अगले हफ्ते फ्रांस की राजधानी पेरिस में 30 नवम्बर से आगामी 11 दिसम्बर तक होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन से पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण को कम करने और कार्बन उर्त्सजन को कम करने की दिशा में दुनिया को खासी उम्मीदें हैं। वह बात दीगर है कि पिछले दिनों पेरिस में हुए आतंकी हमले ने समूची दुनिया को हिला दिया है।
यही नहीं इस हमले ने समूची दुनिया को आतंक के खिलाफ एकजुट हो लड़ने की प्रेरणा भी दी है, इसमें भी दो राय नहीं है। हमले के बावजूद फ्रांस का पेरिस में होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन के हर हाल में आयोजन करने का निर्णय न केवल प्रशंसनीय है बल्कि वह अभूतपूर्व भी है।
आतंकी हमले के बावजूद जबकि फ्रांस में आगामी तीन माह के लिये आपातकाल लागू है, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का पर्यावरण सम्मेलन करने का फैसला इस बात का सबूत है कि वह पर्यावरण के प्रति गम्भीर रूप से कितने चिन्तित हैं। सम्मेलन से पूर्व इस माह के प्रारम्भ में उनकी चीन और दक्षिण कोरिया यात्रा भी इसी ओर संकेत करती है।
चीन में तो राष्ट्रति ओलांद पर्यावरण प्रदूषण कम करने वाली विशेष तकनीक को ही देखने गए थे। इसके लिये उन्होंने तो दक्षिणी-पश्चिमी चीन के एक छोटे से शहर छोंगटिंग की यात्रा की थी और दक्षिण कोरिया की यात्रा तो उन्होंने इस पर्यावरण शिखर सम्मेलन की तैयारी की ख़ातिर ही की थी।
इस सम्मेलन में दुनिया के तकरीब 147 देशों के शासनाध्यक्ष, प्रधानमंत्री, 40,000 के करीब प्रतिनिधि और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अलावा दुनिया के पत्रकार शामिल होंगे। लेकिन अब जैसी कि आशंका है, इस हमले के बाद सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले शासन प्रमुखों, प्रतिनिधियों की तादाद भले ही कम हो, लेकिन सम्मेलन होगा, इसमें सन्देह नहीं है।
भले यह सम्मेलन पेरिस में हुए आतंकी हमले के दो सप्ताह बाद हो रहा है, जिसमें 130 लोग मारे गए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साथी विश्व नेताओं से यह अपील की है कि वह पेरिस सम्मेलन में शिरकत करें। उन्होंने कहा है कि मुट्ठी भर हत्यारों की क्रूरता दुनिया को अपना कामकाज करने से नहीं रोक सकती।
फ्रांस ने भी कहा है कि अभी तक किसी भी देश के शासन प्रमुख की ओर से सम्मेलन में भाग लेने के अपने कार्यक्रम के रद्द होने की सूचना नहीं है। यह पर्यावरण के लिये शुभ संकेत है।
जहाँ तक कार्बन उर्त्सजन का सवाल है, समूची दुनिया में अमेरिका ही ऐसा देश है जो सबसे अधिक 16.6 ईपीटीसी कार्बन निकालकर वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। उसके बाद चीन है जो 7.4 ‘पर कैपिटाटन’ ईपीटीसी कार्बन उर्त्सजन कर वातावरण को प्रदूषित करता है।
आस्ट्रेलिया और सउदी अरब ऐसे दुनिया के दो देश हैं जो अमेरिका के बराबर कार्बन उर्त्सजन के मामले में शीर्ष पर हैं। ये दोनों देश 16.6 प्रतिशत ईपीटीसी की रेंज में हैं। इसके अतिरिक्त जापान, रूस, कनाडा, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस, ईरान, पोलैंड और मैक्सिको जैसे दुनिया के 40 देश इस श्रेणी में आते हैं जो दुनिया में कार्बन उर्त्सजन के मामले में शीर्ष पर हैं। इसके अलावा 28 देशों का समूह यूरोपीय संघ की कार्बन उर्त्सजन की मात्रा 7.3 प्रतिशत ईपीटीसी है।
