कुर्जा तेरो दरद न जाणे कोय

भारत में सैकड़ों प्रजाति के पक्षी अपना प्रवास करते हैं और एक विशेष अवधि के बाद ये अपने देश को लौट जाते हैं। इन पक्षियों में सबसे ज्यादा जाना जाने वाला पक्षी है कुर्जा। इसे अंग्रेजी में डोमायसिल क्रेन भी कहते हैं। वैसे इस पक्षी को करकरा, कुंजा और अन्य नामों से भी जाना जाता है। राजस्थान और पंजाब के लोकगीतों में भी इस पक्षी का उल्लेख मिलता है। अपने प्रेमी के बिछुड़ने के बाद उसकी याद में तड़प रही प्रेमिका के मुंह से जो गीत निकलते हैं, उनमें वह कुर्जा का उल्लेख करती है। इन पक्षियों का प्रिय प्रवास है बीकानेर से 150 किलोमीटर की दूरी पर बसा छोटा-सा गांव खींचन, जहां इनका आगमन आस-पास के सौन्दर्य को कई गुना बढ़ा देता है। लेकिन इन खूबसूरत पक्षियों के होने के बावजूद इस स्थान की उपेक्षा बरबस कई सवाल खड़े करती है।ये तो ‘कुंज’ संस्कृत के ‘क्रौंच’ का अपभ्रंश माना जाता है। शुक्रनीति सार (4.7.279) में एक श्लोक आता है, ‘‘ क्रौचानां खेगनियद्दिक्पंक्तित: सम्प्रजायते।’’ अर्थात् हमारे पूर्वज भी इन पक्षियों के महत्त्व को समझते थे। कहा जाता है कि कुर्जा पक्षियों की कतारबद्ध उड़ान से सैनिकों को प्रेरणा मिलती थी कि युद्ध में किस तरह पंक्तिबद्ध होकर दुश्मनों का मुकाबला करना प्रभावशाली होता है। पंजाब के लोकगीतों में भी कुर्जा को जगह मिली हुई है, ‘कुंजा कोलों मोर पुछेंदी, तुस्सी नित परदेशी तैयार; या तुसाडा वतन कुचजड़ा या तुस्सी पेट तगारी? ना साडा वतन कुचजड़ा न अस्सी पेट तगारी; ते रब्ब डाडा कादिर, जिसने साडी चोग खिलारी; ते कोई दम ओ गोरिये! साडी जिंदियां दे मेले’। कुंजों से मोर ने पूछा, ‘तुम हमेशा परदेश जाने की तैयारी में क्यों रहते हो? क्या तुम्हारा देश निकम्मा है या पेट की खातिर तुम्हें परदेश जाना पड़ता है?’ कुर्जों ने कहा, ‘परमात्मा बड़ी कुदरत वाला है। उसने हमारा आहार सारी पृथ्वी पर फैला रखा है। उसी की खातिर हमें तुमसे और बहुत अन्यों से मिलने का मौका मिल जाता है।’

एक बार डिस्कवरी चैनल पर मैंने देखा कि यह सारस सुदूर देशों से सर्वोच्च हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से न्यूनतम तापमान और तेज हवाओं का सामना करते हुए कैसे भारत में आते हैं? भारत में राजस्थान इनका प्रिय प्रवास स्थल है और राजस्थान में भी बीकानेर के पास फलोदी कस्बे से सटे खींचन गांव में ये हजारों की संख्या में आते हैं। मैं पक्षी प्रेमी हूं और विगत 30 सालों से भी अधिक समय से मैं पक्षियों की फोटोग्राफी करता रहा हूं। मैं वह दृश्य देखकर रोमांचित हो उठा। डिस्कवरी चैनल में इन पक्षियों का विस्तृत रहन-सहन दिखाया गया था और यह सवाल भी उठाया गया था कि आज तक पूरी दुनिया के पक्षी वैज्ञानिक यह नहीं जान सके कि इतनी दूर से ये पक्षी राजस्थान के एक छोटे से गांव में इतनी संख्या में क्यों आते हैं। खींचन गांव का तालाब बहुत ही छोटा सा है। ये उसके आस-पास ही पूरा दिन बिताते हैं। इनके खाने के लिये पास में ही एक अन्य जगह पर व्यवस्था की गयी है जहां प्रतिदिन इनके खाने के लिये भरपूर मात्रा में दाने डाले जाते हैं।

मैंने उसी दिन ठान लिया कि मैं राजस्थान के इस खींचन गांव में जरूर जाऊंगा और मुझे मौका मिल ही गया। साहित्य अकादमी की ओर से बीकानेर में हिन्दी के दिग्गज साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी पर एक कार्यक्रम रखा गया था। संयोग ही था कि इस कार्यक्रम के लिये मुझे भी बुलाया गया। मैंने इंटरनेट पर पता लगाया कि बीकानेर से खींचन गांव कितनी दूर है। वहां से लगभग 150 किलोमीटर पर था खींचन गांव। दिल्ली से सब लोग ट्रेन से जा रहे थे परन्तु मैंने तय किया कि मैं अपनी कार से ही जाऊंगा। जिस दिन सबको ट्रेन से निकलना था, मैं सुबह घर से अपनी कार से निकल पड़ा। सच कहूं तो मैं घुमक्कड़ आदमी हूं। कहीं जाने पर हमारी जो मंजिल होती है, वह तो अच्छी लगती ही है परन्तु मुझे रास्ते उससे भी अच्छे लगते हैं। हरियाली, पर्वत, नदियां, अनजान रास्ते और अनजान लोग रास्ते में एक अजीब सा रोमांच पैदा कर देते हैं। मैं आराम से रास्तों का आनन्द लेता हुआ अंधेरा होने के पहले ही बीकानेर पहुंच गया। तीन दिनों बाद जब यह समारोह समाप्त हुआ तो बाकी लोग ट्रेन से वापस आने लगे परन्तु मैं बीकानेर से जैसलमेर रोड पकड़कर अपनी कार से ही खींचन गांव की ओर चल पड़ा।

