क्या पानी होगा जंग का हथियार


भारत और पाकिस्तान के तल्ख होते रिश्तों के बीच प्राकृतिक संसाधनों के सामरिक इस्तेमाल को लेकर छिड़ी बहस

“पीने का पानी एक बहुमूल्य वस्तु है और जीवन का पर्याय भी। इसका होना शक्ति प्रदान करता है” -जल सुरक्षा के मुद्दे पर रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) टास्क फोर्स की रिपोर्ट

“पानी और खून एक साथ नहीं बह सकते” -पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि से जुड़ी एक बैठक को स्थगित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

.बिगड़े हुए भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों में, हमेशा से ही असहमति रही है। यह इतनी आम बात है कि हम अक्सर मजाक में पूछते हैंः आखिर दोनों देश किस बात पर सहमत हैं? वास्तव में, इस प्रश्न का एक उत्तर मौजूद है, भले ही यह सुनने में कितना अपवाद क्यों न लगे! विगत 56 वर्षों से दोनों देशों के बीच तीन युद्ध और द्विपक्षीय सम्बन्धों में कई कमजोर बिन्दुओं के बावजूद भी सिंधु जल संधि बरकरार रही है। इसलिये, जम्मू कश्मीर के उरी में सैनिक अड्डे पर आतंकवादी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वक्तव्य दिया कि “पानी और खून एक साथ नहीं बह सकते” और उन आयुक्तों की बैठक रद्द कर दी जो इस संधि के कार्यान्वयन की देख-रेख करते हैं। यहाँ से इस मुद्दे ने जो मोड़ लिया है और जिस तरह की रणनीति निकलकर सामने आ रही है, उसे लेकर आज हर कोई चिंतित दिखाई दे रहा है।

क्या भारत को अपने पड़ोसी के साथ लम्बी अवधि के सैन्य संघर्ष में पानी का इस्तेमाल एक रणनीतिक हथियार के तौर पर करना चाहिए? यह पहली बार नहीं है कि इस संधि की बात पाकिस्तान को आर्थिक तौर पर अपंग बनाने के साधन के रूप में की जा रही है। पाकिस्तान की 90 प्रतिशत कृषि सिंधु पर निर्भर है। अतीत में भी ऐसे कई मौके आए जब इस प्रकार के बड़े कदम उठाने की बात कही गई। लेकिन सरकार के आक्रामक रवैये और पीएम मोदी द्वारा सिंधु बैठक को स्थगित करने के कारण ऐसा लगता है कि सरकार इस विकल्प को लेकर काफी गम्भीर है।

अक्सर कहा जाता है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़ा जाएगा। दुनिया भर में देश नदी जल को लेकर आपस में लड़ रहे हैं और दुश्मन देशों के खिलाफ लम्बे संघर्षों में जल का इस्तेमाल घातक हथियार के तौर पर किया जा रहा है। जल बँटवारे पर कानूनी समझौतों के बावजूद यह सब बात हो रहा है।

भारत में जब सिंधु जल संधि को लेकर बहस छिड़ी थी, चीन ने ब्रह्मपुत्र की एक सहायक नदी की दिशा बदल दी, जो भारत में लाखों लोगों के लिये जीवनदायिनी है। सुरक्षा विशेषज्ञ इसका सीधा अर्थ यह निकालते हैं कि आजकल देश रणनीतिक सौदेबाजी में जल का इस्तेमाल पूरी गम्भीरता से कर रहे हैं। सुष्मिता सेनगुप्ता देश के चुनिंदा जल एवं सामरिक विशेषज्ञों के बीच छिड़ी बहस को आप तक पहुँचा रही हैं कि क्या भारत को जल का इस्तेमाल एक सैन्य हथियार के तौर पर करना चाहिएः

“सिंधु जल का उपयोग सामरिक साधन के तौर पर करना न नैतिक रूप से सही है और न ही तर्कसंगत” - अविलाश राउल, वरिष्ठ वैज्ञानिक, आईआईटी मद्रास

पानी पृथ्वी पर सर्वाधिक व्यापक रूप से बँटने वाले संसाधनों में से एक है। पाकिस्तान को जवाबी हमले के तौर पर सिंधु जल संधि विवाद, उरी हमले के बाद सामने आया है। सामान्यतः पानी का उपयोग ‘रणनीतिक साधन’ के रूप में नहीं होना चाहिए, खासतौर पर सिंधु जल संधि का। हमें यह समझना चाहिए कि एक चीज को बेवजह दूसरे मसले में घसीटने का कोई लाभ नहीं है।

