क्या संकेत दे रहा हिमालय

हिमालय में ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से वैज्ञानिक लंबे समय से आगाह करते रहे हैं। पिछले वर्ष से इस क्षेत्र में हो रही घटनाएं क्या उन संकेतों की पुष्टि कर रही हैं? वैज्ञानिक तौर पर अभी ऐसा कहना जल्दबाजी है लेकिन यह बात तय है कि वर्ष 2013 में उत्तराखंड और इस वर्ष पहले नेपाल और अब जम्मू-कश्मीर में पानी कहर बनकर बरसा है। बार-बार आ रही त्रासदी के मूल में प्रकृति से छेड़छाड़ तो है ही। क्या कहते हैं जानकार? इसी पर आधारित पढ़िए यह स्पॉटलाइट...

.इसमें कोई शक नहीं है कि विश्व में जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) हो रहा है। सितंबर माह चल रहा है और इस वक्त भारत में कई जगहों पर भारी वर्षा जारी है। कहीं अचानक सूखा पड़ने लगता है तो कहीं अत्यधिक वर्षा के कारण सब जलमग्न हो जाता है। ये क्लाइमेट चेंज के संकेत हैं। ऐसे ही परिवर्तन हमें आगे भी देखने को मिलते रहेंगे। जलवायु परिवर्तन से अब इनकार नहीं किया जा सकता है।

जिस प्रकार हमने पिछले साल उत्तराखंड में विध्वंसकारी बाढ़ देखी, उससे पहले लेह में बादल फटे और इस वक्त जम्मू-कश्मीर में बाढ़ भयावह रूप में रही है, उससे साफ हो गया है कि हिमालयन सिस्टम गड़बड़ा रहा है। चूंकि हिमालय का सिस्टम बड़ा ही संवेदनशील है, जो अब सभी के लिए चिंता का विषय बन गया है।

आने वाले समय के लिए हमें सोचना होगा कि हिंदुकुश समेत पूरे हिमालयन क्षेत्र में, जो भारतवर्ष के अलावा, पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान जैसे देशों तक फैला है, उसके सिस्टम में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव दिखाई देने लगा है। धीरे-धीरे जलवायु बदलाव की कई प्रक्रियाएं इन इलाकों में हो रही हैं। इन्हें अभी से जितना कम किया जाए, उतना इन मुल्कों के लिए बेहतर होगा। शुरुआत इस क्षेत्र में सबसे पहले मानव निर्मित अतिक्रमण को कम करके करनी होगी। इसके अलावा ऐसी त्रासदियों में जान-माल के नुकसान से बचने के लिए हमारी मौसम भविष्यवाणी ज्यादा सटीक करनी होगी।

जिन हिमालयन इलाकों में भारी बारिश होती है, वहां के बारे में मौसम की सटीक जानकारी होना बेहद आवश्यक है। यह पुख्ता वैज्ञानिकपूर्ण ढंग से होनी चाहिए। मौजूदा मौसम भविष्यवाणी में हम पीछे हैं। यह बहुत सटीक और कारगर नहीं होती, इसके चलते खासकर पहाड़ी इलाकों में मौसम के अचानक करवट लेने पर नुकसान उठाना पड़ता है। हालांकि पहले से हमने काफी सुधार किया है। लेकिन इसमें सटीकता तक पहुंचना चाहिए। मसलन, अगर अभी जम्मू-कश्मीर में भारी बारिश की सटीक जानकारी होती तो ज्यादा नुकसान होने से बचाया जा सकता था। इससे जान-माल को बचाने में काफी फर्क पड़ सकता है।

कम-से-कम बादल फटने, तबाही मचाने वाले तूफान जैसी आपदाओं की तो जानकारी उच्च कोटि की सटीकता लिए होनी चाहिए। सरकार को हिमालयन क्षेत्र में ऐसे उन्नत सूचना तंत्र विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। जहां वक्त रहते सरकारी मशीनरी को काम में लगाकर नुकसान कम किया जा सके।

अभी क्लाइमेट चेंज की दिशा में सबसे पड़ी चुनौती यही है कि वर्षा का पैटर्न तेजी से बदल रहा है, जो कि सीधे तौर पर क्लाइमेटिक है और हमें सीधा दिखाई नहीं दे रहा है। इसके चलते हिमालयन जैसे इलाकों की प्रकृति ज्यादा संवेदनशील हो गए हैं। इस वक्त सभी प्रयास इस दिशा में रहने चाहिए कि हिमालय को कैसे बचाया जाए? यहां के लोगों पर आपदाओं के चलते जो त्रासदी हो रही है, वह खासी चिंताजनक है।

गौरतलब है कि हिमालयन इलाकों में अगर भारी बारिश, बादल फटने जैसी त्रासदी होती है तो वहां उसकी तीव्रता को जल्दी कम नहीं किया जा सकता। वहां से लोगों को बचाने की प्रक्रिया कतई भी कमजोर नहीं छोड़ी जा सकती। उत्तराखंड में सबसे बड़ी चुनौती यही साबित हुई।

