अमेरिका के तीन नामी विश्वविद्यालयों के शोध के अनुसार, धरती पर जीवन अब अंत की ओर बढ़ रहा है। सबसे पहले खत्म होने वाली प्रजाति इंसानों की हो सकती है। इसके अलावा रीढ़ की हड्डी वाले जानवरों के लुप्त होने की दर सामान्य से 114 गुना तेज है। अब हम लुप्त होने के छठे बड़े दौर में प्रवेश कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर प्रजातियों के लुप्त होने की आखिरी ऐसी घटना साढ़े छह करोड़ साल पहले घटी थी। तब डायनासोर धरती से लुप्त हो गए थे। पर अब खतरा इंसानों के सिर पर मंडरा रहा है...धरती पर जीवन के अंत की शुरुआत हो चुकी है। बदलते मौसम और जलवायु के कारण स्तनधारियों की 77 प्रजातियाँ, 140 तरह के पक्षी और 24 तरह के उभयचर प्राणी लुप्त हो चुके हैं। हर साल जानवरों की 50 प्रजातियाँ खत्म होने के कगार पर पहुँच जाती हैं। अमेरिका के तीन नामी विश्वविद्यालयों के शोध के अनुसार, धरती पर जीवन अब अंत की ओर बढ़ रहा है। सबसे पहले खत्म होने वाली प्रजाति इंसानों की हो सकती है। इसके अलावा रीढ़ की हड्डी वाले जानवरों के लुप्त होने की दर सामान्य से 114 गुना तेज है। अब हम लुप्त होने के छठे बड़े दौर में प्रवेश कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर प्रजातियों के लुप्त होने की आखिरी ऐसी घटना साढ़े छह करोड़ साल पहले घटी थी। तब डायनासोर धरती से लुप्त हो गए थे। पर अब खतरा इंसानों के सिर पर मंडरा रहा है। दुनियाभर के लोग बदलते मौसम के कहर से परेशान हैं। ठंडे स्थान और ठंडे हो रहे हैं, जबकि गर्म जगहें ज्यादा गर्म हो रही हैं। तूफान, बाढ़, सूखा और भूकम्प की घटनाएँ अब विकराल रूप में बार-बार कहर बरपा रही हैं।
हमनें अपनी ही करतूतों से प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। कुदरत का अंधाधुंध दोहन और शोषण करना अब हमारे लिए काल बनता जा रहा है। आज मनुष्य के लिए शुद्ध वायु, जल और भोजन का मिलना मुश्किल हो गया है। जो उसके स्वस्थ और दीर्घ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास की आधुनिक नीति ने आज जल, थल और नभ- इन तीनों को विषाक्त कर दिया है। इससे मानव जाति सहित कई जीवों के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। पिछले 40-50 वर्षों में इस धरती के कई जीव-जन्तु हमारी कारगुजारियों के कारण विलुप्त हो गए हैं और कई विलुप्ति के कगार पर हैं। पर्यावरण में कई खतरनाक घटनाएँ आज साफ-साफ दिखाई दे रही हैं। हर साल 60 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बेकार की मरूभूमि में बदल रही है। ऊसर बनी ऐसी जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर होता है। हर साल 110 लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिए जाते हैं, जो तीस साल में भारत जैसे देश के क्षेत्रफल के बराबर हो सकता है।
अधिकांश जमीन जहाँ पहले वन उगते थे, ऐसी खराब कृषि भूमि में बदल जाती है, जहाँ रहने वाले खेतिहरों को भी पर्याप्त भोजन दिलाने में असमर्थ हैं। विकास की इस प्रक्रिया को यदि रोका नहीं गया तो हमारा महाविनाश निश्चित है। आधुनिक पारिस्थितिक अनुसंधान से ज्ञात होता है कि जैव मंडल पर मनुष्य के अनवरत, एकतरफा और काफी हद तक अनियन्त्रित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्यता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुद्यानों में रूपांतरित करने के अलावा मरुद्यानों के स्थानों पर रेगिस्तानों को स्थापित कर देगी। इससे पृथ्वी पर सारे जीवन के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा। अब यह साफ जाहिर हो गया है कि मनुष्य द्वारा भौतिक चीजों का नियोजित उत्पादन जैव मंडल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रभावों का अनियोजित उत्पादन भी करता है और यह ऐसे बड़े पैमाने पर होता है कि उत्पादित प्रभाव पृथ्वी पर स्वयं मनुष्य सहित सारे जीवन को नष्ट करने का खतरा पैदा कर देते हैं।