हालाँकि ‘स्ट्रेटेजिक’ या ‘सामरिक’ शब्द की कोई सर्वसम्मत स्वीकृत परिभाषा नहीं हो सकती है, लेकिन पाकिस्तान और चीन जैसे लड़ाकू पड़ोसियों के साथ जुड़ाव के चलते मौजूदा विमर्श में इस शब्द का लापरवाही से प्रयोग किया जा रहा है। इस तरह की बातें नेपाल, भूटान या बांग्लादेश के साथ कभी नहीं हुईं। रणनीतिक संसाधन के दायरे को लेकर मुश्किल से ही कोई सहमति बन पाती है। सामान्य तौर पर रणनीतिक संसाधनों को इस तरह परिभाषित कर सकते हैंः अ) आपात स्थिति के दौरान सैन्य, औद्योगिक और नागरिक जरूरतों को पूरा करने वाली वस्तुएँ; ब) राज्य की इन जरूरतों को पूरा करने हेतु पर्याप्त मात्रा में उत्पादन या उपलब्धता का अभाव; स) सरकार द्वारा नियंत्रण, प्रबंध एवं संरक्षण।

वर्तमान परिस्थिति में यदि हम जल को सामरिक उपकरण मानते हैं तो राष्ट्र को न सिर्फ इससे जुड़े खतरे बल्कि इसकी उचित जवाबी कार्रवाई को भी परिभाषित करना पड़ेगा, जो ‘जल ही जीवन’ वाली भावना पर एक बड़ा आघात होगा। यह सिंधु नदी के दोनों ओर रहने वाले सभी लोगों को नाराज कर सकता है क्योंकि आस-पास का पूरा जीवन नदियों पर निर्भर होता है। इस तरह सामरिक साधन के तौर पर जल का उपयोग अपने आप में प्रतिबंधात्मक है।

पाकिस्तान पूरी तरह से सिंधु नदी के पानी पर निर्भर है, जबकि भारत के पास जलस्रोतों के कई विकल्प मौजूद हैं। सिंधु का पानी पाकिस्तान की 90 फीसदी खेती के काम आता है, जिससे वहाँ के 42.3 फीसदी लोगों की आजीविका चलती है। पाकिस्तान में गरीबी उन्मूलन सीधे तौर पर सिंधु जल के उचित बँटवारे और उपयोग से जुड़ा मामला है।

भारत में पानी के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीवन के अधिकार के तहत मूल अधिकार के तौर पर संरक्षित किया है। अपनी राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर भी भारत को इसी तरह का आचरण करना होगा। इसे सामरिक भावना से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। इसके अलावा, भारत की राष्ट्रीय जल-नीति भी साझा जल संसाधनों पर राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते हुए पड़ोसी देशों के साथ बातचीत का रास्ता अपनाने पर ही जोर देती है।

इस संदर्भ में देखा जाए तो सिंधु जल संधि के जरिये जल को एक सामरिक हथियार मानना न तो तर्कसंगत है और न ही उचित।

“नदियों को एक बड़े पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखना चाहिए। यह करोड़ों लोगों के जीवन का आधार हैं” - मेधा बिष्ट, सहायक प्रोफेसर, अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध विभाग साउथ एशियन यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली

कूटनीति की कला आपसी हित के मुद्दों पर सहयोग से काम करने पर जोर देती है। अक्सर उपयोग की जाने वाली शब्दावली ‘जल-विवाद’ ने हाल ही के कूटनीति की कला आपसी हितों वाले मुद्दों को असहमतियों को दरकिनार कर हल करने पर जोर देती है। सिंधु जल संधि तोड़ने को लेकर पैदा हालिया विवाद ने अक्सर इस्तेमाल होने वाली शब्दावली ‘वाटर डिप्लोमेसी’ की तरफ ध्यान खींचा है। हालाँकि, वाटर डिप्लोमेसी को दो देशों के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन यह उत्तेजक तनाव का साधन भी बन सकता है।