इसकी तुलना यदि भारत से करें तो भारत मात्र 1.7 प्रति व्यक्ति टन कार्बन उर्त्सजन कर रहा है। विडम्बना यह कि इसके बावजूद भारत पर इसका दबाव है कि वह अपने यहाँ कार्बन उर्त्सजन कम करे। इस मामले में अमेरिका की तानाशाही तो जगजाहिर है।
पिछले वह चाहे कोपेनहेगन हो, क्योटो हो, दोहा हो, वारसा हो, आदि-आदि सभी सम्मेलन इस बात के जीते-जागते सबूत हैं कि अमेरिका ही इस दिशा में सबसे ज्यादा अड़चनें डालता रहा है और दोष दूसरों पर मढ़ता रहा है।
यह सर्वविदित है कि दुनिया में प्रदूषण कम करने की खातिर ‘इंटेडेड नेशनली डिटरमिंड कन्ट्रीव्यूशन’ आईएनडीसी का गठन इसलिये किया गया था कि दुनिया के देश प्रदूषण कम करने का संकल्प ले सकें। आईएनडीसी के जरिए भारत पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह अपने यहाँ 1990 में ग्रीनहाउस गैसों का जो स्तर था, आने वाले 15 सालों में यानी 2030 तक उससे भी 40 फीसदी कम करके उर्त्सजन को लेकर आये।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया के उन सभी देशों पर टैक्स लादने के बारे में विचार किया जा रहा है। दुख और आश्चर्य की बात तो यह है कि अमेरिका हमारे देश भारत को भी चीन सहित उन चार देशों की श्रेणी में शामिल करता है जो वातावरण को सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। इसे अमेरिका की दादागिरी कहें या ज़बरदस्ती कहें, गलत नहीं होगी।
अब यह सन्तोष की बात है कि अमेरिका और चीन दोनों ही ग्रीनहाउस गैसों का उर्त्सजन कम करने की योजना पर राजी हो गए हैं। चीन तो अपने यहाँ कोयला आधारित विद्युत परियोजनाओं को तेजी से कम करने पर नए समझौते में अपनी सहमति दे ही चुका है।
चीन की प्राथमिकता सौर व पवन ऊर्जा को बढ़ावा देने की है। इससे लगता है कि चीन इस जलवायु शिखर सम्मेलन में अमेरिका और फ्रांस की आशा के अनुरूप ही अपना रुख दिखाएगा। ऐसी उम्मीद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद दोनों को ही है।
जहाँ तक भारत का सवाल है कि भारत इस सम्मेलन में किन लक्ष्यों के साथ जाएगा। स्पष्ट है कि भारत ने विश्व का तीन फीसदी कार्बन स्थान घेर रखा है जबकि विकसित देश 74 फीसदी कार्बन क्षेत्र पर हावी हैं। दरअसल भारत के नेतृत्व वाला सौर गठबन्धन इस शिखर सम्मेलन में आकर्षण का केन्द्र होगा।
असलियत यह है कि स्वच्छ उर्जा के विकास में चीन और भारत के बीच करीबी सहयोग समय की माँग है। ग्लोबल टाइम्स के एक लेख पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत एक बड़ा बाजार है। यहाँ देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले तकरीब 30 करोड़ लोग ग्रिड से जुड़े हुए नहीं हैं।
बिजली उत्पादन के लिये सौर उर्जा को अपनाकर भारत जीवाश्म ईंधन की बाधा को दूरकर स्वच्छ ऊर्जा के युग में प्रवेश करेगा। लम्बे समय के हिसाब से देखें तो बीजिंग और नई दिल्ली चाँद पर ऊर्जा की संयुक्त रूप से खोज कर सकते हैं। वह चाँद पर सौर पैनल लगा सकते हैं और वर्तमान तकनीक के माध्यम से ऊर्जा को धरती पर भेज सकते हैं।