बीकानेर से कुछ ही दूर गया था कि रास्ते में एक जगह लिखा था ‘गजनेर का किला 4 किलोमीटर’। मैंने सुन रखा था कि गजनेर के किले से सटी एक बड़ी झील है जहां प्रवासी पक्षी भी आते हैं। मैंने अपनी कार उधर घुमा दी और मैंने गजनेर की झील में नौका से भ्रमण किया। मैं हैरान रह गया क्योंकि वहां कुर्जा पक्षियों की एक टीम मौजूद थी। हालांकि वे संख्या में बहुत कम थे परन्तु मैं पहली बार इन पक्षियों को देख रहा था इसलिये मुझे बहुत आनन्द आया। करीब दो घण्टे मुझे गजनेर घूमने में लगे और मैं खींचन की ओर बढ़ गया। रास्ते के सौन्दर्य को निहारते हुए, चाय-पान करते हुए मैं लगभग दो बजे खींचन पहुंच गया। देखने में तो वह एक छोटा सा साधारण गांव ही लग रहा था परन्तु जब मैं उस तालाब पर पहुंचा जहां कुर्जा पक्षियों का बसेरा था तो उन पक्षियों को देखकर मैं जैसे ठगा सा रह गया। हजारों की संख्या में थे वे और उनकी आवाज से वातावरण गुंजायमान हो रहा था। हैरानी की बात थी कि बहुत छोटे से पानी के एक स्रोत के पास वे एकत्र थे और पानी का स्रोत भी ऐसा था कि चारों तरफ गन्दगी फैली हुई थी। केवल कुर्जा पक्षियों के कारण खींचन गांव विश्व के पटल पर पक्षी वैज्ञानिकों में प्रसिद्ध है परन्तु यहां उनकी उपेक्षा देखकर मैं दुखी हो गया। एक ओर जहां वह दृश्य मेरे लिये अवर्णनीय था वहीं मन में एक टीस भी उठी।

मैं एक घण्टे तक बिना रुके अपने कैमरों से उनकी तस्वीरें उतारता रहा। अभी मैं तस्वीरें ले ही रहा था कि वहां कुछ चरवाहे मवेशियों को लेकर आ गये। आराम बाधित होने के कारण वे एक साथ उड़ने लगे। आह! उस दृश्य के लिये तो मैं अपना पूरा जीवन न्योछावर कर सकता हूं। मैं कैमरे से तस्वीरें ले रहा था पर मैं उस दृश्य को देख पाने पर अपने को धन्य भी समझ रहा था। लगभग एक लाख की संख्या में इतने बड़े पक्षी एक साथ उड़ें तो उस दृश्य की कल्पना ही की जा सकती है। वे पक्षी आसमान में उड़ते हुए तरह-तरह के करतब कर रहे थे। आकाश में कई प्रकार की चित्रकारी वे बनाते जा रहे थे और कभी गोल-गोल घूमते हुए पानी की लहर जैसा दृश्य पैदा कर रहे थे। मुझे लगा कि मैं किसी सपने की दुनिया में पहुंच गया हूं।

कुर्जा पक्षियों को कुछ लोग तस्वीरें लेने के लिये उड़ाते रहते हैं और यह भी कि उनको स्थानीय कुत्ते कभी भी मार देते हैं।मैंने वहां कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत की तो कुछ बातें पता चलीं जो पक्षी वैज्ञानिकों, इस धरती और पर्यावरण के लिये बहुत सुखद नहीं थी। मुझे बताया गया कि इन पक्षियों को कुछ लोग तस्वीरें लेने के लिये उड़ाते रहते हैं और यह भी कि उनको स्थानीय कुत्ते कभी भी मार देते हैं। इतनी महत्त्वपूर्ण भौगोलिक घटना की इतनी उपेक्षा कि चरवाहे अपने मवेशियों को पानी पिलाने के लिये एक तरह से इन पक्षियों को खदेड़ते रहते हैं। तीसरी बात यह थी कि जिस तालाब पर ये पक्षी आराम करते हैं, उससे बिल्कुल सटे हाईवोल्टेज बिजली के तार निकलते हैं। वहां के निवासियों ने बताया कि इन तारों से टकराकर ये पक्षी मरते रहते हैं।

यह सही है कि कुर्जा पक्षियों के खाने की व्यवस्था यहां शानदार तरीके से की जाती है परन्तु जो नकारात्मक बातें हैं वे तो होनी ही नहीं चाहिये। शायद यहां के लोगों को यह पता नहीं कि यदि इन पक्षियों का यहां आना बन्द हो गया तो यह गांव भी इतिहास के किसी मलबे में दब जायेगा। कहीं इनकी हालत सायबेरियाई सारसों की तरह न हो जाय जो पहले भारत आते थे और विगत एक दशक से उनका दर्शन दुर्लभ हो गया है। कहा जाता है कि सायबेरियाई सारसों को अब कभी नहीं देखा जा सकता क्योंकि अब वे इतिहास बन चुके हैं। यहां के स्थानीय लोगों, पक्षी विशेषज्ञों और सरकार की तरफ से कुछ आवश्यक कदम उठाने होंगे ताकि कुर्जा पक्षी हमारे बीच और हमारे लोकगीतों में हमेशा जिन्दा रहें।

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Post By: pankajbagwan
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