सिंधु जल संधि को लेकर विवाद खड़ा करना एक दुधारी तलवार जैसा साबित हो सकता है। इसके लिये कश्मीर के लोगों और विभिन्न पक्षों को साथ में लेना पड़ेगा। जम्मू एवं कश्मीर विधान सभा के सदस्यों ने हाल ही में इस संधि के पुनः मूल्यांकन का प्रस्ताव पारित किया है।

कूटनीति की कला में परम्पराओं का बड़ा महत्त्व है। भारत सिंधु नदी का ऊपरी इलाका न होकर, बीच का क्षेत्र है। इसके पानी को सामरिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चीन को गलत संदेश देगा, जहाँ से यह नदी निकलती है। इससे नदी के निचले इलाकों में बसे बांग्लादेश जैसे देशों में असुरक्षा की भावना पैदा हो जाएगी। इसके अलावा, संस्थागत व्यवस्था का सम्मान न करना भारत द्वारा अब तक अपनाई गई रणनीति के खिलाफ होगा। पड़ोसी देश के साथ कूटनीति से कुछ समय के लिये समझौता किया जा सकता है लेकिन इससे भारत की एक जिम्मेदार शक्ति की छवि लम्बे समय के लिये प्रभावित होगी।

नदी को एक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा न मानकर राजनीति का साधन मानने से उतना फायदा नहीं होगा, जितना नुकसान हो जाएगा। बल्कि अफगानिस्तान और चीन को शामिल कर सिंधु बेसिन की परिभाषा का विस्तार संवाद के दायरे को बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है। चीन और अफगानिस्तान दोनों अहम पक्ष हैं। चीन तिब्बत में वनों की अंधाधुंध कटाई के लिये जिम्मेदार है जबकि काबुल नदी सिंधु की एक महत्त्वपूर्ण सहायक नदी है। इन मुद्दों पर बातचीत की शर्तों को लेकर विचार-विमर्श होना चाहिए। भारत और पाकिस्तान भूजल के गम्भीर संकट के गवाह रहे हैं।

भूजल का अत्यधिक दोहन व प्रदूषण, भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ के पंजाब में, लोगों के स्वास्थ्य के लिये खतरा बन गया है। इससे पहले कि पानी दोनों देशों के बीच गलतफहमी का स्रोत बने और पानी की राजनीति गरीबी, बेरोजगारी और शासन से जुड़े मुद्दों से ध्यान हटाने वाली बहस बन जाए, पानी को राजनीति से अलग करना होगा। इस बहस को पर्यावरण प्रबंधन और पानी के प्राकृतिक प्रवाह से जोड़कर देखना एक रास्ता हो सकता है, जिससे आगे चलकर दोनों देशों के कूटनीतिक सम्बन्धों के मिजाज में बदलाव आ सकता है।

“ऐसे तो भारत वास्तव में पाकिस्तान की ही मदद करेगा” - बिक्षम गुज्जा, जलनीति विशेषज्ञ एवं विश्व वाटर फेडरेशन- इंटरनेशनल के पूर्व वरिष्ठ नीति विश्लेषक

क्या भारत सिंधु जल संधि को तोड़ सकता है? संधि में खत्म करने का कोई प्रावधान नहीं है। दिलचस्प बात है कि संधि की कोई समय सीमा भी नहीं है। यह संधि सिर्फ विवाद के समाधान का तंत्र प्रदान करती है। इसके अनुसार, इस संधि की व्याख्या या क्रियान्वयन अथवा किसी अन्य मुद्दे पर मतभेद अगर साबित हो जाते हैं तो इसे संधि का उल्लंघन माना जा सकता है। एक आयोग ऐसे मामलों पर विचार करता है। इसलिये, भारत को सबसे पहले सिंधु जल संधि तोड़ने के अपने इरादे अथवा इसके पुनः मूल्यांकन के बारे में संधि की निगरानी कर रहे आयुक्तों को औपचारिक रूप से सूचित करना होगा। भारत की दलीलों से पाकिस्तान शायद ही सहमत हो। यदि ऐसा होता है तो संधि के प्रावधानों के तहत एक तटस्थ विशेषज्ञ निर्णय करेगा कि क्या इस मामले को तकनीकी रूप से हल किया जा सकता है या फिर इसे विवाद माना जाए। दोनों की सहमति अथवा यदि किसी एक पक्ष को लगे कि दूसरा पक्ष अनावश्यक रूप से प्रक्रिया को लटका रहा है, तब यह विवाद आर्बिट्रेशन (मध्यस्थ) में जाएगा। आर्बिट्रेशन कोर्ट में सात सदस्य होते हैं, दो प्रत्येक देश द्वारा चुने हुए जाते हैं और तीन तटस्थ सदस्य दोनों देशों द्वारा सुझाए एक पैनल से लिये जाते हैं। जरूरी नहीं कि इस अदालत का फैसला भारत के पक्ष में आए। इस प्रक्रिया में कई वर्ष लग सकते हैं। निश्चित तौर पर, भारत को मुआवजा देने के लिये कहा जाएगा। संभवतः यह राशि बहुत बड़ी होगी। याद रखिए, भारत ने इस संधि में शामिल होने के लिये पाकिस्तान को काफी भुगतान किया था। यह पैसा पाकिस्तान में नहरों की व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिये दिया गया था।