2020 से नए कार्बन उर्त्सजन कटौती मानक लागू करने की योजना है, और 2020 में ही जलवायु पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि खत्म होने जा रही है, अगर पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी तक सीमित करने पर निर्णय होता है तो भावी पीढ़ी के लिये अच्छी बात होगी। पेरिस में उन मतभेदों जिनकी वजह से कोपेनहेगन सम्मेलन असफल हुआ था, पर सहमति बन जाती है, तो स्पष्ट है कि वह 1999 के क्योटो आदर्श पत्र का स्थान ले लेगा। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी ही रहेगी। इस सम्मेलन में भारत कार्बन उर्त्सजन की तीव्रता घटाने के भावी लक्ष्यों को हासिल करने के लिये अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में किये गए प्रयासों पर पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराएगा। सम्मेलन में भारत यह दावा करने जा रहा है कि उसने ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन की तीव्रता में 12 फीसदी तक की कमी लाने में सफलता हासिल कर ली है।
वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की मानें तो संप्रग सरकार के कार्यकाल में यह लक्ष्य निर्धारित किया गया था कि 2020 तक ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन की तीव्रता को 20 से 25 फीसदी तक कम कर लिया जाएगा। मंत्रालय के अनुसार अब इसमें 12 फीसदी की कमी लाई जा चुकी है। भारत के इस दावे को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भी स्वीकार कर लिया है।
भारत का विश्वास है कि बाकी का लक्ष्य वह निर्धारित समय सीमा में हासिल कर लेगा। भारत ने अपने यहाँ 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों की उर्त्सजन तीव्रता को 35 फीसदी तक कम किये जाने का लक्ष्य रखा है। इस शर्त के साथ कि वह तीव्र आर्थिक विकास की दर हासिल करने के साथ-साथ उर्त्सजन के इस लक्ष्य को हासिल कर लेगा।
इस सम्मेलन में भारत की तरफ से वैकल्पिक उर्जा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों को दुनिया के सामने रखा जाएगा जिनकी बदौलत तीव्रता में कमी आई है। उदाहरण के तौर पर भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है।
इसमें 110 गीगावाट सौर ऊर्जा, 60 गीगावाट पवन ऊर्जा, 10 गीगावाट बायोमास उर्जा और पाँच गीगावाट छोटे एवं सूक्ष्म बिजली संयंत्रों से बिजली पैदा करने का लक्ष्य शामिल है। इसी प्रकार भारत कुछ नई नवोन्मेषी योजनाओं जैसे कोच्चि एयरपोर्ट पूरी तरह सौर ऊर्जा से संचालन, सोलर टॉप प्लाजा, ग्रीन हाइवे जैसी योजनाओं का भी सम्मेलन में खाका खीचेंगा।
उनका पूरा विवरण सम्मेलन के दौरान दुनिया के नेताओं के सामने पेश करेगा। इनके माध्यम से भारत जहाँ विश्व को अपनी भावी योजनाएँ बताएगा, वहीं वह तीव्र आर्थिक विकास की जरूरत को भी बताएगा। इसके साथ-साथ भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि अभी भी देश में 30 करोड़ आबादी को बिजली देना बाकी है जिसके लिये कोयला जैसे ईंधन की महती आवश्यकता है। इसके विकल्प के रूप में भारत सरकार का अक्षय उर्जा पर काम निरन्तर जारी है।
गौरतलब है कि भारत से वह देश खासी उम्मीद लगाए बैठे हैं जो कार्बन उत्सर्जन के नाम पर पश्चिमी देशों की दादागिरी कहें या चौधराहट के शिकार बनते रहे हैं। यह वे देश हैं जिनकी विकास दर काफी नीचे है और वह बिजली उत्पादन के लिये पश्चिमी देशों की ओर फंड के लिये ताकते रहते हैं।
कारण वैकल्पिक ऊर्जा के लिये उनके पास फंड ही नहीं है। और संयुक्त राष्ट्र व विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ जिन शर्तों पर विकासशील देशों को फंड देना चाहती हैं, उनको पूरा करना उनके बूते के बाहर की बात है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पहले ही वर्ल्ड मैट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन इस बात की घोषणा कर चुका है कि साल 2014 में पूरे वातावरण में तापमान नित नए रिकार्ड बना रहा है जिसके चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और उसके फलस्वरूप दुनिया में समुद्र तट के किनारे बसे शहर डूब जाएँगे।