पिछले कुछ वर्षों में मानसून का चक्र बदला है। जहां ज्यादा वर्षा होती है तो वहां उसका स्तर बढ़ता ही चला जाता है। जहां सूखा पड़ता है तो वह भी शिखर पर पहुंच जाता है। वैज्ञानिकों की राय में इस वक्त हम ‘एक्सट्रीम वेदर’ सामना कर रहे हैं और ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। जम्मू-कश्मीर में मौजूदा बाढ़ इस ओर साफ-साफ इशारा कर रही है। पिछले साल हमने केदारनाथ में भयानक त्रासदी देखी थी, जिससे हम अभी तक नहीं उबर पाए हैं। इससे पहले लेह में भी बादल फटने की घटना हुई थी। यानी कि वर्षा का पैटर्न बदल रहा है।त्रासदी का स्वरूप लगातार बढ़ता रहा और उसकी तुलना में हमारी तैयारी उच्च स्तर की नहीं थी। हमें उत्तराखंड जैसी ऐतिहासिक त्रासदी से सीखना चाहिए कि हिमालयन सिस्टम को ज्यादा न छेड़ें तो ज्यादा अच्छा रहेगा। उसके ज्यादा संवेदनशील होने पर मुश्किलें और बढ़ जाएंगी। लोग अतिक्रमण कम करें, वहां की कुदरत का अत्यधिक दोहन न करें।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमें हिमालयन की सेवाओं का लाभ उठाना चाहिए लेकिन अगर उसे अनियंत्रित कर देंगे तो परिणाम हमें ही भुगतना होगा। आज तमाम सड़कों, बांधों के लिए पहाड़ों को काटा जा रहा है। माइनिंग बढ़ गई है। अवैध निर्माण हो रहे हैं। इन सबने कुदरती सिस्टम में सेंध लगाई है। विकास होना चाहिए। हिमालयन में बसे लोगों को भी इसकी जरूरत है। उन्हें भी बिजली चाहिए, सड़कें चाहिए, बेहतर यातायात चाहिए लेकिन यह सब कार्य बहुत तार्किक ढंग से करने की जरूरत है।

वक्त पर डिजास्टर मैनेजमेंट और मिटिगेशन की प्रक्रिया होनी चाहिए, जिसमें हम अभी काफी कमजोर हैं। काफी कुछ उन्नत इंतजामात करने की जरूरत है। इस वक्त हिमालयन क्षेत्र में बड़ी दिक्कत बादल फटने की है। इससे समतल इलाकों में तो नुकसान कम होता है। लेकिन हिमालयन क्षेत्र में इससे होने वाले नुकसान की तीव्रता बहुत बढ़ जाता है। घाटी इलाकों में त्रासदी बढ़ जाती है।

पिछले डेढ़ दशक में- 1998 में उत्तराखंड समेत अभी तक ऐसे कई ऐतिहासिक घटनाएं हुई हैं, जहां भारी बादल फटे हैं। हिमालय पर सरकार को ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि वहां के संसाधनों का सदुपयोग हो और ज्यादा छेड़छाड़ न होने पाए। अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। निश्चित तौर पर हमें विकास करना है लेकिन वह कुदरत की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

हम हिमालय द्वारा प्रदत्त सभी सेवाएं लें लेकिन बड़े सुनियोजित ढंग से। यूरोपियन देशों से हमें सीखना चाहिए। उन्होंने पहाड़ी इलाकों में काफी सुनियोजित ढंग से काम किया है। उसी प्रकार हमें भी आपदाओं की तबाही से बचने के लिए हिमालयन सिस्टम से बचने के लिए हिमालयन सिस्टम के लिए वैज्ञानिक ढंग से काम करना होगा।

बंद करें कुदरत से खिलवाड़


सुनीता नारायण, निदेशक सीएसई

पिछले कुछ वर्षों में मानसून का चक्र बदला है। जहां ज्यादा वर्षा होती है तो वहां उसका स्तर बढ़ता ही चला जाता है। जहां सूखा पड़ता है तो वह भी शिखर पर पहुंच जाता है। वैज्ञानिकों की राय में इस वक्त हम ‘एक्सट्रीम वेदर’ सामना कर रहे हैं और ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। जम्मू-कश्मीर में मौजूदा बाढ़ इस ओर साफ-साफ इशारा कर रही है। पिछले साल हमने केदारनाथ में भयानक त्रासदी देखी थी, जिससे हम अभी तक नहीं उबर पाए हैं। इससे पहले लेह में भी बादल फटने की घटना हुई थी। यानी कि वर्षा का पैटर्न बदल रहा है। कई-कई जगहों पर बहुत एक्सट्रीम वर्षा होने लगी है।

वैज्ञानिकों ने पहले ही बता दिया है कि यह सब क्लाइमेट चेंज के कारण ज्यादा हो रहा है। हम लोग कुदरत के साथ जो छेड़छाड़ कर रहे हैं, जिस प्रकार उसे बाधित कर रहे हैं, उसका परिणाम हमें इन बढ़ते सैलाब के रूप में देखने को मिल रहा है। जम्मू कश्मीर में देखें तो वहां तालाबों, फ्लड चैनलों पर जमकर अतिक्रमण हो गया है, उन्हें काट दिया गया है। उत्तराखंड में इसी का परिणाम हमने देखा था। वही स्थित यहां पर भी है।

