बिहार की गंगा में सर्वाधिक डॉल्फिन हैं और यहाँ उनका प्रजनन भी होता है। गंडक में 300 से अधिक डॉल्फिन होंगे तो कोसी और घाघरा में भी सौ से अधिक डॉल्फिन होने का अनुमान है। हालांकि इन्हें कभी-कभार बुढ़ी गंडक, बागमती, महानन्दा, अधवारा समूह की नदियों में भी देखा गया है। पर इन नदियों में कभी सर्वेक्षण नहीं कराया गया। डॉल्फिन के बारे में पहला अध्ययन 1879 में हुआ था। उसे एंडरसन रिपोर्ट कहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार गंगा की सभी सहायक नदियों में डॉल्फिन पाई जाती थी।अगर डॉल्फिनों की संख्या को आधार मानें तो गंगा का स्वास्थ्य सुधर रहा है क्योंकि गंगा में डाल्फिनों की संख्या बढ़ रही है। ताज़ा सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है। यह आँकड़ा कितना सही है नहीं कहा जा सकता। पर ढाई साल की लम्बी कवायद के बावजूद पटना में राष्ट्रीय डॉल्फिन शोध संस्थान नहीं खुल पाया है।
सरकार इसके लिये उपयुक्त ज़मीन नहीं खोज पाई है। तत्कालीन योजना आयोग ने 2013 में ही इसके लिये 28 करोड़ छह लाख की रकम मंजूर किया था। अधिसंरचनाओं के विकास के लिये राज्य सरकार ने भी 4 जून 2014 को 19 करोड़ 16 लाख की रकम राज्य इंफ्रास्ट्रक्चर बोर्ड को आवंटित कर दिया था। पर गंगा के किनारों उपयुक्त जगह का चयन नहीं कर पाने की वजह से सारी रकम बेकार पड़ी है।
इस संस्थान को गंगा के किनारे करीब दो एकड़ ज़मीन चाहिए। पहले इसे पटना विश्वविद्यालय परिसर में पटना लॉ कॉलेज के पास खोलने की योजना थी। एनआईटी के पास गंगा के किनारे की ज़मीन पर संस्थान खोलने का विचार भी आया था। परन्तु विश्वविद्यालय के सिंडिकेट ने इन प्रस्तावों को 2015 में यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि विश्वविद्यालय की ज़मीन दूसरे किसी संस्थान को नहीं दिया जाएगा।
पटना विश्वविद्यालय की सम्पदा के मामले में सबसे ताकतवर संस्था सिंडिकेट है। उसका कहना था कि विश्वविद्यालय किसी स्वायत्त संस्था को अपनी ज़मीन नहीं दे सकती। एनआईटी के कब्ज़े में पहले से काफी इलाक़ा चला गया है और नई इमारतों का निर्माण भी करा रहा है जबकि ज़मीन की मिल्कियत पटना विश्वविद्यालय के पास है।
फिर मची हलचल में पूर्व शिक्षा मंत्री पीके शाही के मध्यस्थता में बैठक बुलाई गई। उप कुलपति वाईसी सिम्हाद्री ने कहा कि डाल्फिन शोध संस्थान को अगर पटना विश्वविद्यालय के मातहत खोला जाये तो सिंडिकेट के फैसले के मुताबिक उसे ज़मीन देने में कोई अड़चन नहीं होगी।
उनका अनुरोध था कि राष्ट्रीय डॉल्फिन शोध संस्थान विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान विभाग के अन्तर्गत खोला जाये और सरकार उसे कोष उपलब्ध कराए। इस बीच विधानसभा चुनाव आ गए और मामला लटक गया।
अब योजना आयोग की मंजूरी और कोष के आवंटन को दो वर्ष से अधिक हो गए होंगे। गंगा की डॉल्फिन पर शोधरत जीव विज्ञान के प्राध्यापक आरके सिन्हा ने कहा कि हमने दानापुर से फतूहा के बीच कहीं भी पटना के आसपास डेढ़ से दो एकड़ ज़मीन देने का अनुरोध राज्य सरकार से किया था। पर कोई फैसला नहीं हो सका है। कमोबेश डॉल्फिन सर्वेक्षण की स्थिति भी यही है।