रिपोर्ट के मुताबिक यदि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने का यही दौर जारी रहा और इसी तरह तापमान में बढ़ोत्तरी जारी रही तो समुद्री जल का स्तर 29 फीट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है और आने वाले समय में मुम्बई, कोलकाता, ढाका, शंघाई, हनोई, हांगकांग, न्यूयार्क, लंदन, रियो डि जेनेरो सहित कई एक शहर डूब सकते हैं।
अध्ययन के अनुसार अगर स्थिति में बदलाव नहीं आया तो ये महानगर 200 से 2000 साल तक समुद्री पानी में समा जाएँगे। आज हालत यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने ग्लोबल वार्मिंग की जो सीमा का निर्धारण किया है, आज उससे दो डिग्री सेल्सियस तापमान में बढ़ोत्तरी हो चुकी है।
यह बढ़ोत्तरी चिन्तनीय है। विडम्बना यह कि आज तक कोई अमेरिका से यह पूछने का साहस क्यों नहीं कर सका कि 1990 में ग्रीनहाउस गैसों का जो स्तर था, उससे 40 फीसदी कम उत्सर्जन अमेरिका आखिर क्यों नहीं कर सका। इसके लिये उसकी कौन सी मजबूरी थी।
अब जबकि 2020 से नए कार्बन उर्त्सजन कटौती मानक लागू करने की योजना है, और 2020 में ही जलवायु पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि खत्म होने जा रही है, अगर पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी तक सीमित करने पर निर्णय होता है तो भावी पीढ़ी के लिये अच्छी बात होगी।
पेरिस में उन मतभेदों जिनकी वजह से कोपेनहेगन सम्मेलन असफल हुआ था, पर सहमति बन जाती है, तो स्पष्ट है कि वह 1999 के क्योटो आदर्श पत्र का स्थान ले लेगा। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी ही रहेगी।
यही नहीं इस हमले ने समूची दुनिया को आतंक के खिलाफ एकजुट हो लड़ने की प्रेरणा भी दी है, इसमें भी दो राय नहीं है। हमले के बावजूद फ्रांस का पेरिस में होने वाले जलवायु शिखर सम्मेलन के हर हाल में आयोजन करने का निर्णय न केवल प्रशंसनीय है बल्कि वह अभूतपूर्व भी है।
आतंकी हमले के बावजूद जबकि फ्रांस में आगामी तीन माह के लिये आपातकाल लागू है, फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का पर्यावरण सम्मेलन करने का फैसला इस बात का सबूत है कि वह पर्यावरण के प्रति गम्भीर रूप से कितने चिन्तित हैं। सम्मेलन से पूर्व इस माह के प्रारम्भ में उनकी चीन और दक्षिण कोरिया यात्रा भी इसी ओर संकेत करती है।
चीन में तो राष्ट्रति ओलांद पर्यावरण प्रदूषण कम करने वाली विशेष तकनीक को ही देखने गए थे। इसके लिये उन्होंने तो दक्षिणी-पश्चिमी चीन के एक छोटे से शहर छोंगटिंग की यात्रा की थी और दक्षिण कोरिया की यात्रा तो उन्होंने इस पर्यावरण शिखर सम्मेलन की तैयारी की ख़ातिर ही की थी।
इस सम्मेलन में दुनिया के तकरीब 147 देशों के शासनाध्यक्ष, प्रधानमंत्री, 40,000 के करीब प्रतिनिधि और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अलावा दुनिया के पत्रकार शामिल होंगे। लेकिन अब जैसी कि आशंका है, इस हमले के बाद सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले शासन प्रमुखों, प्रतिनिधियों की तादाद भले ही कम हो, लेकिन सम्मेलन होगा, इसमें सन्देह नहीं है।
