क्या कर्तव्यहीन मनुष्य धरती पर बोझ नहीं

मकान बनाने या उसकी मरम्मत करने में जितनी वस्तुओं का उपयोग होता है, उनमें शायद ही कोई चीज होती होगी जिससे धरती, उसके पर्यावरण और उसकी पारिस्थितिकी को हानि न पहुँचती हो। उदाहरण के लिये जिन वस्तुओं का इस्तेमाल हमारे फ्लैट को ‘रहने लायक’ बनाने में इस्तेमाल किया गया, वे हैं : पानी, रेता-बजरी, बदरपुर, रोड़ी, दाना, ग्रेनाइट, मार्बल, सीमेंट, ईंट, लोहा, तांबा, इमारती लकड़ी के अनेक उत्पाद यथा प्लाई, बाँस, अल्युमिनियम, शीशा, प्लास्टिक, पीवीसी, थिनर, फेवीकोल, रासायनिक रंग, सेरेमिक, प्लास्टर ऑव पेरिस और न जाने क्या-क्या। कुछ अपवादों को छोड़कर मनुष्य अन्ततः पर्यावरण और पारिस्थितिकी का यदि शत्रु नहीं तो मित्र भी नहीं है। उसके मूल आचरण में ऐसे तत्व बहुत कम हैं जो उसे धरती का मित्र साबित करते हों। शायद यही कारण रहा होगा कि मनीषियों को विभिन्न धर्मशास्त्रों और आख्यानों में पृथ्वी के महत्त्व का वर्णन करना पड़ा और मनुष्य का आह्वान करना पड़ा कि उसे धरती के स्वास्थ्य और संरक्षण की निरन्तर चिन्ता करनी है।

कम-से-कम पाँच सहस्त्राब्दि पूर्व ऋषि अथर्वन द्वारा रचित चौथे और अन्तिम वेद ‘अथर्वेद’ के बारहवें अध्याय में ‘पृथिवी’ सूक्त है। इस सूक्त में पूरी मानव जाति के लिये शाश्वत सन्देश है, जिसमें सहिष्णुता और सदाशयता की पराकाष्ठा है। इसमें मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का उल्लेख आज भी अपने रचनाकाल जितना या सम्भवतः उससे भी अधिक सार्थक है।

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने ‘पृथिवी’ सूक्त और उस पर श्रीनिवास सोहोनी की टीका पढ़ने के बाद इस सूक्त का भावानुवाद किया, जो पुस्तक के रूप में 1992 में भारतीय पर्यावरण समिति ने प्रकाशित किया। 'पृथिवी' नामक इस पुस्तक की भूमिका में मधुकर उपाध्याय ने लिखा है कि 'पृथिवी' सूक्त मानवमात्र के उत्कर्ष की कामना का समूहगान है। इसमें पृथ्वी को जिन रूपों में देखा गया है उसमें देश, काल, रंग, जाति, धर्म, भाषा, लिंग, आदि का कोई स्थान नहीं है। ऋषि अथर्वन की अवधारणा में पृथ्वी माँ का स्वरूप है और मानव उसका पुत्र।

इस सूक्त में कहा गया है कि मानव का जीवन उसकी संस्कृति, स्वरूप और अस्तित्व सब धरती पर आधारित है, इसलिये मनुष्य को इसका उपभोग करना चाहिए। पर साथ ही, इसकी सीमाएँ निर्धारित की गई हैं और मानव से अपेक्षा की गई है कि यह उपभोग सृजनात्मक हो, सीमित हो तथा पृथ्वी को अपकार पहुँचा, बिना हो जिसमें उसके मूल तत्वों को न छुआ जाये।

ऋषि अथर्वन ने सम्पूर्ण मानव जाति की ओर से इस सूक्त के 35वें श्लोक में कहा है कि “यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोह तु, मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयर्पिपम।” अर्थात ओ पावन धरती तुम्हें और तुम्हारे मूल तत्वों को चोट पहुँचा, बिना हम इस मिट्टी का सृजनात्मक उपभोग करें।

