मनरेगा को, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े ही हिकारत भरे अल्फाजों में महज गड्ढे खोदना करार दिया था, अब सरकार इस योजना का सेहरा अपने सिर बाँध रही है। मनरेगा के मुताल्लिक सरकार का मानना है कि योजना से ग्रामीणों को फायदा हुआ और गरीबों के मजदूरी स्तर में भी सुधार आया है। यानी योजना की आलोचना करते-करते सरकार का मन अब मनरेगा पर आ गया है। सरकार को लगने लगा है कि योजना को खारिज कर उसने एक बड़ी भूल की थी...
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना यानी मनरेगा ने देखते-देखते एक दशक का लंबा सफर तय कर लिया है। बीते दो फरवरी को देश में मनरेगा के दस साल पूरे हो गए। कल तक इसकी आलोचना करने वाली राजग सरकार ने योजना की समीक्षा करते हुए इसकी तारीफ की है। सरकार का कहना है कि मनरेगा व अन्य सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में वह अब कोई कटौती नहीं करेगी। योजना के 10 साल पूरे होने के अवसर पर हुए एक सरकारी कार्यक्रम में सरकार ने इसकी उपलब्धियोंं को राष्ट्रीय गर्व और उत्सव का विषय बतलाया है। जाहिर है कि सरकार का यह नजरिया उसके पूर्व के नजरिए से बिल्कुल उलट है। इस योजना को, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े ही हिकारत भरे अल्फाजों में महज गड्ढे खोदना करार दिया था, अब सरकार इस योजना का सेहरा अपने सिर बाँध रही है। मनरेगा के मुताल्लिक सरकार का मानना है कि योजना से ग्रामीणों को फायदा हुआ और गरीबों के मजदूरी स्तर में भी सुधार आया है। यानी योजना की आलोचना करते-करते सरकार का मन अब मनरेगा पर आ गया है। सरकार को लगने लगा है कि योजना को खारिज कर उसने एक बड़ी भूल की थी। लिहाजा अब मनरेगा का विरोध दरकिनार कर वह इसे अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है।पूर्ववर्ती संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल में साल 2006 में शुरू हुई मनरेगा को उस वक्त गरीबी हटाने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल के रूप में देखा गया था। यह योजना दरअसल, संसद में पारित एक कानून है, इसे मानने से या अपने यहाँ लागू करने से कोई राज्य सरकार इनकार नहीं कर सकती। मनरेगा, दीगर सामाजिक योजनाओं से इस मायने में अलग है कि इस योजना की पूरी रूप-रेखा माँग आधारित है। जैसा कि नाम से जाहिर है महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना, ग्रामीण बेरोजगारों के लिये सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा भुगतान देने की योजना है। योजना के तहत सरकार, गरीब परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देती है। यही नहीं योजना में यह भी प्रावधान है कि जिन लोगों को काम नहीं मिल पाता, उन्हें बेरोजगारी भत्ता मिले।
यह योजना जब से देश के अंदर अमल में आई है, ग्रामीण भारत में कई अहम-तरीन बदलाव देखने को मिले हैं। मसलन, गाँव से शहर की ओर बड़े पैमाने पर होने वाला मजदूरों का पलायन रुका, गाँवों में ही नए-नए रोजगार सृजित हुए और इससे गाँवों के अंदर बुनियादी ढाँचा मजबूत हुआ। योजना ने महिलाओं को काम का महत्त्वपूर्ण अवसर उपलब्ध कराया, जिससे लैंगिक समानता को भी बढ़ावा मिला। योजना की वजह से जहाँ ग्रामीण भारत को बार-बार आने वाली परेशानियों और प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबला करने में मदद मिली तो वहीं विस्तारित कृषि उत्पादन और निर्माण श्रमिकों की माँग से श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में भी वृद्धि हुई। यहाँ तक कि उस वक्त जब कई विकसित यूरोपीय देश अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक मंदी से जूझ रहे थे, तब मनरेगा ही थी जिसने हमारे देश को आर्थिक मंदी से बचाया।
हाल ही में आए एक सर्वे के मुताबिक, मनरेगा की वजह से आदिवासियों में गरीबी 28 फीसदी और दलितों में 38 फीसदी कमी आई है। बदलाव बड़े स्तर पर भी हुए हैं। वह मनरेगा ही थी, जिसकी वजह से साल 2008 और 2014 के बीच दस करोड़ बैंक और पोस्ट ऑफिस खाते खोले गए और कुल मजदूरी के 80 फीसदी हिस्से का इसके जरिए भुगतान किया गया। सही मायने में यह वित्तीय समावेशन की एक बड़ी मिसाल है। जाहिर है कि जब मजदूरी का भुगतान सीधे बैंक खातों में हुआ तो सरकारी धन में भी भ्रष्टाचार और रिसाव में कमी आई। यह एक बड़ी कामयाबी थी। यानी मनरेगा जब से शुरू हुई, तब से लेकर अब तक उसके खाते में कई उपलब्धियाँ और सफलताएँ हैं। पिछले एक दशक में सरकार ने इस योजना की मद से गाँवों के विकास के लिये तकरीबन 3.14 लाख करोड़ रुपए खर्च किए हैं। योजना के तहत काम कर रहे श्रमिकों की संख्या इस वक्त लगभग दस करोड़ है। इसे मनरेगा का असर ही कहेंगे कि बीते दस साल में ग्रामीण भारत के अंदर प्रति व्यक्ति मजदूरी, हर साल बारह फीसद की दर से बढ़ी है और यह सिलसिला साल 2014-15 तक चला।
