कुंभ के बाद तेरा क्या होगा, गंगा!

गंगा के पानी को गंदलाने में यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल सबसे आगे हैं। इस प्रकार के प्रदूषण की वजह औद्योगिक इकाईयां होती हैं, जो अपनी गंदगी को गंगा में बिना ट्रीटमेंट के बहा देती हैं। गंगा प्रदूषण मुक्ति के लिए दरअसल सबको जागरूक होना होगा। आम व्यक्ति जब जागरूक होगा, तब गंगा अविरल और निर्मल होगी। प्रशासन को अभियान चलाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में पॉलीथिन का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए और गंगा घाटों पर जब पॉलीथिन प्रतिबंधित होगी तो प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी। जागरुकता और कार्रवाई दोनों की जरूरत है।

पिछले दो-तीन दशकों में बढ़ती मानव-गतिविधियों ने गंगा के स्वरूप को बदरंग, बदसूरत और अत्यधिक प्रदूषित किया है। जिस नदी को लेकर हम संपूर्ण विश्व में स्वयं को गर्वित अनुभव करते हैं, आज वह अत्यधिक प्रदूषण से कराह रही है और उसका अस्तित्व ही संकट में है। गंगा को बचाने के लिए सरकार ने सफाई योजनाएं चलाने से लेकर उसे राष्ट्रीय नदी तक घोषित कर दिया, लेकिन स्थिति में लेशमात्र अंतर नहीं आया। इलाहाबाद में महाकुंभ मेला चल रहा है। साधु-संत और करोड़ों लोगों की भावनाओं और आस्थाओं को समझते हुए केंद्र और प्रदेश सरकार ने गंगा को स्वच्छ रखने के लिए पूरा जोर लगाया है, जिसके अंतर्गत कानपुर में चमड़े की फ़ैक्टरियों को बंद कराने से लेकर गंगा में अतिरिक्त जल छोड़ने जैसे अस्थाई उपाय शामिल हैं। इससे गंगा थोड़ी राहत अवश्य अनुभव कर रही होगी। कुंभ के चलते गंगा प्रदूषण, गंगा की साफ-सफाई और गंगा को बचाने के लिए लगभग हर मंच पर इसकी खूब चर्चा हो रही है। संत समाज, सियासी दल, सामाजिक संस्थाएं और गंगाप्रेमी गंगा को लेकर संजीदा दिख रहे हैं, लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि एक डेढ़ माह में जब कुंभ मेला समाप्त होगा तब गंगा का पुरसाहाल कौन होगा? कौन उसकी दुख-तकलीफ़ को बयां करे? कौन उसके तटों को साफ करेगा? उसमें बहने वाली प्लास्टिक को बाहर कौन निकालेगा, कौन उसमें सीवर और फ़ैक्टरियों को गंदा पानी बहाने से रोकेगा? कौन देखने जाएगा कि गंगा घुट-घुट कर मर रही है? उसमें पलने वाले जीव-जंतु और वनस्पतियां जिंदा या मृत हैं? कुंभ मेले की समाप्ति के बाद जब व्यवस्था पुरानी पटरी पर दौड़ने लगेगी, तब गंगा का क्या होगा, यह सोचकर भी सिहरन-सी दौड़ जी है?

