कूच की नौबत ही क्यों आये

किसान आंदोलन
किसान आंदोलन

दिल्ली कूच तो 2018 में हुए उन किसान आन्दोलनों की एक कड़ी भर था, जिन्हें केन्द्र तथा राज्य सरकार ने दबाने का प्रयास किया। इससे औपनिवेशिक दौर के बारे में कही गई बातें याद हो आती हैं। किसानों को हाईवे जाम करने पड़ रहे हैं, ताकि अपने लोकतांत्रिक ‘‘रहनुमाओं’ की तवज्जो पा सकें। उदाहरण के लिये 2018 में किसान आन्दोलनों को लें। मार्च, 2018 में मुम्बई में किसान विरोध यात्रा में चालीस हजार से ज्यादा किसानों ने शिरकत की

भारतीय किसान 2018 को कभी नहीं भूलेंगे। इस साल उन्हें भान हुआ कि वे शहरी, सम्भ्रान्त और सुसज्जित लिबास धारण करने वाले इस देश के उन नागरिकों के पासंग भी नहीं हैं, जो साफ-स्वच्छ, चमकते-धमकते स्मार्ट शहरों में रहते हैं। किसान ट्रैक्टरों पर सवार होकर उनके शहरों में नहीं आ सकते। उन्हें शहर की सीमा पर ही रोक दिया जाएगा और उन पर लाठियाँ भाँजी जाएँगी। यही तो बीती दो अक्टूबर को उन हजारों किसानों के साथ हुआ था, जो गाँधी जयन्ती पर गाँधी जी की राजघाट स्थित समाधि पर श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिये दिल्ली में प्रवेश करना चाहते थे। गाँधी समाधि नई दिल्ली में कड़े पहरे की सुरक्षा में है, जहाँ तैनात सुरक्षाकर्मी गरीब और धूल सने लोगों को प्रभावशाली और ताकतवर लोगों के पास भी नहीं फटकने देते। बहरहाल, 2 अक्टूबर की आधी रात को किसानों को राजघाट पहुँचने की अनुमति दे दी गई। शायद यही ठीक था कि किसान रात के अन्धेरे में महात्मा से मिलें। इसी अन्धेरे में तो भारत के किसान रहते-मरते हैं और इसी रात ढले तड़के अन्धेरे में तीन अक्टूबर को किसान अपने गाँव-घर लौट गए।

आखिर, क्या चाहते हैं किसान?

भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत से जब किसान क्रान्ति यात्रा के इस तरीके से समापन का कारण जानना चाहा तो वे बड़े ही फलसफाना अन्दाज में बोले, ‘आरम्भ होने वाली हर यात्रा के समाप्त होने की भी एक घड़ी होती है।’ उन्होंने कहा कि उनकी ग्यारह में से सात माँगें मान ली गई हैं और किसान इससे सन्तुष्ट हैं। यही सच है; आखिर, जो कुछ भी मोदी सरकार किसानों को देना चाहती है, उससे सहमत होने के अलावा किसानों के पास विकल्प भी क्या था। संगठित होने के लिये किसानों को खासी मेहनत करनी पड़ती है। अपने खेतों को छोड़कर सरकार से कोई राहत की माँग करने के लिये शहरों की ओर कूच करने के लिये धन और समय का काफी नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन सरकार उन पर वाटरकैनन और आँसू गैस के गोले दागने में तनिक देर नहीं करती। जैसी कि उम्मीद थी, सरकार ने किसानों के सामने आस्वस्तियों की झड़ी लगा दी। टिकैत कहते हैं, ‘हम बेहतर एमएसपी चाहते थे और सरकार ने कहा है कि इस माँग पर गौर करेगी। दरें बढ़ाई गई हैं।’ उन्होंने यह भी कहा कि खेतिहर मजदूर को मनरेगा में शामिल करने की ‘माँग पर सरकार गौर करेगी’। प्रदूषण की चिन्ता के चलते एनजीटी द्वारा वाहनों पर लगाए गए प्रतिबन्ध से ट्रैक्टरों को निजात दिलाएगी। कृषि आदानों पर जीएसटी को कम करेगी। टिकैत ने ठंडी साँस लेते हुए कहा, ‘आश्वासन मिलना ही हमारी नियति है।’ वह बताते हैं कि ऐसा भी नहीं है कि सरकार एकदम से कोई अधिसूचना जारी कर देगी कि हमारी माँगें मान ली गई हैं। किसान सरकार के सामने सवाल नहीं उठा सकता।