एक तरफ मनरेगा की यह उपलब्धियाँ और सफलताएँ थीं, जो साफ-साफ नजर आती हैं तो वहीं दूसरी ओर राजग सरकार का इस योजना के बारे में शुरू से ही नकारात्मक रवैया था। राजग सरकार के केंद्र में सत्तारुढ़ होने के बाद से ही यह योजना सरकार और उसके मंत्रियों के निशाने पर आ गई थी। बीते साल फरवरी महीने में लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना को गरीबी से निपटने में कांग्रेस पार्टी की विफलता का जिंदा स्मारक बतलाया था। बाद में इसी तरह की राय तत्कालीन केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने भी संसद के अंदर जाहिर की कि मनरेगा में बदलाव अपेक्षित है। समझा जा सकता है कि जब योजना पर प्रधानमंत्री की ही ऐसी नकारात्मक सोच हो, तो उसे प्रभावित होना ही था। आगे चलकर बजट में यह दिखा भी। वित्त वर्ष 2014-15 के बजट में सरकार ने मनरेगा के मद में महज 34,000 करोड़ रुपए की रकम जारी की, जोकि राज्यों द्वारा इस मद में माँगी गई रकम से 45 फीसद कम थी।
सरकार ने इस दिशा में दूसरा कदम यह उठाया कि उसने बिना सोचे-समझे मनरेगा के तहत मजदूरी की दर 119 रुपए तय कर दी। अलबत्ता उसकी यह कोशिश कामयाब नहीं हो पाई। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने उसकी इस मंशा पर पानी फेर दिया।
अदालत ने एक मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को आदेश दिया कि मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाले मजदूर को न्यूनतम मजदूरी राज्यों द्वारा तय की गई दर से दी जाए, न कि केन्द्र सरकार द्वारा तय दर से। कुल मिलाकर बीते दो सालों के दरमियान मनरेगा को लेकर मोदी सरकार का रवैया कभी हाँ तो कभी न वाला ही रहा है। सरकार की एक कोशिश यह भी थी कि वह इस योजना के मजदूरी और सामग्री अनुपात को 60:40 से बदलकर 51:49 करना चाहती थी, लेकिन जब इसका विरोध हुआ तो सरकार ने इससे अपने बढ़ते कदम वापस खींच लिये। जाहिर है, योजना के श्रम आधारित स्वरूप में बदलाव करने की कोई सी भी कोशिश, इस कानून के मुख्य मकसद को ही प्रभावित करती।
अब जबकि राजग सरकार ने पिछले साल देश में पड़े अभूतपूर्व सूखे के दौरान मनरेगा की उपयोगिता समझ ली है तो योजना पर उसका पूरा रुख ही बदल गया है। सरकार दावा कर रही है कि पिछले वित्त वर्ष के दौरान यह योजना पटरी पर लौटी है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि मोदी सरकार मनरेगा में सुधार लेकर आई है। राजग शासनकाल में मनरेगा के कोष को बढ़ाए जाने के साथ-साथ कई नए कदम उठाए गए। ताकि योजना के लाभ बेहतर ढंग से लोगों तक पहुँच सके। यूपीए हुकूमत के दौरान फंड में कमी की वजह से यह योजना दयनीय हालत में पहुँच गई थी। जबकि सरकार के इन दावों में जरा सी भी सच्चाई नहीं। सरकार के इन बड़े-बड़े दावों के बरक्स हकीकत यह है कि सरकार ने कभी योजना के बजट में कटौती की कोशिशें कीं तो कभी फंड आवंटित करने में देर की। मिसाल के तौर पर वित्त वर्ष 2013-14 में रोजगार के कुल श्रम दिवसों की संख्या जहाँ 220 थी, वह वित्त वर्ष 2014-15 में घटकर 166 रह गई है। सौ दिन तक काम पाने वाले परिवारों की संख्या वित्त वर्ष 2012-13 में जहाँ 51 लाख से ऊपर थी, 2014-15 में यह घट कर 25 लाख पर आ गई है। हालात मजदूरी के भुगतान में भी सही नहीं हैं।
वित्त वर्ष 2013-14 में 15 दिनों के भीतर भुगतान किए जाने का आँकड़ा 50 फीसद था, जो गिरकर 2014-15 में 26.85 फीसद ही रह गया। इसमें भी धन का आवंटन अप्रत्याशित बना हुआ है। मौजूदा हालत यह है कि कई राज्यों के पास इस योजना में फंड का अभाव है। जिसके चलते वे चाहते हुए भी लोगों को नए काम देने और मजदूरी के भुगतान करने की स्थिति में नहीं हैं। जनवरी, 2016 तक देश के 14 राज्यों के पास इस योजना में कोई पैसा नहीं बचा है। जाहिर है कि जब राज्य सरकारों के पास फंड ही नहीं है तो मनरेगा में कैसे सुधार आ रहा होगा, खुद ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
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