जम्मू कश्मीर में बाढ़़पानी रोकने के लिए तालाब जैसे तरीके खत्म होते जा रहे हैं और आबादी पर कोई नियंत्रण नहीं है। विकास के नाम पर अतिक्रमण का खामियाजा हमें भुगतना पड़ रहा है। अब इसे रोकना है तो हम कुदरत से खिलवाड़ बंद करें। संवेदनशील इलाकों में सोच-समझकर विकास करें। यह पहले ही समझ लेना चाहिए कि आगे क्लाइमेट चेंज के कारण वर्षा की तीव्रता और बढ़ेगी। पर अभी हमारी सरकारों ने पहले अंधाधुंध विकास कर दिया है और उसके बाद ऐसी त्रासदियां होने पर विचार कर रही हैं।

वैज्ञानिक और विशेषज्ञ बिरादरी की यही शिकायत रही है कि हम पहाड़ी इलाकों को अतिक्रमण और अंधाधुंध विकास से बचाने में नाकाम रहे हैं। एक वक्त हिमालय एक्शन प्लान बना पर वह आज तक लागू नहीं हो पाया। असल में हम आपदा के बाद जागते हैं और थोड़े दिन बाद फिर आंख बंद कर लेते हैं। हमें उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर की त्रासदी से सबक लेना चाहिए।

ग्लोबल वार्मिंग


वैज्ञानिक लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का 3,500 किलोमीटर लंबी हिमालय श्रृंखला पर भी पड़ रहा है। हिमालय में आपदा के समय राहत कार्य भी मुश्किल हो जाते हैं। दूसरा पहलू यह है कि वहां से पानी नीचे आता है और नदियों के सहारे तबाही मचाता है। कुछ समय से हिमालय में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं।

बाढ़ : सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला में सवा साल के भीतर तीन बड़ी घटनाएं...


उत्तराखंड : 14 से 17 जून, 2013


राज्य में चार दिन तक लगातार तेज बरसात हुई। केदारघाटी में बादल भी फटे। केदारनाथ के दर्शन के लिए गए हजारों लोग फंस गए। गांव-के-गांव तबाह हो गए और सड़कें बह गईं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस जल प्रपात में करीब 6,000 से अधिक लोगों की जान गई थी। 4,000 से अधिक गांव प्रभावित हुए। सेना ने कई दिनों तक रेस्क्यू ऑपरेशन चलाया और करीब एक लाख लोगों को बचाया।

नेपाल : 15-20 अगस्त 2014


पश्चिमी नेपाल के लगभग दस जिलों में पांच दिन तक भारी बरसात होती रही। बादल भी फटे। वहां 50 से अधिक लोग मारे गए और हजारों लोग बेघर हो गए। नेपाल से लगते उत्तराखंड के कुछ जिलों में भी दो दर्जन से अधिक लोग मारे गए। नेपाल के बांधों से पानी छोड़ा गया तो राप्ती एवं घाघरा सहित अनेक नदियां खतरे के निशान से ऊपर बहने लगीं और देखते-ही-देखते उत्तर प्रदेश के सात जिलों के लगभग पांच सौ गांव जलमग्न हो गए। अनेक लोग मारे गए और हजारों लोग विस्थापित हुए।

जम्मू-कश्मीर : 1-7 सितंबर 2014


जम्मू और कश्मीर में सात दिन लगातार तेज बरसात से राज्य के मध्य और दक्षिणी जिलों में बाढ़ की स्थति बनी हुई है। ढाई हजार से अधिक गांव प्रभावित हुए, जिनमें से 450 गांव तो जलमग्न हो गए दो दिन पहले तो तीन जिलों बिल्कुल कट गए थे। हवाई मार्ग के अलावा कोई संपर्क नहीं बचा था। पानी का बहाव इतना तेज था कि हजारों किलोमीटर सड़कें बह गई हैं और 50 से अधिक पुल टूट चुके हैं। जम्मू में तवी नदी पर बना पुल भी टूट गया। इसी वर्ष मार्च में भारी बर्फबारी से भी भारी तबाही हुई थी। इससे पहले वर्ष 2010 में लेह में बाल फटने से तबाही हो चुकी है।

नेपाल में बाढ़

मानव निर्मित है ये आपदा


जम्मू-कश्मीर में आपदा कुदरती कम और मानव निर्मित ज्यादा है। हिमालयन क्षेत्र में आबादी काफी बढ़ गई है। साथ ही पहाड़ों, घाटियों में अतिक्रमण भी जमकर हो रहा है। ये सब मिलकर समस्या को बढ़ा रहे हैं। विकास की आड़ में प्राकृतिक क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाया गया है। बांधों का निर्माण हुआ है, पावर स्टेशन बन रहे हैं और आगे भी योजनाएं चल रही हैं। यानी कुदरत और विकास के बीच एक असंतुलन हो गया है। जिसका परिणाम अभी भुगता जा रहा है।

प्रो. आर.के. गंजू
जम्मू विश्वविद्यालय

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Post By: pankajbagwan
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