भले यह सम्मेलन पेरिस में हुए आतंकी हमले के दो सप्ताह बाद हो रहा है, जिसमें 130 लोग मारे गए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साथी विश्व नेताओं से यह अपील की है कि वह पेरिस सम्मेलन में शिरकत करें। उन्होंने कहा है कि मुट्ठी भर हत्यारों की क्रूरता दुनिया को अपना कामकाज करने से नहीं रोक सकती।
फ्रांस ने भी कहा है कि अभी तक किसी भी देश के शासन प्रमुख की ओर से सम्मेलन में भाग लेने के अपने कार्यक्रम के रद्द होने की सूचना नहीं है। यह पर्यावरण के लिये शुभ संकेत है।
जहाँ तक कार्बन उर्त्सजन का सवाल है, समूची दुनिया में अमेरिका ही ऐसा देश है जो सबसे अधिक 16.6 ईपीटीसी कार्बन निकालकर वातावरण को प्रदूषित कर रहा है। उसके बाद चीन है जो 7.4 ‘पर कैपिटाटन’ ईपीटीसी कार्बन उर्त्सजन कर वातावरण को प्रदूषित करता है।
आस्ट्रेलिया और सउदी अरब ऐसे दुनिया के दो देश हैं जो अमेरिका के बराबर कार्बन उर्त्सजन के मामले में शीर्ष पर हैं। ये दोनों देश 16.6 प्रतिशत ईपीटीसी की रेंज में हैं। इसके अतिरिक्त जापान, रूस, कनाडा, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, फ्रांस, ईरान, पोलैंड और मैक्सिको जैसे दुनिया के 40 देश इस श्रेणी में आते हैं जो दुनिया में कार्बन उर्त्सजन के मामले में शीर्ष पर हैं। इसके अलावा 28 देशों का समूह यूरोपीय संघ की कार्बन उर्त्सजन की मात्रा 7.3 प्रतिशत ईपीटीसी है।
इसकी तुलना यदि भारत से करें तो भारत मात्र 1.7 प्रति व्यक्ति टन कार्बन उर्त्सजन कर रहा है। विडम्बना यह कि इसके बावजूद भारत पर इसका दबाव है कि वह अपने यहाँ कार्बन उर्त्सजन कम करे। इस मामले में अमेरिका की तानाशाही तो जगजाहिर है।
पिछले वह चाहे कोपेनहेगन हो, क्योटो हो, दोहा हो, वारसा हो, आदि-आदि सभी सम्मेलन इस बात के जीते-जागते सबूत हैं कि अमेरिका ही इस दिशा में सबसे ज्यादा अड़चनें डालता रहा है और दोष दूसरों पर मढ़ता रहा है।
यह सर्वविदित है कि दुनिया में प्रदूषण कम करने की खातिर ‘इंटेडेड नेशनली डिटरमिंड कन्ट्रीव्यूशन’ आईएनडीसी का गठन इसलिये किया गया था कि दुनिया के देश प्रदूषण कम करने का संकल्प ले सकें। आईएनडीसी के जरिए भारत पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह अपने यहाँ 1990 में ग्रीनहाउस गैसों का जो स्तर था, आने वाले 15 सालों में यानी 2030 तक उससे भी 40 फीसदी कम करके उर्त्सजन को लेकर आये।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया के उन सभी देशों पर टैक्स लादने के बारे में विचार किया जा रहा है। दुख और आश्चर्य की बात तो यह है कि अमेरिका हमारे देश भारत को भी चीन सहित उन चार देशों की श्रेणी में शामिल करता है जो वातावरण को सबसे ज्यादा प्रदूषित कर रहे हैं। इसे अमेरिका की दादागिरी कहें या ज़बरदस्ती कहें, गलत नहीं होगी।
अब यह सन्तोष की बात है कि अमेरिका और चीन दोनों ही ग्रीनहाउस गैसों का उर्त्सजन कम करने की योजना पर राजी हो गए हैं। चीन तो अपने यहाँ कोयला आधारित विद्युत परियोजनाओं को तेजी से कम करने पर नए समझौते में अपनी सहमति दे ही चुका है।
चीन की प्राथमिकता सौर व पवन ऊर्जा को बढ़ावा देने की है। इससे लगता है कि चीन इस जलवायु शिखर सम्मेलन में अमेरिका और फ्रांस की आशा के अनुरूप ही अपना रुख दिखाएगा। ऐसी उम्मीद अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा और फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद दोनों को ही है।