प्रमुख जैविकविद जानवरों और पौधों की जातियों के इतने बड़े पैमाने पर लुप्त होने का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो प्राकृतिक तथा मनुष्य की क्रिया के फलस्वरूप पिछले करोड़ों वर्षों में हुए उनके विलुप्तीकरण से कहीं अधिक बड़ा होगा। यह बात भी सिद्धांतत: सच है कि अंतत: सारी जैविक प्रजातियाँ विलुप्त होंगी। परन्तु पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध और इस शताब्दी के शुरुआती दशक में वीरान क्षेत्रों में मनुष्य की बस्तियाँ बस जाने, जहरीले पदार्थों के व्यापक उपयोग तथा प्रकृति के निर्मम शोषण की वजह से जातियों के विलुप्तीकरण की दर तेजी से बढ़ी है और जातियों-प्रजातियों के क्रम-विकास की दर के मुकाबले बहुत अधिक हो गई है। पिछले 2000 वर्षों में जो जातियाँ विलुप्त हुईं, उनमें आधी से अधिक 1900 के बाद ही हुई हैं। प्रकृति व प्राकृतिक साधनों के अन्तरराष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग 1000 जातियों के लुप्त होने का खतरा है। कुछ जैविकविद यह समझते हैं कि पौधों की किसी एक जाति के लुप्त होने से कीटों, जानवरों या अन्य पौधों की 10 से 30 तक जातियाँ विलुप्त हो सकती हैं।
एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनकी एक बहुत बड़ी संख्या के जीवित बचे रहने की सम्भावना बहुत कम है। यदि पृथ्वी के इस जैविक दरिद्रीकरण को जारी रहने दिया जाएगा, तो विनाश की इस परिणात्मक वृद्धि से अगले चंद दशकों में ही लोगों के होश आने से पहले ही जैव मंडल पूरी तरह से बदल जाएगा। वास्तव में मनुष्य जाति ने भौतिक उत्पादन के विकास से जैव मंडल के आंगिक ढाँचे में एक विशेष कृत्रिम अंग शामिल कर दिया है। उसके इस कार्य का न सिर्फ समाज और उत्पादन के हमारे लक्ष्यों के साथ बल्कि जैव मंडल की क्रिया के साथ भी समन्वय होना जरूरी है। इसके लिए हमें उद्योगों के विकास पर रोक नहीं लगानी है, वरन उनके विकास का ढँग सुनियोजित करना है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि क्या वहाँ के उद्योग धँधे हमारे परिवेश में सामंजस्य बिठा सकेंगे? हमारे विकास कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए, जिससे अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुँचे। वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने मनुष्य को प्रकृति पर नियन्त्रण का विशेष अधिकार दे दिया है। हम पर्वतों को हटा सकते हैं, नदियों के मार्ग बदल सकते हैं, नए सागरों का निर्माण कर सकते हैं और विशाल रेगिस्तानों को उर्वर मरूद्यानों में परिणत कर सकते हैं।
हम प्राकृतिक जगत में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं। हमारे उत्पादक व आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी कार्यकलाप अंतरिक्ष तक विस्तृत हो गए हैं। पर हम प्राकृतिक जगत पर अपने अंतहीन अतिक्रमण तथा बगैर सोचे-समझे, उसमें बड़े-बड़़े फेरबदल करके इस अधिकार का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं कर सकते और हमें करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इसके हानिकारक परिणाम हो सकते