गंगा में डॉल्फिनों की संख्या के बारे में पिछला आकलन 2014 में किया गया था। तब गंगा में लगभग 3500 डॉल्फिन होने का अनुमान था।
वर्ष 1980 में उनकी संख्या 5000 आँकी गई थी। डॉल्फिनों की संख्या घटने के अनेक कारण हैं। इनमें औद्योगिक प्रदूषण, कीटनाशकों का प्रयोग, मछली मारने में नुक़सानदेह जाल का इस्तेमाल, मनमाने ढंग से बालू निकासी, शिकार इत्यादि शामिल हैं। हर वर्ष 10 से 15 डॉल्फिनें इन वजहों से मारी जाती हैं और उनके शव बरामद किये जाते हैं।
डॉल्फिन के तेल , मांस और चमड़े के लिये उनका शिकार भी होता है। उसके शरीर में 25 से 30 प्रतिशत वसा होती है। इस वसा या तेल का उपयोग दर्द की दवा बनाने में होता है।
हालांकि डॅाल्फिन पर वर्षों से शोधरत डॉ. आरके सिन्हा को सन्देह है कि डॉल्फिन को सल्फॉस नामक कीटनाशक देकर मारा जाता है। अवैध शिकारी छोटी मछलियों के पेट में सल्फास की गोली रखकर मछली को नाइलन के धागे के सहारे गंगा के प्रवाह में छोड़ देते हैं।
उसे खाने वाली डॉल्फिन कुछ देर में मर जाती हैं। लेकिन उनका कहना है कि मृत डॉल्फिन के शव बरामद होने पर उसका पोस्टमार्टम कराया जाये तो इसकी पुष्टि हो सकती है।
पहले मछुआरों के जाल में फँसने से डॉल्फिन के मारे जाने की घटनाएँ होती थीं। नाइलन के पतले जाल से कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। इससे डॉल्फिन उसमें फँस जाते हैं और साँस लेने पानी के उपर खुली हवा में नहीं आ पाते।
पर नाइलन जाल में फँसकर डॉल्फिन के मरने की घटनाएँ अब बहुत कम हो गई हैं क्योंकि जाल में फँसे डॉल्फिन को जाल काटकर दोबारा गंगा में छोड़ने पर मछुआरों को जाल के दाम का मुआवजा दिया जाने लगा है।
उत्तर प्रदेश में गंगा और सहायक नदियों में 1263 डॉल्फिनें पाई गईं जबकि 2012 के सर्वेक्षण में इस वर्ष उनकी संख्या 671 थी। सर्वेक्षण 5 अक्टूबर से 8 अक्टूबर के बीच वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से किया। गणना गंगा से सभी सम्बन्धित राज्यों में एक साथ की गई।
बिहार में भी वन विभाग ने इसकी योजना बनाई थी। पर विधानसभा चुनावों के कारण गणना टल गई। गंगा और उसकी सहायक नदियों के निवासी सभी जीव-जन्तुओं की गणना हुई है। ऐसी गणना पहली बार कराई गई। बिहार में इस काम के लिये वन विभाग ने चार टीमों का गठन किया है।
उन्हें विभिन्न नदियों और सहायक नदियों का जिम्मा सौंप दिया गया। पर इस या उस कारण से एक साथ सभी राज्यों में गणना नहीं हो पाई। इससे गिनती में दुहराव का अंदेशा निश्चित तौर पर है। यह डॉल्फिनों की गणना की राष्ट्रीय योजना का हिस्सा है। इसे बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में एक साथ गणना की जानी थी।
डॉल्फिन संरक्षण के विशेषज्ञ डॉ. आरके सिन्हा के अनुसार पहले भी कुछ राज्यों ने सर्वेक्षण कराया है, पर इस काम में लगे अलग-अलग टीमों ने अलग-अलग समय पर अलग-अलग पद्धति का इस्तेमाल किया।
इस साल पहली बार एकीकृत पद्धति का इस्तेमाल किया गया। सर्वेक्षण करने वाली चार टीमों में एक पटना यूनिवर्सिटी की होगी जो गंगा में पटना से चौसा के बीच, घाघरा में सिवान से डोरीगंज और पुनपुन व सोन नदियों में सर्वेक्षण करेगी।
वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया को गंडक नदी क्षेत्र का सर्वेक्षण करने का ज़िम्मा दिया गया है। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया पटना से सुल्तानगंज के बीच गंगा का सर्वेक्षण करने के अलावा बागमती, सिकरहना और अधवारा समूह की नदियों का सर्वेक्षण करेगी।
भागलपुर की एक टीम को सुल्तानगंज से कटिहार के बीच गंगा और कोसी, महानन्दा व मेची नदियों के सर्वेक्षण करेगी।
बिहार की गंगा में सर्वाधिक डॉल्फिन हैं और यहाँ उनका प्रजनन भी होता है। गंडक में 300 से अधिक डॉल्फिन होंगे तो कोसी और घाघरा में भी सौ से अधिक डॉल्फिन होने का अनुमान है। हालांकि इन्हें कभी-कभार बुढ़ी गंडक, बागमती, महानन्दा, अधवारा समूह की नदियों में भी देखा गया है। पर इन नदियों में कभी सर्वेक्षण नहीं कराया गया।
डॉल्फिन के बारे में पहला अध्ययन 1879 में हुआ था। उसे एंडरसन रिपोर्ट कहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार गंगा की सभी सहायक नदियों में डॉल्फिन पाई जाती थी। केरल के एक वैज्ञानिक ने 1981 में बिहार में गंगा के अध्ययन के दौरान आकलन किया कि गंगा में चार से पाँच हजार डॉल्फिन होगी।
चूँकी डॉल्फिन की उपस्थिति को नदी के स्वस्थ होने का सवश्रेष्ठ संकेत माना जाता है, इसलिये राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने इसकी योजना बनाई।
मिशन केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनरुद्धार मंत्रालय का अंग है और एनडीए सरकार के नमामि गंगे कार्यक्रम का हिस्सा है जो गंगा की स्वच्छता और संरक्षण के विभिन्न कार्य योजनाओं का एकीकृत व समन्वित रूप है।
गंगा की डॉल्फिन खतरनाक ढंग से विलुप्ति की कगार पर है। इसे वन्यप्राणी (संरक्षण) अधिनियम.1972 की अनुसूची-1 में रखा गया है। वर्ष 2009 में 5 नवम्बर को केन्द्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। फिर भी यह सर्वाधिक संकटग्रस्त जीव है।
सरकार इसके लिये उपयुक्त ज़मीन नहीं खोज पाई है। तत्कालीन योजना आयोग ने 2013 में ही इसके लिये 28 करोड़ छह लाख की रकम मंजूर किया था। अधिसंरचनाओं के विकास के लिये राज्य सरकार ने भी 4 जून 2014 को 19 करोड़ 16 लाख की रकम राज्य इंफ्रास्ट्रक्चर बोर्ड को आवंटित कर दिया था। पर गंगा के किनारों उपयुक्त जगह का चयन नहीं कर पाने की वजह से सारी रकम बेकार पड़ी है।
इस संस्थान को गंगा के किनारे करीब दो एकड़ ज़मीन चाहिए। पहले इसे पटना विश्वविद्यालय परिसर में पटना लॉ कॉलेज के पास खोलने की योजना थी। एनआईटी के पास गंगा के किनारे की ज़मीन पर संस्थान खोलने का विचार भी आया था। परन्तु विश्वविद्यालय के सिंडिकेट ने इन प्रस्तावों को 2015 में यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि विश्वविद्यालय की ज़मीन दूसरे किसी संस्थान को नहीं दिया जाएगा।
पटना विश्वविद्यालय की सम्पदा के मामले में सबसे ताकतवर संस्था सिंडिकेट है। उसका कहना था कि विश्वविद्यालय किसी स्वायत्त संस्था को अपनी ज़मीन नहीं दे सकती। एनआईटी के कब्ज़े में पहले से काफी इलाक़ा चला गया है और नई इमारतों का निर्माण भी करा रहा है जबकि ज़मीन की मिल्कियत पटना विश्वविद्यालय के पास है।