विश्व की बड़ी नदियों में शुमार गंगा को साफ-स्वच्छ रखने का क्या कोई स्थाई उपाय या नीति हमारे पास नहीं है? सवाल यह भी है कि गंगा एक्शन प्लान में अरबों बहाने के बाद भी गंगा प्रदूषण मुक्त क्यों नहीं हो पाई? कसूरवार कौन है – सरकार, प्रशासनिक अमला या फिर जनता? गंगा देश की धरोहर है, उसके जल से करोड़ों जिंदगियां पलती और रोजी-रोटी कमाती हैं, फिर इसकी दयनीय दशा को लेकर देशवासी और सरकारी अमला इतना उदासीन और बेपरवाह क्यों है? गिने-चुने प्रयास गंगा की अस्मिता और जीवन बचाने के लिए हो रहे हैं, लेकिन वो नक्कारखाने में तूती बजाने से ज्यादा नहीं हैं। आज भी गंगाघाट प्रदूषण मुक्त नहीं हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने कुम्भ मेले के दौरान गंगा और उसकी सहायक नदियों में औद्योगिक प्रदूषण रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं, लेकिन मेले के बाद सरकार और प्रशासन की सख़्ती लागू रह पाएगी, यह बड़ा सवाल है। प्रदेश सरकार ने प्रदूषण मानदंडों का उल्लंघन करने वाली शराब की सात और चमड़े के लगभग सवा चार सौ कारखानों को मेला समाप्त होने तक बंद करवा दिया है, लेकिन घूमकर बात वहीं आ जाती है कि क्या कुंभ के बाद भी यह सख्ती कायम रह पाएगी? यह जगजाहिर है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कारखाने काली हिंडन, राम गंगा और इनकी सहायक नदियों में अपनी गंदगी डालते हैं, जो अंत में गंगा में ही आती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी कुंभ के दौरान गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए कड़े आदेश दिए। साधु-संतों, तीर्थयात्रियों और हाईकोर्ट के डर से प्रदूषण बोर्ड और ने अति सक्रियता दिखाई है। क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि देश-दुनिया के सामने नाक न कटे और संत समाज की नाराजगी से बचने के लिए केंद्र और राज्य सरकार ने फौरी कार्रवाई की है और मेला समाप्ति के बाद कारखाने अपने पुराने रवैए पर उतर आएंगे। जहरीला कचरा गंगा और उसकी सहायक नदियों में धड़ल्ले से बहाएंगे। दरअसल, प्रशासन तमाम सख्ती और रोक के बावजूद उद्योग चोरी-छिपे अपनी गंदगी नदियों में डाल देते हैं। यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है। उद्योगों की कारस्तानी में प्रदूषण विभाग और प्रशासन बराबर का भागीदार है। कानपुर जल संस्थान के अनुसार, गंगा के पानी में कोलीफोर्म बैक्टीरिया का स्तर घातक है। इसके अलावा कुछ जहरीले रसायन भी इसमें मौजूद हैं। यानी उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से गंगा में इतना ज्यादा प्रदूषण डाला जाता है कि अपनी अनोखी स्वयंशुद्धि क्षमता के बावजूद कन्नौज से लगभग 80 किलोमीटर के सफर में भी गंगा अपने को उससे मुक्त नहीं कर पाती।

एक अनुमान के अनुसार करीब 30 लाख की आबादी वाले औद्योगिक शहर कानपुर से रोज़ाना लगभग 70 करोड़ लीटर सीवेज गंगा में जाता है। इस सीवेज में कई उद्योगों का खतरनाक केमिकल शामिल है। इन उद्योगों में सबसे खतरनाक है जाजमऊ का चमड़ा उद्योग। शहर के 400 से अधिक चमड़ा कारखानों से करीब पांच करोड़ लीटर प्रदूषित पानी निकलता है। कानून कारखानों की जिम्मेदारी है कि वे अपने कैंपस में प्राथमिक उपचार करके कचरा छान लें, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हो रहा है। आईआईटी कानपुर की एक जांच में बताया गया है कि चमड़ा कारख़ानों के इस गंदे पानी में क्रोमियम की मात्रा लगभग 124 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो निर्धारित मात्रा से 62 गुना अधिक है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि करीब 17 वर्ष पहले बने इस ट्रीटमेंट प्लांट की तकनीक भी क्रोमियम को साफ करने में सक्षम नहीं है। यहां पर करीब 16 करोड़ लीटर शहर सीवेज के ट्रीटमेंट की भी व्यवस्था है। इस ट्रीटमेंट प्लांट में चमड़ा कारखानों का औसतन एक करोड़ लीटर दूषित जल लेने की क्षमता है। यानी बाकी करीब चार करोड़ लीटर पानी सीधे गंगा में जाता है। जीवनदायिनी गंगा का जल इस कदर गंदला गया है कि उससे कैंसर तक हो सकता है। राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम (एनसीआरपी) के मुताबिक गंगा नदी में भारी कण, जहरीले रसायनों को जिस प्रकार से फेंका जा रहा है, उससे इसका पानी जहरीला होता जा रहा है, पानी को गंदलाने में यूपी, बिहार और पश्चिम बंगाल सबसे आगे हैं। इस प्रकार के प्रदूषण की वजह औद्योगिक इकाईयां होती हैं, जो अपनी गंदगी को गंगा में बिना ट्रीटमेंट के बहा देती हैं। गंगा प्रदूषण मुक्ति के लिए दरअसल सबको जागरूक होना होगा। आम व्यक्ति जब जागरूक होगा, तब गंगा अविरल और निर्मल होगी। प्रशासन को अभियान चलाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में पॉलीथिन का प्रयोग पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए और गंगा घाटों पर जब पॉलीथिन प्रतिबंधित होगी तो प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी। जागरुकता और कार्रवाई दोनों की जरूरत है।

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