मरुस्थलीकरण जमीन के अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिवधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। इससे जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। एशियाई देशों में मरुस्थलीकरण पर्यावरण सम्बन्धी एक प्रमुख समस्या है। भारत में निर्जल भूमि के अन्तर्गत गर्म जलवायु वाले शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और अर्द्ध-नम क्षेत्र शामिल हैं। सरल शब्दों में समझे तो मरुस्थलीकरण एक तरह से भूमि क्षरण का वह प्रकार है, जब शुष्क भूमि क्षेत्र निरंतर बंजर होता है और नम भूमि भी कम हो जाती है। साथ ही साथ, वन्यजीव और वनस्पति भी खत्म होती जाती है। इसकी कई वजह होती है, इसमें जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियां प्रमुख हैं। इसे रेगिस्तान भी कहा जाता है और दुनिया का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुका है। भारत की कुल जमीन का लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल बन चुका है।
विश्व भर में तेजी से मरुस्थलीकरण होने के कारण माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक मरुस्थलीकरण के कारण विश्व की करीब 70 करोड़ की आबादी को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा। मरुस्थलीकरण के कारण न केवल मानवीय जीवन पर प्रभाव पड़ रहा है, बल्कि वन्यजीवों पर भी इससे संकट के बादल मंडरा रहे हैं और उनका जीवन प्रभावित हो रहा है। भूमि के बंजर होने से लगातार खेती का क्षेत्र घटता जा रहा है और भू-क्षरण बढ़ रहा है। जिससे निकट भविष्य अनाज का भीषण संकट गहराने की संभावना जताई जा रहा है। यही कारण है कि पूरी दुनिया मरुस्थलीकरण को लेकर चिंतित है। इसी चिंता ने विश्व के सभी देशों को मरुस्थलीकरण से निपटने के लिए एकजूट किया और इस संयुक्त राष्ट्र के काॅप 14 सम्मेलन (यूएनसीसीडी) लक्ष्य भी बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकना ही रखा गया तथा भारत पहली बार संयुक्त राष्ट्र के काॅप 14 (यूएनसीसीडी) की मेजबानी भी कर रहा है। 2 सितंबर से 13 सितंबर तक चलने वाले इस सम्मेलन का आयोजन ग्रेटर नाॅएडा में किया जा रहा है, जहां 196 देशों के प्रतिनिधि, बुद्धिजीवि, मीडिया प्रतिनिधि, पर्यावरणविद, छात्र-छात्राएं आदि मरुस्थलीकरण और सूखे पर मंथन करेंगे। दो सितंबर को सम्मेलन के शुभारंभ के अवसर पर केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि दुनिया को बढ़ते मरूस्थलीकरण को बचाने के लिए सकारात्मक प्रयास करने होंगे। ऐसा करने से जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन को रोका जा सकता है।
कॉप क्या है ?
काॅप को सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था के रूप में कन्वेंशन द्वारा स्थापित किया गया था। इसमें यूरोपीय संघ जैसे सरकारी और क्षेत्रीय आर्थिक एकीकरण संगठन शामिल हैं। आज तक काॅप ने तेरह सत्र आयोजित किए थे। यह वर्ष 2001 से आयोजित किया जा रहा है। वर्ष 2017 में चीन के ऑर्डोस में काॅप 13 का आयोजन किया गया था। काॅप का एक मुख्य कार्य पार्टियों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट की समीक्षा करना है कि वे अपनी प्रतिबद्धताओं को कैसे पूरा कर रहे हैं। काॅप इन रिपोर्टों के आधार पर सिफारिशें करता है। इसमें कन्वेंशन में संशोधन करने या नए एनेक्स को अपनाने की शक्ति भी है, जैसे कि अतिरिक्त क्षेत्रीय कार्यान्वयन एनेक्स। इस तरह, काॅप कन्वेंशन को वैश्विक परिस्थितियों और राष्ट्रीय जरूरतों के बदलाव के रूप में मार्गदर्शन कर सकता है। इस वर्ष भारत में काॅप के 14वे सम्मेलन की मेजबानी कर रहा है।
खेती के योग्य बनाने हेतु यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता
केंद्र सरकार बंजर जमीन को खेती के योग्य बनाने के लिए यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन के साथ समझौता भी करेगी। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सम्मेलन के पहले दिन कहा था कि हमारी सरकार नई दिल्ली डिक्लेरेशन में बताए गए नियम एवं कायदों के मुताबिक इस काम को आगे बढ़ाएंगी।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क (यूएनएफसीसीसी)
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क (यूएनएफसीसीसी) एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसका मुख्य उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था। इस समझौते पर विभिन्न देशों द्वारा हस्ताक्षर के बाद 21 मार्च 1994 को इसे लागू किया गया था। यूएनएफसीसीसी की वार्षिक बैठक का आयोजन साल 1995 से लगातार किया जा रहा है। यूएनएफसीसीसी की वार्षिक बैठक को कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप) के नाम से भी जाना जाता है।
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