फिर मची हलचल में पूर्व शिक्षा मंत्री पीके शाही के मध्यस्थता में बैठक बुलाई गई। उप कुलपति वाईसी सिम्हाद्री ने कहा कि डाल्फिन शोध संस्थान को अगर पटना विश्वविद्यालय के मातहत खोला जाये तो सिंडिकेट के फैसले के मुताबिक उसे ज़मीन देने में कोई अड़चन नहीं होगी।
उनका अनुरोध था कि राष्ट्रीय डॉल्फिन शोध संस्थान विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान विभाग के अन्तर्गत खोला जाये और सरकार उसे कोष उपलब्ध कराए। इस बीच विधानसभा चुनाव आ गए और मामला लटक गया।
अब योजना आयोग की मंजूरी और कोष के आवंटन को दो वर्ष से अधिक हो गए होंगे। गंगा की डॉल्फिन पर शोधरत जीव विज्ञान के प्राध्यापक आरके सिन्हा ने कहा कि हमने दानापुर से फतूहा के बीच कहीं भी पटना के आसपास डेढ़ से दो एकड़ ज़मीन देने का अनुरोध राज्य सरकार से किया था। पर कोई फैसला नहीं हो सका है। कमोबेश डॉल्फिन सर्वेक्षण की स्थिति भी यही है।
गंगा में डॉल्फिनों की संख्या के बारे में पिछला आकलन 2014 में किया गया था। तब गंगा में लगभग 3500 डॉल्फिन होने का अनुमान था।
वर्ष 1980 में उनकी संख्या 5000 आँकी गई थी। डॉल्फिनों की संख्या घटने के अनेक कारण हैं। इनमें औद्योगिक प्रदूषण, कीटनाशकों का प्रयोग, मछली मारने में नुक़सानदेह जाल का इस्तेमाल, मनमाने ढंग से बालू निकासी, शिकार इत्यादि शामिल हैं। हर वर्ष 10 से 15 डॉल्फिनें इन वजहों से मारी जाती हैं और उनके शव बरामद किये जाते हैं।
डॉल्फिन के तेल , मांस और चमड़े के लिये उनका शिकार भी होता है। उसके शरीर में 25 से 30 प्रतिशत वसा होती है। इस वसा या तेल का उपयोग दर्द की दवा बनाने में होता है।
हालांकि डॅाल्फिन पर वर्षों से शोधरत डॉ. आरके सिन्हा को सन्देह है कि डॉल्फिन को सल्फॉस नामक कीटनाशक देकर मारा जाता है। अवैध शिकारी छोटी मछलियों के पेट में सल्फास की गोली रखकर मछली को नाइलन के धागे के सहारे गंगा के प्रवाह में छोड़ देते हैं।
उसे खाने वाली डॉल्फिन कुछ देर में मर जाती हैं। लेकिन उनका कहना है कि मृत डॉल्फिन के शव बरामद होने पर उसका पोस्टमार्टम कराया जाये तो इसकी पुष्टि हो सकती है।
पहले मछुआरों के जाल में फँसने से डॉल्फिन के मारे जाने की घटनाएँ होती थीं। नाइलन के पतले जाल से कोई प्रतिध्वनि नहीं होती। इससे डॉल्फिन उसमें फँस जाते हैं और साँस लेने पानी के उपर खुली हवा में नहीं आ पाते।
पर नाइलन जाल में फँसकर डॉल्फिन के मरने की घटनाएँ अब बहुत कम हो गई हैं क्योंकि जाल में फँसे डॉल्फिन को जाल काटकर दोबारा गंगा में छोड़ने पर मछुआरों को जाल के दाम का मुआवजा दिया जाने लगा है।
उत्तर प्रदेश में गंगा और सहायक नदियों में 1263 डॉल्फिनें पाई गईं जबकि 2012 के सर्वेक्षण में इस वर्ष उनकी संख्या 671 थी। सर्वेक्षण 5 अक्टूबर से 8 अक्टूबर के बीच वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से किया। गणना गंगा से सभी सम्बन्धित राज्यों में एक साथ की गई।