मनुष्य किस प्रकार से धरती को हानि पहुँचाता है, इसका एक उदाहरण मैं यहाँ देता हूँ। मेरी पत्नी ने बारह-चौदह साल पहले दिल्ली के रोहिणी में डीडीए का एक एमआईजी फ्लैट बैंक से लोन लेकर खरीदा था। इस वर्ष फरवरी में वह सरकारी नौकरी से रिटायर हुईं तो सरकारी फ़्लैट से डीडीए फ्लैट में शिफ्ट होने की मजबूरी बनी और किरायेदार द्वारा लगभग गुफा बना दिये गए फ्लैट को रहने लायक घर बनाना आवश्यक हो गया।

परिणामस्वरूप, ढाई महीने से अधिक समय तक यह काम चला। मैं सप्ताह में दो-चार दिन 35 किमी का एक ओर का सफर तय कर आयुर्विज्ञान नगर से रोहिणी जाता, काम करने वालों पर नजर रखता और सोचता रहता कि घर ठीक करवा रहा हूँ या प्रकृति को नुकसान पहुँचा रहा हूँ? यह भी सोचता रहता कि जब एक छोटा सा घर ठीक करने में पर्यावरण और पारिस्थितिकी को इतना नुकसान होता है तो बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने में और फिर पूरा शहर बसाने में कितना नुकसान होता होगा। और यह भी कल्पना करता कि दुनिया के लाखों शहरों-कस्बों को बनाने में प्रकृति को कितना नुकसान पहुँचा होगा।

और हाँ, मकान बनाने या उसकी मरम्मत करने में जितनी वस्तुओं का उपयोग होता है, उनमें शायद ही कोई चीज होती होगी जिससे धरती, उसके पर्यावरण और उसकी पारिस्थितिकी को हानि न पहुँचती हो। उदाहरण के लिये जिन वस्तुओं का इस्तेमाल हमारे फ्लैट को ‘रहने लायक’ बनाने में इस्तेमाल किया गया, वे हैं : पानी, रेता-बजरी, बदरपुर, रोड़ी, दाना, ग्रेनाइट, मार्बल, सीमेंट, ईंट, लोहा, तांबा, इमारती लकड़ी के अनेक उत्पाद यथा प्लाई, बाँस, अल्युमिनियम, शीशा, प्लास्टिक, पीवीसी, थिनर, फेवीकोल, रासायनिक रंग, सेरेमिक, प्लास्टर ऑव पेरिस और न जाने क्या-क्या।

उपरोक्त वस्तुओं में से एक भी ऐसी नहीं है जिससे पर्यावरण और पारिस्थितिकी को नुकसान न पहुँचा हो। हमने अपने 80-85 मीटर के घर को ठीक करने में यदि इतना नुकसान पहुँचाया तो धरती की छाती पर बोझ की तरह खड़े करोड़ों-करोड़ों मकानों-भवनों के निर्माण ने क्या-क्या नुकसान न पहुँचाया होगा? और हाँ, मनुष्य जीवन भर इस धरती को नुकसान पहुँचाता रहता है। यह नित्य-प्रतिदिन होता रहता है। तो ऐसे में क्या यह कहें कि धरती से मानव अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए? पर, तब यह सवाल भी तो पैदा हो सकता है कि धरती का महत्व मनुष्य के बिना कितना होगा?

इस प्रश्न की गूढ़ता में जाये बिना यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि आज धरती का तापमान बढ़ने से जलवायु परिवर्तन की जो स्थितियाँ बनी हैं उनके लिये केवल और केवल मानव ही जिम्मेदार है। आदम युग से लेकर आज के अत्याधुनिक युग तक को देखें तो सहज ही मालूम हो जाएगा कि मनुष्य के अलावा धरती पर कोई भी जीव-जन्तु या कीड़ा-मकोड़ा नहीं है जिसने अपनी जीवन-पद्धति में कोई आमूल परिवर्तन किया हो।

जिन जीव-जन्तुओं ने अपनी जीवन-पद्धति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन किया भी है, उसके लिये भी मानव ही दोषी है। यदि जंगलों में निवास करने वाले बन्दरों को सड़कों के किनारे भिखारियों की तरह बैठे रहने को मजबूर किया है तो उसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं। ऐसे ही अनेक वन्य जीवों की जीवन-पद्धति में आये परिवर्तन के लिये भी मानव ही जिम्मेदार है। उत्तराखण्ड की तराई में यदि हाथी घरों में घुस रहे हैं तो इसके लिये भी हाथी नहीं, हम जिम्मेदार हैं।

