बढ़ते जलवायु संकट के दौर में अलग से पर्यावरण संबंधी कायदे-कानून बनाए गए और इनके उल्लंघन की स्थिति में सजा तय करने और विवादों का समय से निपटारा करने की जरूरत भी महसूस की गई। इस तकाजे को पूरा करने की दिशा में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बाद भारत तीसरा देश है जहां हरित न्यायाधिकरण के गठन की पहल हुई है। इसके चार खंडपीठ देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थापित करने की योजना पर्यावरण मंत्रालय ने घोषित की थी। लेकिन पिछले महीने मद्रास उच्च न्यायालय ने न्यायाधिकरण में सदस्यों की नियुक्ति के नियमों के सवाल पर स्थगन आदेश जारी कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने उस रोक को हटा कर हरित अदालतें गठित करने का रास्ता साफ कर दिया है। साथ ही उसने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को छह मई तक इससे संबंधित सभी नियम-कायदों को अंतिम रूप देकर अदालत को सूचित करने को कहा है, ताकि न्यायाधिकरण का कामकाज शुरू हो सके।
गौरतलब है कि अभी पर्यावरण से जुड़े साढ़े पांच हजार से ज्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं। अब तक पर्यावरण और जैव विविधता के मसले पर विवाद की स्थिति में उच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती थी। लेकिन हरित पंचाट के काम शुरू करने के बाद इस तरह की सभी अर्जियां सिर्फ इसी के समक्ष दायर की जा सकेंगी। जाहिर है, इसमें एक व्यावहारिक समस्या यह खड़ी होगी कि जिस राज्य में इसके खंडपीठ स्थापित किए जाएंगे, दूसरे राज्यों के लोगों को भी अपनी अर्जी लेकर वहीं जाना पड़ेगा।
हरित न्यायाधिकरण चूंकि केवल पर्यावरण से संबंधित मामलों की सुनवाई करेगा, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि शिकायतों के निपटारे में तेजी आएगी। लेकिन यह समझ से परे है कि नियमों के उल्लंघन, पर्यावरण या मानव स्वास्थ्य को नुकसान के मद्देनजर अगर कोई व्यक्ति या समूह हर्जाने की मांग करते हुए मुकदमा दर्ज कराता है तो उसके लिए अपने दावे की एक फीसद रकम या कम से कम एक हजार रुपए अदालत-शुल्क के रूप में जमा करने का नियम किन आधारों पर तय किया गया। उदाहरण के तौर पर, आज अगर भोपाल गैस कांड के पीड़ित यूनियन कार्बाइड से हरित न्यायाधिकरण कानून के तहत मुआवजे की मांग करते हैं तो उन्हें दस करोड़ रुपए से ज्यादा रकम शुल्क के रूप में देनी होगी। इस तरह की अनिवार्यता शायद ही किसी दूसरे कानून में हो, यानी न्याय देने के लिए दोषियों के बजाय पीड़ितों पर ऐसी शर्त लगाई गई हो।
विकास और पर्यावरण संरक्षण काद्वंद्व बहुत व्यापक है। सरकारें आमतौर पर विकास के नाम पर गरीबों के हितों की और पर्यावरण की अनदेखी करती रही हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के जिम्मेवार आम लोग नहीं होते। बल्कि वे विस्थापन और रोजी-रोटी छिन जाने से लेकर सेहत को होने वाले नुकसान तक तमाम रूपों में इनके शिकार होते हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि पच्चीस साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिल पाया है।
सरकार एक तरफ हरित अदालतें गठित कर रही हैं तो दूसरी ओर कानूनों में ऐसे पेच डाल रही है कि हर्जाने की अपील करने से पहले पीड़ित पक्ष को सौ बार सोचना पड़े। हरित पंचाट का ठोस नतीजा तभी आ सकता है जब मुआवजे की मांग से संबंधित नियम-कायदों की विसंगतियां दूर की जाएं।
गौरतलब है कि अभी पर्यावरण से जुड़े साढ़े पांच हजार से ज्यादा मामले अदालतों में लंबित हैं। अब तक पर्यावरण और जैव विविधता के मसले पर विवाद की स्थिति में उच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती थी। लेकिन हरित पंचाट के काम शुरू करने के बाद इस तरह की सभी अर्जियां सिर्फ इसी के समक्ष दायर की जा सकेंगी। जाहिर है, इसमें एक व्यावहारिक समस्या यह खड़ी होगी कि जिस राज्य में इसके खंडपीठ स्थापित किए जाएंगे, दूसरे राज्यों के लोगों को भी अपनी अर्जी लेकर वहीं जाना पड़ेगा।
हरित न्यायाधिकरण चूंकि केवल पर्यावरण से संबंधित मामलों की सुनवाई करेगा, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि शिकायतों के निपटारे में तेजी आएगी। लेकिन यह समझ से परे है कि नियमों के उल्लंघन, पर्यावरण या मानव स्वास्थ्य को नुकसान के मद्देनजर अगर कोई व्यक्ति या समूह हर्जाने की मांग करते हुए मुकदमा दर्ज कराता है तो उसके लिए अपने दावे की एक फीसद रकम या कम से कम एक हजार रुपए अदालत-शुल्क के रूप में जमा करने का नियम किन आधारों पर तय किया गया। उदाहरण के तौर पर, आज अगर भोपाल गैस कांड के पीड़ित यूनियन कार्बाइड से हरित न्यायाधिकरण कानून के तहत मुआवजे की मांग करते हैं तो उन्हें दस करोड़ रुपए से ज्यादा रकम शुल्क के रूप में देनी होगी। इस तरह की अनिवार्यता शायद ही किसी दूसरे कानून में हो, यानी न्याय देने के लिए दोषियों के बजाय पीड़ितों पर ऐसी शर्त लगाई गई हो।
विकास और पर्यावरण संरक्षण काद्वंद्व बहुत व्यापक है। सरकारें आमतौर पर विकास के नाम पर गरीबों के हितों की और पर्यावरण की अनदेखी करती रही हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलाने और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के जिम्मेवार आम लोग नहीं होते। बल्कि वे विस्थापन और रोजी-रोटी छिन जाने से लेकर सेहत को होने वाले नुकसान तक तमाम रूपों में इनके शिकार होते हैं। यह याद रखा जाना चाहिए कि पच्चीस साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद भी भोपाल गैस कांड के पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिल पाया है।
सरकार एक तरफ हरित अदालतें गठित कर रही हैं तो दूसरी ओर कानूनों में ऐसे पेच डाल रही है कि हर्जाने की अपील करने से पहले पीड़ित पक्ष को सौ बार सोचना पड़े। हरित पंचाट का ठोस नतीजा तभी आ सकता है जब मुआवजे की मांग से संबंधित नियम-कायदों की विसंगतियां दूर की जाएं।
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