किसान पहले क्या चाहते हैं? वर्षो से क्यों ऐसा चाहते रहे हैं? किसान अपनी उपज का बेहतर दाम चाहते हैं। वैसा नहीं जो सरकार ने घोषित कर दिया है, बल्कि उससे ज्यादा। चाहते हैं कि कीमत निर्धारण सीटू+एफएल फार्मूला के आधार पर हो जबकि सरकार एटू+एफएल के आधार पर इस मुद्दे को सुलझाना चाहती है। किसान चाहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कम रहने से हुए उनके नुकसान की भरपाई के लिये उन्हें कर्जमाफी मिलनी चाहिए। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के मुताबिक, 1995-2015 के दौरान 3.2 लाख किसानों ने खुदकुशी की। किसान चाहते हैं कि आत्महत्या कर चुके किसान के परिवार का पुनर्वास किया जाना चाहिए। उसके किसी एक परिजन को सरकारी नौकरी दी जानी चाहिए। आत्महत्या करने वाले किसान की विधवा का पुनर्वास करना सरकार का दायित्व होना चाहिए। यदि यह माँग भी किसानों को करनी पड़े तो इससे सरकार की संवेदनहीनता का पता चलता है। अभी हो इतना भर रहा है कि आत्महत्या करने वाले किसान को कुछ मुआवजा राज्य सरकारें दे देती हैं और इसी के साथ सरकार की इतिश्री।

लेकिन इसमें हैरत की क्या बात है? कोई भी सरकार हो किसान की मौत से उसे क्या फर्क पड़ता है। लगता है कि भले ही हम लोकतंत्र हों लेकिन किसान उसमें गैर-जरूरी हैं। फसली नुकसान कृषि क्षेत्र की बड़ी त्रासदी होती है। आँकड़ों से पता चलता है कि फसल बीमा योजना के तहत बीमा कम्पनियों ने किसानों से प्रीमियम के रूप में 24,450 करोड़ रुपए एकत्रित किये जबकि फसल खराब होने पर किसानों के दावों के निपटारे में मात्र 402 करोड़ रु. का भुगतान ही किया है।

माँगें पुरानी और सलूक भी

इस बात पर हैरत नहीं हुई कि सरकार के साथ बातचीत के नतीजों पर अनेक किसान नेता सन्तुष्ट नहीं हैं। किसान शक्ति संघ के पुष्पेंद्र सिंह, जो 2 अक्टूबर काे किसान क्रान्ति यात्रा में शामिल थे, कहते हैं, ‘सरकार ने किसानों की मुख्य माँगें स्वीकार नहीं की है। किसान शान्तिपूर्वक अपनी माँगें सरकार के सामने नहीं रख पाते। हमें तो दिल्ली में घुसने तक नहीं दिया गया।’ दिल्ली कूच तो 2018 में हुए उन किसान आन्दोलनों की एक कड़ी भर था, जिन्हें केन्द्र तथा राज्य सरकार ने दबाने का प्रयास किया। इससे औपनिवेशिक दौर के बारे में कही गई बातें याद हो आती हैं। किसानों को हाईवे जाम करने पड़ रहे हैं, ताकि अपने लोकतांत्रिक ‘रहनुमाओं’ की तवज्जो पा सकें। उदाहरण के लिये 2018 में किसान आन्दोलनों को लें। मार्च, 2018 में मुम्बई में किसान विरोध यात्रा में चालीस हजार से ज्यादा किसानों ने शिरकत की। उनकी माँगें भी यही थीं, बेहतर दाम, किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थमे और ज्यादा संवेदनशील नीतियाँ बनें। फरवरी, 2018 में किसानों ने राजस्थान और हरियाणा में हाईवे पर जाम लगाया। माँगें थीं, कर्जमाफी और बेहतर एमएसपी। बीती जनवरी में तमिलनाडु के किसानों ने कावेरी जल छोड़ने की माँग को लेकर जोरदार विरोध-प्रदर्शन किया था। किसानों के विरोध-प्रदर्शन समूचे देश में हर कहीं होते रहे हैं। लेकिन अखबारों की सुर्खियाँ तभी बनते हैं, जब किसान शहरों की तरफ कूच करते हैं और ताकतवर लोगों को चिन्ता में डाल देते हैं। बीते दिनों जब किसान आधी रात को राजघाट पहुँचे तो महात्मा गाँधी ने उन्हें क्या सन्देश दिया होगा? गाँधी की दुनिया तो गाँवों में बसती थी। लेकिन आज यही दुनिया अन्धकारमय है।

(लेखक, नीलिमा वरिष्ठ पत्रकार हैं, ‘विडोज ऑफ विदर्भ’ पुस्तक की लेखिका भी हैं)
 
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