जहाँ तक भारत का सवाल है कि भारत इस सम्मेलन में किन लक्ष्यों के साथ जाएगा। स्पष्ट है कि भारत ने विश्व का तीन फीसदी कार्बन स्थान घेर रखा है जबकि विकसित देश 74 फीसदी कार्बन क्षेत्र पर हावी हैं। दरअसल भारत के नेतृत्व वाला सौर गठबन्धन इस शिखर सम्मेलन में आकर्षण का केन्द्र होगा।
असलियत यह है कि स्वच्छ उर्जा के विकास में चीन और भारत के बीच करीबी सहयोग समय की माँग है। ग्लोबल टाइम्स के एक लेख पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत एक बड़ा बाजार है। यहाँ देश के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले तकरीब 30 करोड़ लोग ग्रिड से जुड़े हुए नहीं हैं।
बिजली उत्पादन के लिये सौर उर्जा को अपनाकर भारत जीवाश्म ईंधन की बाधा को दूरकर स्वच्छ ऊर्जा के युग में प्रवेश करेगा। लम्बे समय के हिसाब से देखें तो बीजिंग और नई दिल्ली चाँद पर ऊर्जा की संयुक्त रूप से खोज कर सकते हैं। वह चाँद पर सौर पैनल लगा सकते हैं और वर्तमान तकनीक के माध्यम से ऊर्जा को धरती पर भेज सकते हैं।
2020 से नए कार्बन उर्त्सजन कटौती मानक लागू करने की योजना है, और 2020 में ही जलवायु पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि खत्म होने जा रही है, अगर पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी तक सीमित करने पर निर्णय होता है तो भावी पीढ़ी के लिये अच्छी बात होगी। पेरिस में उन मतभेदों जिनकी वजह से कोपेनहेगन सम्मेलन असफल हुआ था, पर सहमति बन जाती है, तो स्पष्ट है कि वह 1999 के क्योटो आदर्श पत्र का स्थान ले लेगा। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी ही रहेगी। इस सम्मेलन में भारत कार्बन उर्त्सजन की तीव्रता घटाने के भावी लक्ष्यों को हासिल करने के लिये अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में किये गए प्रयासों पर पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट कराएगा। सम्मेलन में भारत यह दावा करने जा रहा है कि उसने ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन की तीव्रता में 12 फीसदी तक की कमी लाने में सफलता हासिल कर ली है।
वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की मानें तो संप्रग सरकार के कार्यकाल में यह लक्ष्य निर्धारित किया गया था कि 2020 तक ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन की तीव्रता को 20 से 25 फीसदी तक कम कर लिया जाएगा। मंत्रालय के अनुसार अब इसमें 12 फीसदी की कमी लाई जा चुकी है। भारत के इस दावे को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने भी स्वीकार कर लिया है।
भारत का विश्वास है कि बाकी का लक्ष्य वह निर्धारित समय सीमा में हासिल कर लेगा। भारत ने अपने यहाँ 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों की उर्त्सजन तीव्रता को 35 फीसदी तक कम किये जाने का लक्ष्य रखा है। इस शर्त के साथ कि वह तीव्र आर्थिक विकास की दर हासिल करने के साथ-साथ उर्त्सजन के इस लक्ष्य को हासिल कर लेगा।
इस सम्मेलन में भारत की तरफ से वैकल्पिक उर्जा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों को दुनिया के सामने रखा जाएगा जिनकी बदौलत तीव्रता में कमी आई है। उदाहरण के तौर पर भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है।