अगर मान भी लें कि भारत प्रक्रिया के जरिये अथवा इसका पालन किए बगैर एकतरफा इस जल संधि से हाथ खींच लेता है। तब क्या भारत अपने मक्सद में कामयाब हो पाएगा? क्या सीमा पार से भारत में आतंकवादियों की घुसपैठ रुक जाएगी?

भारत के पास दो विकल्प हैं। पहला, पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम और चिनाब) का पानी रोक देना। क्या यह संभव है? हाँ, किंतु पानी के बहाव को रोकने या इसका रुख बदलने के लिये बाँध, नहरें आदि बनाने में काफी समय लगेगा। इस पर भारी खर्च आएगा। अगर ऐसा हो भी गया तो, रोके गए पानी का हम क्या करेंगे? इसे कहाँ ले जाएँगे? अब नहरों की पूरा व्यवस्था ही बदल चुकी है। इसलिये रोके गए पानी का उपयोग करना और इसके जरिये पाकिस्तान के आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचाना मुश्किल है। इससे थोड़ा-बहुत नुकसान तो पहुँचाया जा सकता है लेकिन क्या इससे सीमा पार से हो रहे हमलों और आतंकवाद पर रोक लग सकेगी?

दूसरा, भारत उत्तरी नदियों (रावी, ब्यास एवं सतलुज) से पानी छोड़कर पाकिस्तान में बाढ़ ला सकता है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यदि यह पानी छोड़ा जाता है, तो पंजाब की सिंचाई बुरी तरह से प्रभावित होगी। इस परिदृश्य में, यह भी सुनिश्चित नहीं है कि पाकिस्तान को कितना आर्थिक नुकसान होगा और भारत को कितना।

इसके अलावा, इस कदम से भारत की अन्तरराष्ट्रीय साख पर भी बुरा असर पड़ेगा। किसी भी तरीके से नदी के बवाह को बदलना बाढ़ का कारण बनेगा। वहीं दूसरी तरफ, यह कदम अन्तरराष्ट्रीय निंदा को न्यौता दे सकता है। इससे भारत की एक जिम्मेदार लोकतंत्र की अन्तरराष्ट्रीय छवि बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। क्या भारत को एक ऐसा मुद्दा उठाना चाहिए जिसके बारे में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है? हो सकता है, भारत सरकार के पास कोई स्पष्ट रणनीति हो, जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान पर नकेल कसने के हथियार के तौर पर सिंधु जल संधि का मुद्दा उठाकर भारत एक अनजान राह की ओर बढ़ रहा है। ऐसा कर भारत अपनी स्थिति मजबूत करने के बजाय पाकिस्तान को अधिक मदद करता दिखाई पड़ रहा है।

“यह जल आतंकवाद है!” - शफीक-उर-रहमान प्रोफेसर, पर्यावरण विज्ञान एसकेयूएएसटी, श्रीनगर

