क्या सूखे के समय भूजल की गुणवत्ता जरूरी है

 

पीने और सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिये भूजल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गाँव इतना सुदूरवर्ती इलाके में स्थित है कि कोई भी बड़ा बसाव क्षेत्र दूर तक नहीं हैं और न ही आवागमन का कोई साधन। ठोस चट्टानी एक्वीफर वाले कुएँ पूरी तरह सूख चुके थे जिससे पानी मिलने की सम्भावना न्यूनतम हो चुकी थी। अकोले के अधिकांश गाँवों की स्थिति लगभग समान थी। ग्रामीणों के संघर्ष का पता हमें इस बात से चला कि इलाके में पानी की उपलब्धता इतनी कम थी कि वे जल गुणवत्ता पर विचार किये बिना मैले पानी और दूषित जल का इस्तेमाल करने को मजबूर थे।

सूखे के दौरान भूजल की खराब गुणवत्ता, ग्रामीण समुदायों के स्वास्थ्य, कृषि, आमदनी और स्वच्छता पर गम्भीर प्रभाव डाल सकती है। इस उल्लेख में हम प्रतिप्रवाह (upstream) और अनुप्रवाह भूजल (downstream) की गुणवत्ता में आये परिवर्तन के बारे में बात करेंगे। वर्षा के पैटर्न में हुए बदलाव, भूजल की बिगड़ती गुणवत्ता और पेयजल की कमी के साथ ही पानी के कमी ने मूला-प्रवरा उप-घाटी के गाँवों में दुर्लभ स्थिति उत्पन्न कर दी है। यह स्थिति स्थानीय स्तर पर गुणवत्ता मूल्यांकन की वर्तमान रणनीतियों पर फिर से विचार करने और जागरुकता कार्यक्रम के माध्यम से प्रचार करने की अत्यावश्यक माँग कर रही है। यह प्रारम्भिक जल गुणवत्ता अध्ययन, प्रशासनिक, वाटरशेड और एक्वीफर जैसे विभिन्न स्तरों पर मौजूद अलगाव पर प्रकाश डाल रही है जो सूखे के समय खराब भूजल गुणवत्ता को सुधारने और उसके प्रभावी रूप से अनुकूलन करने में बाधा बनती है।

महाराष्ट्र के कई हिस्से पिछले तीन-चार सालों से कठोर सूखे की मार झेल रहे हैं। किसानों की आत्महत्या, लातूर गाँव में पानी-ट्रेन, फसलों का नष्ट होना और किसानों का शहरों की ओर पलायन जैसे मुद्दे पिछले दिनों सोशल मीडिया पर छाए रहे हैं। इन कहानियों ने महाराष्ट्र में हो रहे वर्तमान जल अभाव की महत्त्वपूर्ण स्थिति को उजागर किया है। ग्रीष्म काल प्रमाण है भूजल साधनों के लिये निरन्तर संघर्ष का, जहाँ भूजल की गुणवत्ता को नजरअन्दाज कर दिया जाता है। सूखे के दौरान पानी की माँग को पूरा करना जरूरी है लेकिन इसके साथ-साथ स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता भी जरूरी है क्योंकि इन दिनों में काई, बैक्टीरिया, पानी में घुल जाने वाले पदार्थों और नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने के कारण पानी दूषित हो जाता है।

पानी की कमी अब वर्ष विशेष का मुद्दा न रहकर साल-दर-साल का हो गया है इसलिये हम महाराष्ट्र के मूला और प्रवरा उप-घाटियों में मई के महीने में पहुँचे जब गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी। हम वहाँ सिर्फ इस गम्भीर संकट को जानने या आकलन करने नहीं गए थे। हम भूजल विज्ञान और मानवजनित दृष्टिकोण के माध्यम से भूजल की गुणवत्ता क्यों कम हो रही है यह भी समझने गए थे। यह अध्ययन मूला-प्रवरा उप-घाटी के 8 ब्लॉक यथा अकोले, संगमनेर, सिन्नर, अहमदनगर, पारनेर, राहुरी, राहता और जुन्नर के 51 गाँवों में भूजल की गुणवत्ता के आकलन पर केन्द्रित है।

इन क्षेत्रों के नीचे के भौगोलिक स्तर में विभिन्न मोटाई के ठोस बेसाल्ट होते हैं, जो निचली चट्टानों में भूजल कैसा होगा इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका प्रभाव विभिन्न बेसाल्ट प्रवाहों के मिलने के कारण जल के निचली स्तरों में आने वाले रासायनिक बदलाव पर भी होता है। मौजूदा जल उपयोग के तरीके और लोगों का सतह पर उपलब्ध जल के साथ व्यवहार उसके पीने और सिंचाई योग्य होने या नहीं होने का गम्भीर पर्यावरणीय प्रभाव होता है।

