.........नरसिंहगढ़ यानी महादेवजी का गढ़! ....खूबसूरत झील और उसके बीच में बना मंदिर! बरसात के दिनों में एक सुंदर शहर जिसकी वादियाँ लुभाती हैं! पहाड़ों पर झिरता पानी....... बहते झरने...... जल देवता की मूर्तियों वाले कुण्ड, तालाब और बावड़ियाँ। ......इसके अलावा भी बहुत कुछ और! ......नरसिंहगढ़ यानी पुरातलनकालीन व्यवस्थित जल प्रबंधन की जीवन्त मिसाल! बादलों से बरसने वाली बूँदों को नरसिंहगढ़ के पहाड़ जो कभी जंगलों से आबाद रहते थे, अपनी भीतर ‘आत्मसात’ करते रहे। इन पहाड़ों के नाम हैं- हनुमानगढ़ी, बड़ा महादेव, छोटा महादेव, नीला पहाड़ आदि। इन पहाड़ों की तराई में रियासतकाल के दौरान एक झील का निर्माण किया गया। ऊपर से आया पानी इस झील में संग्रहित हुआ। तालाब व बावड़ियाँ भी बनाई गईं।..... और इसके बाद आती है पुरानी बस्तियों में कमोबेश घर-घर बनी कुण्डियाँ!
......यानी, पहाड़ों के मस्तक पर बादलों ने जिन बूँदों से अभिषेक किया, रियासतकालीन व्यवस्था और समाज ने उसका सम्मान करते हुए ऐसा जल प्रबंध किया, जो घर-आँगन में लोगों को सुकून और राहत देती रही! .....पानी प्रबंधन की इसी कहानी का नाम है, नरसिंहगढ़!
..... हम, सबसे पहले झील देखते हैं! कहते हैं, करीब साढ़े तीन सौ साल पहले यहाँ के राजा परशुराम ने इसे बनाया था। इसे परशुराम झील के नाम से जाना जाता है। यह बड़े क्षेत्रफल में विस्तारित है। भीषण गर्मी में भी पानी मौजूद है। स्थानीय लोग कहते हैं- हमने इसे कभी सूखते हुए नहीं देखा है। यह तीन पहाड़ों से घिरी है। तराई में होने की वजह से जल प्रबंधन की दृष्टि से इसका निर्माण किया गया है। पहाड़ों की सतह के अलावा इनकी रिसन का पानी भी इसमें एकत्रित होता है। यह झील जल प्रबन्धन तन्त्र का ‘मध्य हिस्सा’ है।
पहाड़ों का रिचार्ज जहाँ इसमें आता है, वहीं इसका रिजार्च शहर की कुण्डियों को जिन्दा रखता रहा है। बड़े पैमाने पर डाउन स्ट्रीम में इस झील का पानी जाता रहा है। इसके बीच में महादेवजी का जल, मंदिर इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाता है। इसके किनारों पर तत्कालीन रियासत ने सुंदर घाट भी बनाए हैं, जिन्हें तीज घाट, आम घाट और जल मंदिर घाट के नाम से जाना जाता है। तीज घाट सरकार बहादुर के लिए था। कभी-कभी वे पानी की पूजा कर यहीं से पालकी भी निकाला करते थे। झील नरसिंहगढ़ में प्रवेश के साथ ही मुख्य बाजार के साइड में बनी है।
एक पहाड़ी पर बना है छोटा महादेव मंदिर। यह पानी की ‘आव भगत’ का प्रमुख केन्द्र रहा है। कहते हैं, राजा विक्रमसिंह ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। यह मंदिर बाहर से किसी किले के आकार का नजर आता है। इस मंदिर में पानी के अनेक स्रोत कुण्डी के रूप में देखे जा सकते हैं।
मुख्य मंदिर के पास वाला कुण्ड दस साल पहले तक बारहमासी था। यानी हर मौसम में पानी निकलता रहता था। अब बरसात बाद प्रारम्भ होकर जनवरी-फरवरी तक ही यह आव देता है। इस कुण्ड का पानी बीमारियों को दूर करने में भी इस्तेमाल किया जाता था। जिस विशाल पहाड़ी से यहाँ पानी आता है, वह अनेक तरह की जड़ी-बूटियों से सराबोर रही है। कुण्ड सूखने का कारण इसके ऊपरी हिस्से वाली पहाड़ी में जंगलों का कटना है। अब यहाँ जो पानी गिरता है, वह पेड़-पौधे नहीं होने के कारण तुरन्त बिना रुके बहकर नीचे चला जाता है। मंदिर के साइड में ही हाथी तलाई है। किंवदंती है कि किसी जमाने में यहाँ आए महन्त के हाथ का निधन हो गया था। हाथी को कहाँ उठाकर ले जाते, सो उसे यहीं दफना दिया गया। तब से ही इसे हाथी तलाई के नाम से जाना जाता है। कुण्डों और पहाड़ी से आया पानी यहाँ संग्रहित होता है। एक अन्य कुण्ड भी है, जिसे ‘खजूर-पानी’ कहा जाता है। कहते हैं, किसी जमाने में इसके पास खजूर का झाड़ हुआ करता था। मंदिर के आगे गुप्तेश्वर कुण्ड है। इसमें भी झिरी बनी हुई है। यह कुण्ड गर्मी के दिनों में भी जिन्दा रहता है। नीचे बस्ती के लोग इसी कुण्ड से पीने का पानी लेने आते हैं।