किसी संधि या समझौते के बगैर भी अन्तरराष्ट्रीय जल का प्रवाह रोकना, इसे धीमा करना अथवा कट्टर राष्ट्रवाद के लिये इसका उपयोग या दुरुपयोग करना अन्तरराष्ट्रीय मर्यादा का सरासर उल्लंघन है। यह बर्बर रुख ‘जल आतंकवाद’ से कम नहीं है। इसके लिये पीड़ित देश अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। इस सन्दर्भ में विधि विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ए.जी. नूरानी ने रेखांकित किया है, “कोई अन्तरराष्ट्रीय नदी पहले जहाँ से गुजरती है, उन देशों को अब इसके जल पर असीमित अधिकार प्राप्त नहीं हैं। ऐसे देश नदी जल के उपयोग के बारे में निर्णय लेते समय निचले इलाकों के हितों को ध्यान रखने के लिये बाध्य हैं।”

उल्लेखनीय है कि भारत के कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के जल बँटवारे का विवाद अभी तक नहीं सुलझा है, जिससे कानून-व्यवस्था की समस्या खड़ी हो गई, आर्थिक नुकसान हुआ और इन राज्यों में हालात बिगड़ गए। एक राज्य द्वारा नदी जल के मनमाने इस्तेमाल को दूसरे राज्य ने स्वीकार नहीं किया और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।

खुद जम्मू और कश्मीर भी अपने पानी से बनने वाली बिजली बँटवारे के मामले में भारत के जबरन पक्षपात से पीड़ित है। जम्मू-कश्मीर की नदियों के सारे फायदे भारत झपट लेता है और सिर्फ 12 फीसदी बिजली राज्य को मिलती है। भारत का यह अन्याय जम्मू-कश्मीर को ऊर्जा से वंचित कर देता है। घरेलू जरूरतों के अलावा भीषण सर्दियों में कृषि, बागवानी, उद्योग-धंधों, व्यापार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को बिजली की किल्लत का सामना करना पड़ता है। हैरानी और दुर्भाग्य की बात है कि भारत यह सब क्यों कर रहा है? अपने ‘अटूट अंग’ के साथ वह किस तरह के सम्बन्ध रखना चाहता है? भारत क्या जम्मू-कश्मीर के साथ पाकिस्तान जैसा बर्ताव नहीं कर रहा है?

 

क्या है सिंधु जल संधि


सिंधु जल संधि, विश्व बैंक की मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के जल वितरण को लेकर हुई एक संधि है। 19 सितम्बर, 1960 को कराची में भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान ने इस संधि पर हस्ताक्षर किये थे। इस समझौते के अनुसार, तीन पूर्वी नदियों (ब्यास, रावी और सतलुज) पर नियंत्रण करने का अधिकार भारत को दिया गया, जबकि तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, चिनाब और झेलम) का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया है। इस जल बँटवारे के जरिये भारत के जम्मू एवं कश्मीर राज्य को सिंचाई के लिये बहुत थोड़ी मात्रा में पानी दिया गया, जबकि यह संधि पाकिस्तान के सिंधु नदी बेसिन की 80 फीसदी भूमि को सिंचित करने के लिये पर्याप्त पानी मुहैया कराती है। संधि भारत को सिंचाई, परिवहन और बिजली उत्पादन की अनुमति देती है, जबकि नदी परियोजनाओं के निर्माण के लिये स्पष्ट नियम-कायदे तय हैं।

 



TAGS

Water dispute between india and pakistan summary in Hindi, Water dispute between india and pakistan pdf in Hindi, indus water treaty dispute in Hindi, hindi nibandh on Water dispute between india and pakistan, quotes Water dispute between india and pakistan in hindi, Water dispute between india and pakistan hindi meaning, Water dispute between india and pakistan hindi translation, Water dispute between india and pakistan hindi pdf, Water dispute between india and pakistan hindi, hindi poems Water dispute between india and pakistan, quotations Water dispute between india and pakistan hindi, Water dispute between india and pakistan essay in hindi font, impacts of Water dispute between india and pakistan hindi, hindi ppt on Water dispute between india and pakistan, Water dispute between india and pakistan the world, essay on Water dispute between india and pakistan in hindi, language, essay on Water dispute between india and pakistan, Water dispute between india and pakistan in hindi, essay in hindi, essay on Water dispute between india and pakistan in hindi language, essay on Water dispute between india and pakistan in hindi free, formal essay on Water dispute between india and pakistan, Bharat aur Pakistan ka Jal-yuddha in Hindi,


Path Alias

/articles/kayaa-paanai-haogaa-janga-kaa-hathaiyaara

Post By: Hindi
×