हैं। हम उत्पादक कार्यों के द्वारा जैव मंडल में हुए परिवर्तनों को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम पृथ्वी पर जीवन प्रणाली के विभिन्न तत्वों पर अपने प्रभाव को सावधानी से देखते रहें। मौलिक प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरित करना तथा विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे- भूकम्पों, टाईफूनों, चक्रवातों, बाढ़ व सूखों, चुंबकीय व सौर आंधियों, रेडियो सक्रियता, अंतरिक्षणीय विकिरणों के विरुद्ध संघर्ष करना सम्भव ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। परन्तु ऐसे परिवर्तन केवल उन नियमों के ही अनुसार किए जा सकते हैं, जिनके द्वारा जैव मंडल एक अखंड व स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता तथा विकसित होता रहे।
ईमेल - nirankarsi@gmail.com
हमनें अपनी ही करतूतों से प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। कुदरत का अंधाधुंध दोहन और शोषण करना अब हमारे लिए काल बनता जा रहा है। आज मनुष्य के लिए शुद्ध वायु, जल और भोजन का मिलना मुश्किल हो गया है। जो उसके स्वस्थ और दीर्घ जीवन के लिए सबसे जरूरी है। वैज्ञानिक और तकनीकी विकास की आधुनिक नीति ने आज जल, थल और नभ- इन तीनों को विषाक्त कर दिया है। इससे मानव जाति सहित कई जीवों के जीवन और अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर दिया है। पिछले 40-50 वर्षों में इस धरती के कई जीव-जन्तु हमारी कारगुजारियों के कारण विलुप्त हो गए हैं और कई विलुप्ति के कगार पर हैं। पर्यावरण में कई खतरनाक घटनाएँ आज साफ-साफ दिखाई दे रही हैं। हर साल 60 लाख हेक्टेयर खेती योग्य भूमि बेकार की मरूभूमि में बदल रही है। ऊसर बनी ऐसी जमीन का क्षेत्रफल तीस साल में लगभग सऊदी अरब के क्षेत्रफल के बराबर होता है। हर साल 110 लाख से अधिक हेक्टेयर वन उजाड़ दिए जाते हैं, जो तीस साल में भारत जैसे देश के क्षेत्रफल के बराबर हो सकता है।
अधिकांश जमीन जहाँ पहले वन उगते थे, ऐसी खराब कृषि भूमि में बदल जाती है, जहाँ रहने वाले खेतिहरों को भी पर्याप्त भोजन दिलाने में असमर्थ हैं। विकास की इस प्रक्रिया को यदि रोका नहीं गया तो हमारा महाविनाश निश्चित है। आधुनिक पारिस्थितिक अनुसंधान से ज्ञात होता है कि जैव मंडल पर मनुष्य के अनवरत, एकतरफा और काफी हद तक अनियन्त्रित प्रभाव से हमारी सभ्यता एक ऐसी सभ्यता में तब्दील हो सकती है, जो मरुभूमियों को मरुद्यानों में रूपांतरित करने के अलावा मरुद्यानों के स्थानों पर रेगिस्तानों को स्थापित कर देगी। इससे पृथ्वी पर सारे जीवन के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा। अब यह साफ जाहिर हो गया है कि मनुष्य द्वारा भौतिक चीजों का नियोजित उत्पादन जैव मंडल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रभावों का अनियोजित उत्पादन भी करता है और यह ऐसे बड़े पैमाने पर होता है कि उत्पादित प्रभाव पृथ्वी पर स्वयं मनुष्य सहित सारे जीवन को नष्ट करने का खतरा पैदा कर देते हैं।