मई में क्षेत्रीय निरीक्षण के दौरान, हमने वहाँ के पानी के नमूने लेकर पीएच, तापमान, विद्युत चालकता, पूर्णतः घुलने वाले ठोस पदार्थ और खारेपन का परीक्षण किया। यह परीक्षण हमें जल की गुणवत्ता और इसकी अम्लता/ क्षारीयता और खारेपन की प्राथमिक जानकारी देता है। नमूनों को एकत्र करके और क्षारीयता, कुल कठोरता, कैल्शियम कठोरता, मैग्नीशियम कठोरता, क्लोराइड, सोडियम, पोटैशियम, नाइट्रेट्स, फॉस्फेट और कुल कोलीफॉर्म्स, इन पैरामीटरों के जाँच और निर्धारण के लिये प्रयोगशालाओं में भेज दिया गया।

अध्ययन के लिये चुने गए गाँवों में कुओं के सूखने या दूषित होने के कारण प्राइवेट बोरवेल से टैंकरों के जरिए पानी पहुँचता था।

हमारे क्षेत्रीय दौरे के दौरान ग्रामीणों ने हमसे अनेकों शिकायतें की जैसे- कृषि के लिये पानी की कमी या बिलकुल भी उपलब्धता नहीं, खेती के लिये अनुपयुक्त दूषित जल, पीने के लिये जल का अभाव, मिट्टी का अत्यधिक खारा होना, मिट्टी में नमी की कमी, प्राकृतिक वनस्पति का नुकसान, मवेशियों के लिये चारा न मिलना, ग्रामीणों का शहरों में पलायन, बार-बार गैस्ट्रो इंस्टेस्टिनल और किडनी में पथरी की समस्या।

निगरानी प्रणाली का अभाव

अकोले के कुछ गाँवों में जहाँ से हमने पानी के नमूने इकट्ठा किया, ग्रामीणों ने बताया कि हम उनके यहाँ पानी की गुणवत्ता की जाँच करने वालों में से प्रथम थे क्योंकि जाँच केवल चुनिन्दा गाँवों में ही होते हैं। ग्रामीणों को पानी के साधारण गुण जैसे नमक की मात्रा, गंध और रंग के बारे में पता था लेकिन वे इसके पीछे के वास्तविक कारणों की पहचान करने में असमर्थ थे। इससे पता चलता है कि ग्राम स्तर पर जाँच प्रणाली का अभाव है या जल गुणवत्ता की जानकारी ग्रामीणों को देने सम्बन्धी कोई भी कार्यक्रम नहीं है। जल गुणवत्ता की खराब स्थिति तभी सामने आती है जब लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की खबरें अखबारों में आती हैं।

अकोले ब्लॉक के वारनगुशी गाँव के कुओं में जल बिल्कुल ना के बराबर था। यह गाँव समुद्र स्तर से 810 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। पीने और सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिये भूजल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। गाँव इतना सुदूरवर्ती इलाके में स्थित है कि कोई भी बड़ा बसाव क्षेत्र दूर तक नहीं हैं और न ही आवागमन का कोई साधन। ठोस चट्टानी एक्वीफर वाले कुएँ पूरी तरह सूख चुके थे जिससे पानी मिलने की सम्भावना न्यूनतम हो चुकी थी। अकोले के अधिकांश गाँवों की स्थिति लगभग समान थी। ग्रामीणों के संघर्ष का पता हमें इस बात से चला कि इलाके में पानी की उपलब्धता इतनी कम थी कि वे जल गुणवत्ता पर विचार किये बिना मैले पानी और दूषित जल का इस्तेमाल करने को मजबूर थे। को नजरअन्दाज करते हुए पानी की लड़ाई ने हमें उनके निरन्तर कठिनाई और तनाव का एहसास दिलाया। यहाँ पर एक अहम सवाल उठता है कि इस परिस्थिति में क्या जरूरी है, पानी की गुणवत्ता या पानी की उपलब्धता?

