संभ्रांत वर्ग की विलासिता के लिए वस्तुओं का ढेर नहीं है इनकी तो इज्जत करनी है ताकि भविष्य में भी मनुष्य और जैविक दुनिया जिंदा रह सके।”
तेजी से नष्ट होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों की प्रक्रिया में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है तथा इसके प्रति चिंता गहरा जाना स्वाभाविक है। प्राकृतिक साधनों को बचाने की लड़ाई के साथ विकास की पद्धति के सवाल जुड़े हुए हैं तथा यह भ्रम अब तेजी से टूट रहा है कि वर्तमान औद्योगीकरण की केंद्रीय अर्थव्यवस्था तरक्की की कुंजी है। बड़े बांधों से होने वाला विनाश वर्तमान बीमार अर्थव्यवस्था का एक लक्षण है। हमें ऐसी वैकल्पिक विकास की पद्धति को लेकर चलना होगी जिस पर लोगों का नियंत्रण हो तभी विषमता दूर होगी और प्राकृतिक संसाधन भी बचेंगे। इसलिए जो व्यक्ति अथवा समूह पर्यावरण-नाश अथवा विस्थापन की समस्याओं से जूझ रहे हैं वे वास्तव में सामाजिक न्याय पर आधारित एक व्यापक विचारधारा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हरित घोषणा-पत्र पर्यावरण और विकास की बहस के मुद्दों को उभारता है तथा उस दिशा को स्पष्ट करता है जो सामाजिक न्याय पर आधारित वकास और पर्यावरण को आगे बढ़ा सके। इस आधार पर बनने वाला ‘हरित मंच’ यदि ताकतवर बन सका तो देश के राजनैतिक दल एवं सरकार उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे।
(सप्रेस द्वारा पेनोस, पर्यावरण कक्ष एवं गांधी शांति केंद्र के सहयोग से) साभार -शताब्दी संदेश, 1-8-1989
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