प्रमुख जैविकविद जानवरों और पौधों की जातियों के इतने बड़े पैमाने पर लुप्त होने का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो प्राकृतिक तथा मनुष्य की क्रिया के फलस्वरूप पिछले करोड़ों वर्षों में हुए उनके विलुप्तीकरण से कहीं अधिक बड़ा होगा। यह बात भी सिद्धांतत: सच है कि अंतत: सारी जैविक प्रजातियाँ विलुप्त होंगी। परन्तु पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध और इस शताब्दी के शुरुआती दशक में वीरान क्षेत्रों में मनुष्य की बस्तियाँ बस जाने, जहरीले पदार्थों के व्यापक उपयोग तथा प्रकृति के निर्मम शोषण की वजह से जातियों के विलुप्तीकरण की दर तेजी से बढ़ी है और जातियों-प्रजातियों के क्रम-विकास की दर के मुकाबले बहुत अधिक हो गई है। पिछले 2000 वर्षों में जो जातियाँ विलुप्त हुईं, उनमें आधी से अधिक 1900 के बाद ही हुई हैं। प्रकृति व प्राकृतिक साधनों के अन्तरराष्ट्रीय रक्षा संगठन ने अनुमान लगाया है कि अब औसतन हर वर्ष एक जाति या उपजाति लुप्त हो जाती है। इस समय पक्षियों और जानवरों की लगभग 1000 जातियों के लुप्त होने का खतरा है। कुछ जैविकविद यह समझते हैं कि पौधों की किसी एक जाति के लुप्त होने से कीटों, जानवरों या अन्य पौधों की 10 से 30 तक जातियाँ विलुप्त हो सकती हैं।
एक अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनकी एक बहुत बड़ी संख्या के जीवित बचे रहने की सम्भावना बहुत कम है। यदि पृथ्वी के इस जैविक दरिद्रीकरण को जारी रहने दिया जाएगा, तो विनाश की इस परिणात्मक वृद्धि से अगले चंद दशकों में ही लोगों के होश आने से पहले ही जैव मंडल पूरी तरह से बदल जाएगा। वास्तव में मनुष्य जाति ने भौतिक उत्पादन के विकास से जैव मंडल के आंगिक ढाँचे में एक विशेष कृत्रिम अंग शामिल कर दिया है। उसके इस कार्य का न सिर्फ समाज और उत्पादन के हमारे लक्ष्यों के साथ बल्कि जैव मंडल की क्रिया के साथ भी समन्वय होना जरूरी है। इसके लिए हमें उद्योगों के विकास पर रोक नहीं लगानी है, वरन उनके विकास का ढँग सुनियोजित करना है। इस तथ्य पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि क्या वहाँ के उद्योग धँधे हमारे परिवेश में सामंजस्य बिठा सकेंगे? हमारे विकास कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए, जिससे अधिक से अधिक लोगों को लाभ पहुँचे। वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने मनुष्य को प्रकृति पर नियन्त्रण का विशेष अधिकार दे दिया है। हम पर्वतों को हटा सकते हैं, नदियों के मार्ग बदल सकते हैं, नए सागरों का निर्माण कर सकते हैं और विशाल रेगिस्तानों को उर्वर मरूद्यानों में परिणत कर सकते हैं।
हम प्राकृतिक जगत में मौलिक परिवर्तन कर सकते हैं। हमारे उत्पादक व आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी कार्यकलाप अंतरिक्ष तक विस्तृत हो गए हैं। पर हम प्राकृतिक जगत पर अपने अंतहीन अतिक्रमण तथा बगैर सोचे-समझे, उसमें बड़े-बड़़े फेरबदल करके इस अधिकार का अविवेकपूर्ण उपयोग नहीं कर सकते और हमें करना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इसके हानिकारक परिणाम हो सकते हैं। हम उत्पादक कार्यों के द्वारा जैव मंडल में हुए परिवर्तनों को कतई नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि हम पृथ्वी पर जीवन प्रणाली के विभिन्न तत्वों पर अपने प्रभाव को सावधानी से देखते रहें। मौलिक प्राकृतिक पर्यावरण को मनुष्य की आवश्यकताओं के अनुसार रूपांतरित करना तथा विनाशक प्राकृतिक शक्तियों जैसे- भूकम्पों, टाईफूनों, चक्रवातों, बाढ़ व सूखों, चुंबकीय व सौर आंधियों, रेडियो सक्रियता, अंतरिक्षणीय विकिरणों के विरुद्ध संघर्ष करना सम्भव ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। परन्तु ऐसे परिवर्तन केवल उन नियमों के ही अनुसार किए जा सकते हैं, जिनके द्वारा जैव मंडल एक अखंड व स्वनियामक प्रणाली के रूप में काम करता तथा विकसित होता रहे।
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Post By: RuralWater