प्रवरा नदी खण्ड की बदतर स्थिति

पानी के अत्यन्त अभाव वाले समयों में लोग नदी के तल पर हीं कुएँ खोदने लगते हैं। यह भूजल के वाष्पीकरण को बढ़ावा देता है और साथ-ही-साथ पानी की अत्यधिक उपयोग के कारण खारेपन की समस्या भी बढ़ जाती है। साथ ही अत्यधिक कृषि कार्य से भूजल का स्तर क्षीण होने लगता है। नदी किनारे कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग के कारण भूजल अधिक नाइट्रेट के समिश्रण से दूषित हो जाता है। नदियों के किनारे कुओं का निर्माण जैसा कि चिकाली गाँव में देखने को मिला और रेत खनन ने मिट्टी के जलोढ़ तल की प्राकृतिक छनन शक्ति को ही नष्ट कर दिया। ऐसी अनधिकृत गतिविधियाँ यह दर्शाती हैं कि विभिन्न स्तरों पर जल प्रशासन प्रणाली कितनी अप्रभावी है। यदि इस तरह की अनियंत्रित और अव्यवस्थित गतिविधियाँ यूँ ही चलती रहीं तो भूजल के दूषिकरण की समस्या बढ़ जाएगी और लोगों को नदी के निचले हिस्सों में पलायन करना होगा।

कुओं में खारेपन की बढ़ोत्तरी

मूला-प्रवरा उप-बेसिन में नीचे की ओर स्थित अहमदनगर, राहता, राहुरी और संगमनेर ब्लॉक के अधिकांश गाँवों के कुओं में पानी का खारापन अधिक बढ़ चुका है। हालांकि खारेपन की बढ़ोत्तरी मुख्य रूप से प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित होती है लेकिन हाल के दशक में मानव गतिविधियों के बढ़ने के कारण खारेपन के स्तर में वृद्धि हुई है। वर्षा की कमी, मानसूनी वर्षा में उतार-चढ़ाव के कारण पथरीले खनिजों का घुलना बढ़ जाता है। वाष्पीकरण और कृषि के लिये अत्यधिक जल उपयोग से भूजल का स्तर गिरता है और खारापन बढ़ जाता है। इलाके का भूजल इतना खारा हो गया है कि इस पानी से सिंचाई करने के कारण जमीन अनुपजाऊ हो जाती है। पीने के पानी की जरूरतों के लिये लोगों को पूरी तरह से टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है। अनुत्पादक जमीन, पानी की खराब व्यवस्था और अभाव की स्थिति की वजह से उन्हें बेरोजगारी की समस्या का सामना करना पड़ता है और उनके पास पलायन के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचता है।

भविष्य में क्या करना होगा?


हमारे सीजन-वन (ग्रीष्मकालीन) विश्लेषण के अनुसार अकोले ब्लॉक के ऊपरी बहाव क्षेत्र के गाँवों की तुलना में निचले बहाव क्षेत्र के गाँवों में पेयजल की गुणवत्ता बेहतर है। उप-घाटियों से इकठ्ठे किये लगभग हर नमूने में सामान्य जीवाणु दोष पाये गए। सूखे के समय में अधिकांश सरकारी मशीनरी पानी देने के लिये तैयार रहती है लेकिन इनकी पहुँच सीमित और बहुत अनियमित है। कुछ गाँवों में टैंकर का पानी पहुँचने में सप्ताह लग जाता है। ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध पेयजल की गुणवत्ता को सुधारने और सुरक्षित रखने के लिये नियमित कदम उठाना आवश्यक है। विभिन्न मौसमों में पानी की गुणवत्ता में आने वाले परिवर्तन की जाँच करना एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा जिससे समय पर जल सुधार हेतु परामर्श देना सम्भव हो जाएगा। लोगों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालने वाले जलस्रोतों की पहचान करनी होगी। लोगों को टिकाऊ कृषि की ओर बढ़ने के उपाय प्रदान करने होंगे। उनको कठिन परिस्थितियों के अनुकूल बनने के लिये क्षमता विकास करना होगा और पानी की बिगड़ती गुणवत्ता और मात्रा के प्रभाव से लड़ने के लिये वैकल्पिक समाधान देने होंगे।

सुरक्षित और पीने योग्य जलस्रोतों के विकास के साथ एक्वीफर से निरन्तर पानी का निकलते रहना सुनिश्चित करने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत है। यह तभी सम्भव है जब विभिन्न हितधारक जैसे- किसान, नीति निर्माता, शोधकर्ता, स्थानीय संगठन और सरकारी संस्थाएँ वर्तमान जल गुणवत्ता प्रबन्धन पद्धतियों में बदलाव लाने के लिये परस्पर आगे आएँगे। ग्रामीण स्तर पर नियमित रूप से पानी की गुणवत्ता की जाँच और इस प्रक्रिया में लोगों को शामिल करना आवश्यक है। हमारे भूजल गुणवत्ता की देखभाल के लिये वैकल्पिक योजनाओं की अत्यन्त आवश्यकता है जहाँ लोग जागरूक होंगे और तात्कालिक उपाय करने के लिये तत्पर रहेंगे।
 

 

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