बिहार में भी वन विभाग ने इसकी योजना बनाई थी। पर विधानसभा चुनावों के कारण गणना टल गई। गंगा और उसकी सहायक नदियों के निवासी सभी जीव-जन्तुओं की गणना हुई है। ऐसी गणना पहली बार कराई गई। बिहार में इस काम के लिये वन विभाग ने चार टीमों का गठन किया है।
उन्हें विभिन्न नदियों और सहायक नदियों का जिम्मा सौंप दिया गया। पर इस या उस कारण से एक साथ सभी राज्यों में गणना नहीं हो पाई। इससे गिनती में दुहराव का अंदेशा निश्चित तौर पर है। यह डॉल्फिनों की गणना की राष्ट्रीय योजना का हिस्सा है। इसे बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड में एक साथ गणना की जानी थी।
डॉल्फिन संरक्षण के विशेषज्ञ डॉ. आरके सिन्हा के अनुसार पहले भी कुछ राज्यों ने सर्वेक्षण कराया है, पर इस काम में लगे अलग-अलग टीमों ने अलग-अलग समय पर अलग-अलग पद्धति का इस्तेमाल किया।
इस साल पहली बार एकीकृत पद्धति का इस्तेमाल किया गया। सर्वेक्षण करने वाली चार टीमों में एक पटना यूनिवर्सिटी की होगी जो गंगा में पटना से चौसा के बीच, घाघरा में सिवान से डोरीगंज और पुनपुन व सोन नदियों में सर्वेक्षण करेगी।
वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया को गंडक नदी क्षेत्र का सर्वेक्षण करने का ज़िम्मा दिया गया है। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया पटना से सुल्तानगंज के बीच गंगा का सर्वेक्षण करने के अलावा बागमती, सिकरहना और अधवारा समूह की नदियों का सर्वेक्षण करेगी।
भागलपुर की एक टीम को सुल्तानगंज से कटिहार के बीच गंगा और कोसी, महानन्दा व मेची नदियों के सर्वेक्षण करेगी।
बिहार की गंगा में सर्वाधिक डॉल्फिन हैं और यहाँ उनका प्रजनन भी होता है। गंडक में 300 से अधिक डॉल्फिन होंगे तो कोसी और घाघरा में भी सौ से अधिक डॉल्फिन होने का अनुमान है। हालांकि इन्हें कभी-कभार बुढ़ी गंडक, बागमती, महानन्दा, अधवारा समूह की नदियों में भी देखा गया है। पर इन नदियों में कभी सर्वेक्षण नहीं कराया गया।
डॉल्फिन के बारे में पहला अध्ययन 1879 में हुआ था। उसे एंडरसन रिपोर्ट कहते हैं। रिपोर्ट के अनुसार गंगा की सभी सहायक नदियों में डॉल्फिन पाई जाती थी। केरल के एक वैज्ञानिक ने 1981 में बिहार में गंगा के अध्ययन के दौरान आकलन किया कि गंगा में चार से पाँच हजार डॉल्फिन होगी।
चूँकी डॉल्फिन की उपस्थिति को नदी के स्वस्थ होने का सवश्रेष्ठ संकेत माना जाता है, इसलिये राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन ने इसकी योजना बनाई।
मिशन केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनरुद्धार मंत्रालय का अंग है और एनडीए सरकार के नमामि गंगे कार्यक्रम का हिस्सा है जो गंगा की स्वच्छता और संरक्षण के विभिन्न कार्य योजनाओं का एकीकृत व समन्वित रूप है।
गंगा की डॉल्फिन खतरनाक ढंग से विलुप्ति की कगार पर है। इसे वन्यप्राणी (संरक्षण) अधिनियम.1972 की अनुसूची-1 में रखा गया है। वर्ष 2009 में 5 नवम्बर को केन्द्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। फिर भी यह सर्वाधिक संकटग्रस्त जीव है।
Path Alias
/articles/kayaa-sacamauca-badhai-daolaphainaen-para-raasataraiya-saodha-sansathaana-nahain-banaa
Post By: RuralWater