यहाँ से थोड़ी दूरी पर ‘नांदिया-पानी’ नामक स्थान है। पौधेश्वर महादेव का स्थान भी पानी की वजह से रमणिक है। यहाँ से कुछ दूर पहाड़ी पर बसा है- बड़ा महादेव मंदिर। पहाड़ी भी इसी नाम से पहचानी जाती है। सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद यहाँ एक कुण्ड है, जो गर्मी में भी पानी दे रहा है। इस कुण्ड का पानी पीने दूर-दूर से लोग आते हैं। यहाँ भी मान्यता है कि इसका पानी अनेक रोगों को दूर कर देता है। तीन-चार झीरियाँ कुण्ड में पानी की आव देती रहती हैं। घिरनी व बाल्टी की मदद से समाज इसका पानी लेता है। कुण्ड के ऊपर झरोखे बने हुए हैं। इसमें जल देवता की मूर्तियाँ लगी हुई हैं। रियासतकाल से ही इस बात की चिन्ता थी कि पानी तो ईश्वर का प्रसाद है, सो उसे मंदिर के रूप में ही देखा जाए। इन मूर्तियों के लगाने के पीछे साफ मक्सद रहा होगा- इन जलस्रोतों को दूषित न किया जाए। इनके संरक्षण के पूरे प्रयत्न किये जाएँ। इसी मंदिर परिसर में पास में ही एक और कुण्ड है। इसमें भी झरोखे बने हुए हैं। यह लघु-बावड़ी जैसा लगता है। इस मंदिर में बने कुण्डों में पानी की आव पहाड़ी के ऊपरी हिस्सों में संग्रहित जल से है। पहाड़ियों से निकलने वाले पानी को झील के अलावा अर्जुन तालाब में भी रोका गया। इसके अलावा शहर में तीन बावड़ियाँ भी हैं।
उमेदीबाई की बावड़ी तो देखने लायक है। किंवदंती है कि नरसिंहगढ़ में राज नर्तकी उमेदीबाई ने कोई शर्त रखी और वह जीतने जा रही थी- तभी मन्त्री ने उसकी रस्सी काट दी। उसका निधन हो गया। राजा साहब ने उसकी याद में कुण्डी बनाई और वह अमर रहे इस हेतु उसके नाम से बावड़ी भी बना दी। बावड़ी काफी गहरी है। शहर के अनेक लोग गर्मी में भी यहीं से पानी ले जाते हैं। बावड़ी अपने निर्माण में कलात्मकता लिए हुए है। एक विशाल दरवाजा है, जो गढ़ी का आभास कराता है। नरसिंहगढ़ किले में स्थित स्विमिंग पूल तत्कालीन समय में पुख्ता जल प्रबंधन की मिसाल है। कहते हैं, राजा विक्रमसिंह जब इंग्लैंड गए थे तो उन्हें वहाँ का स्विमिंग पूल पसंद आया। लौटकर अपने किले में भी उन्होंने बढ़िया स्विमिंग पूल बनाया। यह लगभग 40 बाय 18 फीट लम्बाई व चौड़ाई के आकार का है। नीचे उतरने की सीढ़ियाँ हैं और झरोखे भी।
नरसिंहगढ़ का समाज बड़े गर्व के साथ अभी भी यह कहता है कि रियासतकालीन जल प्रबंधन का ही कमाल है कि इस शहर में जल संकट का उतना सामना नहीं करना पड़ रहा है, जितना मध्य प्रदेश के दूसरे शहरों को। लेकिन, पुरातनकालीन इस जल प्रबंधन की हालत छिन्न-भिन्न हो रही है। पुरानी बस्ती में प्रायः घरों में कुण्डियाँ हुआ करती थीं। जल प्रबंधन की तकनीकी भाषा ‘रिज टू वैली’ के मुताबिक पहाड़ पर पानी संचय यदि पहला सिरा है तो इसका अन्तिम सिरा घरों की कुण्डियाँ हैं। पुराने लोग बताते हैं कि गर्मी के दिनों में भी ये कुण्डियाँ पानी से परिपूर्ण रहा करती थीं। जब जरूरत हुई-बाल्टी डालकर पानी ले लिया। सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा वक्त आएगा- जब नरसिंहगढ़ की कुण्डियाँ सूख जाया करेंगी।
दरअसल, पहाड़ के मस्तक पर लगे जंगल समाज ने काट दिए। पहाड़ नंगे हुए और पानी वहाँ रुकने के बजाए सीधा बहकर जाने लगा। नीचे झील की हालत भी खस्ता हो गई। इसके जीर्णोद्धार का बीड़ा पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष श्री गोपाल माहेश्वरी ने उठाया। काफी प्रयास किए, लेकिन व्यवस्थागत खामियों की वजह से यह अभियान भी अपनी मंजिल हासिल नहीं कर सका। हालात यह हैं कि यह सुंदर झील अब बदरंग हो रही है। नालियों की निकासी के द्वार इसमें खुल रहे हैं। पहाड़ से झील की ओर आने वाले पानी के रास्ते में आवासीय क्षेत्र बन गए हैं। यही स्थिति अर्जुन तालाब की भी हो रही है। इन्हीं सब कारणों से रियासत कालीन जल प्रबंधन की अन्तिम कड़ी- कुण्डियाँ, अब सूखने लगी हैं।
....नरसिंहगढ़! ....उस कहानी का नाम भी है, जिसमें जल प्रबंधन का समृद्ध इतिहास तो है, लेकिन भविष्य पर प्रश्नचिन्ह भी लग रहा है......!
मध्य प्रदेश में जल संरक्षण की परम्परा (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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