यही मनुष्य इस प्यारी धरा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाता है। कल्पना करें कि यह धरती कितनी सुन्दर रही होगी जब इस पर मनुष्य नामक प्राणी मूल अवस्था यानी आदम अवस्था में रहा होगा।

खैर, वह इस धरती पर पैदा हुआ और उसने धीरे-धीरे इसकी विरासत को हड़पना शुरू कर दिया। शुरू-शुरू में यह नुकसान ज्यादा नहीं था, पर जैसे-जैसे वह अपने को सामाजिक, तथाकथित सभ्य और सम्पन्न बनाता गया, वैसे-वैसे वह धरती का दुश्मन बनता चला गया। और दुर्भाग्य से हम ऐसे समय में पैदा हुए हैं जब मनुष्य धरती का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है। उदाहरण एक नहीं है। यहाँ एक व्यक्तिगत उदाहरण पूरे विषय पर प्रकाश डाल देगा।

एक बार फिर से लिखता हूँ कि जब एक छोटे से घर की मरम्मत में इतना कुछ गँवाना पड़ा तब दुनिया के सब गाँवों, कस्बों, शहरों से लेकर सड़कों, बाँधों, पुलों, रेल-लाइनों, बिजली-लाइनों और बड़ी-बड़ी आधारभूत परियोजनाओं को बनाने में धरती की विरासत को कितना नुकसान नहीं हुआ होगा। इस बारे में किसी भी व्यक्ति या देश के पास आँकड़े नहीं होंगे और हो भी नहीं सकते, पर यदि होते तो वे कितने चौंकाने वाले होते। जिस प्रकार हमारे पर्यावरणविद एकोलोजीकल कम्पेनशेशन की बात करते हैं, वह अजीब है क्योंकि ऐसा न तो है और न ही हो सकता है। पर, अब हम अब ऐसा क्या कर सकते हैं कि नुकसान तीव्रता से न हो।

मुझे तो कभी थोरो याद आते हैं और कभी महात्मा गाँधी। कभी गाँधी की यह बात कि धरती पर मनुष्य के लिये सब कुछ है पर उसके लालच के लिये नहीं तो कभी गाँधी से भी पहले हुए थोरो के सरल और सादे जीवन के बारे में प्रवचन।

धरती को हो चुके नुकसान की भरपाई की सम्भावना तो दिखाई नहीं देती पर अगर पूरी मानवता तय कर ले कि अब और नुकसान नहीं पहुँचाना है तो कुछ बातों पर गौर करना पड़ेगा। सबसे पहले तो हमें अपनी आबादी पर अंकुश लगाना होगा। अत्यधिक जनसंख्या के कारण धरती के सीमित संसाधनों और धरोहरों पर अनावश्यक बोझ बढ़ रहा है। आवास, कृषि-खेती-भोजन, पानी जैसी मूल समस्याएँ बढ़ रही हैं।

आवास, भोजन और पानी की उपलब्धता कम होने के कारण स्वास्थ्य, शिक्षा, आवागमन-परिवहन, इत्यादि का संकट भी बढ़ रहा है। और इन समस्याओं के बढ़ने से आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट भयावह रूप लेते जा रहे हैं। समाज में हिंसा बढ़ रही है, मानवीय रिश्ते प्रभावित हो रहे हैं और संक्षेप में समाज बिखर रहा है। और, इन सब तत्वों के उग्र होने से धरती का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन की स्थिति भयावह होती जा रही है।

पर सार तो यह है कुछ जीव-जन्तुओं द्वारा अपनी जीवन-पद्धति में परिवर्तन किया भी है, तब भी उन्होंने मनुष्य की तरह धरती को नुकसान पहुँचाकर अपने लिये विलासिता की वस्तुएँ जुटाना शुरू नहीं किया है। और न ही, अपनी आवश्यकता से अधिक बटोरना शुरू किया है।

अन्त में, एकबार फिर पृथिवी सूक्त के 45वें श्लोक का उल्लेख करना आवश्यक है जिसमें कहा गया है कि निर्विकार, स्थायी, शान्त आवास सी पृथ्वी हमें असीमित सम्पदा और सुख देना। पर यदि मनुष्य धरती को बराबर चोट पहुँचाता रहेगा तो उसे असीमित सम्पदा और सुख मिलेंगे कैसे?

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