इसमें 110 गीगावाट सौर ऊर्जा, 60 गीगावाट पवन ऊर्जा, 10 गीगावाट बायोमास उर्जा और पाँच गीगावाट छोटे एवं सूक्ष्म बिजली संयंत्रों से बिजली पैदा करने का लक्ष्य शामिल है। इसी प्रकार भारत कुछ नई नवोन्मेषी योजनाओं जैसे कोच्चि एयरपोर्ट पूरी तरह सौर ऊर्जा से संचालन, सोलर टॉप प्लाजा, ग्रीन हाइवे जैसी योजनाओं का भी सम्मेलन में खाका खीचेंगा।
उनका पूरा विवरण सम्मेलन के दौरान दुनिया के नेताओं के सामने पेश करेगा। इनके माध्यम से भारत जहाँ विश्व को अपनी भावी योजनाएँ बताएगा, वहीं वह तीव्र आर्थिक विकास की जरूरत को भी बताएगा। इसके साथ-साथ भारत यह स्पष्ट कर चुका है कि अभी भी देश में 30 करोड़ आबादी को बिजली देना बाकी है जिसके लिये कोयला जैसे ईंधन की महती आवश्यकता है। इसके विकल्प के रूप में भारत सरकार का अक्षय उर्जा पर काम निरन्तर जारी है।
गौरतलब है कि भारत से वह देश खासी उम्मीद लगाए बैठे हैं जो कार्बन उत्सर्जन के नाम पर पश्चिमी देशों की दादागिरी कहें या चौधराहट के शिकार बनते रहे हैं। यह वे देश हैं जिनकी विकास दर काफी नीचे है और वह बिजली उत्पादन के लिये पश्चिमी देशों की ओर फंड के लिये ताकते रहते हैं।
कारण वैकल्पिक ऊर्जा के लिये उनके पास फंड ही नहीं है। और संयुक्त राष्ट्र व विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ जिन शर्तों पर विकासशील देशों को फंड देना चाहती हैं, उनको पूरा करना उनके बूते के बाहर की बात है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पहले ही वर्ल्ड मैट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन इस बात की घोषणा कर चुका है कि साल 2014 में पूरे वातावरण में तापमान नित नए रिकार्ड बना रहा है जिसके चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा और उसके फलस्वरूप दुनिया में समुद्र तट के किनारे बसे शहर डूब जाएँगे।
रिपोर्ट के मुताबिक यदि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने का यही दौर जारी रहा और इसी तरह तापमान में बढ़ोत्तरी जारी रही तो समुद्री जल का स्तर 29 फीट की ऊँचाई तक बढ़ सकता है और आने वाले समय में मुम्बई, कोलकाता, ढाका, शंघाई, हनोई, हांगकांग, न्यूयार्क, लंदन, रियो डि जेनेरो सहित कई एक शहर डूब सकते हैं।
अध्ययन के अनुसार अगर स्थिति में बदलाव नहीं आया तो ये महानगर 200 से 2000 साल तक समुद्री पानी में समा जाएँगे। आज हालत यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने ग्लोबल वार्मिंग की जो सीमा का निर्धारण किया है, आज उससे दो डिग्री सेल्सियस तापमान में बढ़ोत्तरी हो चुकी है।
यह बढ़ोत्तरी चिन्तनीय है। विडम्बना यह कि आज तक कोई अमेरिका से यह पूछने का साहस क्यों नहीं कर सका कि 1990 में ग्रीनहाउस गैसों का जो स्तर था, उससे 40 फीसदी कम उत्सर्जन अमेरिका आखिर क्यों नहीं कर सका। इसके लिये उसकी कौन सी मजबूरी थी।
अब जबकि 2020 से नए कार्बन उर्त्सजन कटौती मानक लागू करने की योजना है, और 2020 में ही जलवायु पर क्योटो प्रोटोकाल की अवधि खत्म होने जा रही है, अगर पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग को दो डिग्री सेल्सियस बढ़ोत्तरी तक सीमित करने पर निर्णय होता है तो भावी पीढ़ी के लिये अच्छी बात होगी।
पेरिस में उन मतभेदों जिनकी वजह से कोपेनहेगन सम्मेलन असफल हुआ था, पर सहमति बन जाती है, तो स्पष्ट है कि वह 1999 के क्योटो आदर्श पत्र का स्थान ले लेगा। यह एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी अन्यथा यह सारी कवायद बेमानी ही रहेगी।
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