उत्तराखण्ड के पहाड़ों में आग लगने की घटनाएँ हर साल सुर्खियाँ बटोरती हैं। इससे जहाँ बड़ी संख्या में पेड़ों, जीव जन्तुओं और पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है, वहीं वायु प्रदूषण की समस्या और तपिश क्षेत्र को अपनी जद में ले लेती है। हाल के वर्षों में जंगल में आग लगने की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। इन घटनाओं की वजह और समाधान जानने के लिये भागीरथ और वर्षा सिंह ने स्थानीय जनप्रतिनिधियों से बात की।
पहाड़ों में आग लगने की घटनाओं में हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है। बचपन में आग लगने की इतनी सारी घटनाएँ देखने-सुनने को नहीं मिलती थीं। आग लगने की घटनाओं के पीछे कुछ शरारती तत्व होते हैं। कुछ लोग जली बीड़ी और माचिस की तीली जंगल में फेंक देते हैं जिससे आग लग जाती है। आग चीड़ के पत्तों और पेड़ों तक पहुँच जाये तो उसे बुझाना बहुत मुश्किल हो जाता है। यह भी सच है कि गाँव के रूढ़िवादी लोग जंगल में आग लगने को बुरा नहीं मानते और वे आग लगाने वालों का समर्थन करते हैं।
अक्सर महिलाएँ ईंधन और चारा लेने जंगल जाती हैं और पेड़ों की ठूँठों में आग लगा देती हैं। उन्हें लगता है कि आग लगाने के बाद अच्छी घास उगेगी। उन्हें इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती क्योंकि वे बचपन से ऐसा देख रही हैं। लेकिन नई पीढ़ी अब इसे समस्या के रूप में देखने लगी है और पर्यावरण को इससे होने वाले नुकसानों से परिचित है। आग लगने की एक बड़ी वजह वन विभाग की लापरवाही भी है। विभाग लैंटाना घास को ठीक से नहीं काटता। इसी घास के आग पकड़ने पर वह विकराल होती चली जाती है। अगर इस घास की सफाई ठीक से कर दी जाये तो आग लगने की घटनाएँ बेहद कम हो जाएँगी।
विभाग पेड़ों को लगाने में भी लापरवाही बरतता है। अक्सर बरसात के बाद पेड़ लगाए जाते हैं। इससे पेड़ पनप नहीं पाते। आग लगने की घटनाओं को रोकने के लिये सबसे पहले सामाजिक जागरुकता लाने की जरूरत है ताकि लोगों को पता चल सके कि पर्यावरण, जंगली जीवों और वनस्पतियों के लिये यह कितनी खतरनाक है। वन विभाग को लैंटाना घास को नष्ट करने के उपाय करने चाहिए क्योंकि यह चौड़े पत्ते वाले पेड़ों को भी पनपने से रोकती है। इस घास का इस्तेमाल टोकरियाँ आदि बनाने में किया जा सकता है। साथ ही सरकार को फायर कंट्रोल लाइन की सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए।
अंग्रेजों ने गाँव वालों को जंगल पर हक और हकूक दिये थे। जरूरत पड़ने पर अंग्रेज गाँव वालों को एक-दो पेड़ दे दिया करते थे। जब तक यह नियम था तब तक लोगों में यह भावना थी कि जंगल में आग लगी तो वे बुझाएँगे। इसलिये उस जमाने में आग लगने की घटनाएँ कम होती थीं। अब जंगल के इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को घास चाहिए। इसके लिये लोग आग लगा देते हैं लेकिन कोई आग बुझाने नहीं जाता।
हमारी कोशिश होनी चाहिए कि पूरे दस-बीस साल जंगल बढ़ें और आग न लगे। पहले गाँव वालों में जंगल के प्रति जिम्मेदारी होती थी, क्योंकि इससे जमीन और मकान के लिये लकड़ी मिलती थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा कि जंगल की जितनी भी जमीन है, सब सरकारी मानी जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से वन अधिनियम 1980 के तहत सबको जंगल मान लिया गया। किसी के पास निजी तौर पर भी दस से ज्यादा पेड़ हैं तो वह भी जंगल मान लिया गया। एक प्रकार से हमारी गलत नीतियों के कारण जंगलों के प्रति स्थानीय लोगों का लगाव कम हो गया। हम अगर लोगों में जिम्मेदारी का भाव लाना चाहते हैं तो उन्हें जंगल पर अधिकार भी देने पड़ेंगे। केवल वन विभाग आग लगने की घटनाओं को रोक नहीं पाएगा।
पेड़ों की रक्षा के लिये जब से नियम बनने लगे तब से पेड़ों की रक्षा पर उलटा असर पड़ने लगा। जंगल को संरक्षित करने के लिये जो नियम बने उनमें यह कहीं नहीं बताया गया कि जंगल को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है। जंगल बचाने हैं तो लोगों को उससे जोड़ना होगा। अगर किसी व्यक्ति को एक मकान बनाने की जरूरत है तो वह जंगल से लकड़ी नहीं ले सकता। आदमी बेघर मरा जा रहा है और आप जंगल के नाम पर खाली पड़ी जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी उसे नहीं दे सकते। हमारे नियम एकतरफा हो जाते हैं। जंगल बचाने के लिये स्थानीय लोगों को नीतियों में शामिल करना जरूरी है।
“आग लगने की बड़ी वजह वन विभाग की लापरवाही है। विभाग लैंटाना घास ठीक से नहीं काटता। इसी घास के आग पकड़ने पर वह विकराल होती जाती है” -नंदन सिंह जंतवाल, प्रधान, धारी गाँव, नैनीताल
“गलत नीतियों से स्थानीय लोगों का जंगल से लगाव कम हो गया है। हम अगर लोगों में जिम्मेदारी का भाव लाना चाहते हैं तो उन्हें जंगल पर अधिकार देने पड़ेंगे।” -भगत सिंह कोश्यारी, लोकसभा सांसद, नैनीताल
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