पर्यावरण प्रदूषण स्वयं मनुष्य की पैदा की हुई समस्या है। प्रारम्भ में पृथ्वी घने वनों से भरी हुई थी, लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ही मनुष्य ने अपनी आवश्यकता के अनुसार बसाहट, खेती-बाड़ी आदि के लिए वनों की कटाई शरू की। औद्योगिकीकरण के दौर में तो पर्यावरण को पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया। प्राकृतिक संसाधनों का न केवल पूरी मनमानी के साथ दोहन किया गया बल्कि जल और वायु प्रदूषण भी शुरू हो गया। कारखानों से निकलने वाले धुएं ने वायु में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाई ऑक्साइड और कार्बन मोनोक्साइड का अनुपात गड़बड़ा दिया।
क्या आप जानते हैं कि दिल्ली की तीस प्रतिशत आबादी दमा, तपेदिक और फेफड़े के कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से पीड़ित है और ये सभी बीमारियां वातावरण में फैले घातक प्रदूषण की देन हैं। अगर समय रहते इस तरफ ध्यान न दिया गया तो इसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।
बढ़ती आबादी और विकास की अंधी दौड़ के कारण इस कदर प्रदूषण फैल रहा है कि महानगरों में ही नहीं बल्कि छोटे इन्सान ने खुद अपने हाथों से अपने लिए एक ऐसा चक्रव्यूह रच डाला है, जिसमें से निकलने का रास्ता किसी को नहीं मालूम।पर्यावरण को लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अब कुछ चर्चा तो शुरू हुई है। कुछ कदम भी उठाये जा रहे हैं। लेकिन स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए उन पर संतोष नहीं किया जा सकता। पर्यावरण पर प्रथम अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन स्टाकहोम में आयोजित किया गया और इस सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण को मनुष्य की मूल आवश्यकता माना गया है। इसके बाद ही विभिन्न देशों की सरकारों ने अपने यहां पर्यावरण संरक्षण के लिये कदम उठाने शुरू किये।
पर्यावरण प्रदूषण स्वयं मनुष्य की पैदा की हुई समस्या है। प्रारम्भ में पृथ्वी घने वनों से भरी हुई थी लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ही मनुष्य ने अपनी आवश्यकता के अनुसार बसाहट, खेती-बाड़ी आदि के लिए वनों की कटाई शुरू की। औद्योगिकीकरण के दौर में तो पर्यावरण को पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया। प्राकृतिक संसाधनों का न केवल पूरी मनमानी के साथ दोहन किया गया बल्कि जल और प्रदूषण भी शुरू हो गया। कारखानों से निकलने वाले धुएं ने वायु में आक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोक्साइड का अनुपात गड़बड़ा दिया। इन कारखानों का कचरा नदी-नालों में बहकर जल को दूषित करने लगा। पर्यावरण सन्तुलन गड़बड़ाने के फलस्वरूप बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, भूकम्प, ओजोन की घटती परत और अम्लीय वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। हालात यहां तक पहुंच गये हैं कि विश्व प्रसिद्ध अनुपम कृति ताजमहल भी इससे बच नहीं पाया और उसके बचाव के लिए अदालत को आगे आना पड़ा। अदालत ने ताजमहल के आस-पास के सभी ईंट-भट्ठे बन्द करवा कर स्थापत्य कला के इस खूबसूरत नमूने को बदनुमा होने से बचा लिया।
प्रकृति की तीन अमूल्य धरोहर है-हवा, पानी, मिट्टी। कारखानों और वाहनों का जहरीला धुआं, घरों में प्रयोग किये जानेवाले ईंधन से निकलने वाला धुआं सब हवा में मिलकर लगातार वायु प्रदूषण बढ़ा रहे हैं। वायुमण्डल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। एक बिजली-घर से 50 टन सल्फर डाईऑक्साइड वातावरण में फैलती है और भारत में 75 से भी अधिक ताप बिजली घर हैं। रासायनिक खाद के कारखानों से भी बहुत अधिक प्रदूषित तत्व हवा में फैलते हैं। इनमें अमोनिया और हाइड्रोकार्बन प्रमुख हैं। वायु प्रदूषण का एक और प्रमुख कारण वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि है। वाहनों से निकलने वाले धुएं में कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, लेड ऑक्साइड आदि जहरीले तत्व इतनी अधिक मात्रा में होते है कि सम्पूर्ण वायुमण्डल को ज़हरीला कर देते हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में प्रतिदिन मोटर वाहनों, कारखानों और अन्य स्रोतों से ढाई हजार टन से अधिक प्रदूषण निकलता है। केन्द्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार राजधानी में पिछले बीस वर्षों में मोटर वाहनों की संख्या में दस गुना से भी ज्यादा वृद्धि हुई है। 1970 में यहां वाहनों की संख्या जहां 17 लाख थी वहीं अब 27 लाख से अधिक हो चुकी है। मोटर वाहनों से निकले प्रदूषित पदार्थ कम ऊंचाई पर होने के कारण शरीर पर इनका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में श्वास सम्बन्धी रोगों से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या अन्य बड़े शहरों के मुकाबले 12 से 15 प्रतिशत तक अधिक है। दिल्ली की तीस प्रतिशत से अधिक जनसंख्या दमा, तपेदिक या फेफड़े के कैंसर जैसी भयानक बीमारियों से पीड़ित है। दिल्ली में हाल ही में आयोजित एक गोष्ठी में चेतावनी दी गई है कि यदि प्रदूषण पर शीघ्र ही काबू न पाया गया तो आज के मासूम बच्चे अगले बीस वर्षों में ही बूढ़ों की तरह दिखाई पड़ने लगेंगे और विभिन्न तरह की बीमारियों से घिरे होंगे। वातावरण में चारों ओर वाहनों तथा अन्य प्रकार के शोर से फैल रहा ध्वनि प्रदूषण न केवल हमारी स्मरण-शक्ति प्रभावित करता है बल्कि अनिद्रा, मानसिक और हृदय रोगों को जन्म देता है। राजधानी के व्यस्त इलाकों से सुबह या शाम के समय गुजरते हुए आँखों में जलन या आँखों से पानी आना और सिरदर्द होना एक आम बात हो गई है।
पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से इन प्रदूषित तत्वों के प्रतिकारक तत्व वायुमण्डल में नहीं रह गये हैं। नदी-नालों, जलाशयों में मृत पशु-पक्षियों के शव या कचरा फेंककर या उनमें नहाकर, कपड़े धोकर उनका पानी प्रदूषित कर दिया गया है। वनों की कटाई, भू-क्षरण, गहन सिंचाई या रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी में भी प्रदूषण फैल गया है। दिल्ली में यमुना का पानी पीने लायक नहीं माना गया हैं और यहां के भूमिगत को जहर माना जाने लगा है।
कुल मिलाकर यदि देखा जाये तो विश्व में विकास की रफ्तार जितनी तेज हुई है, प्रदूषण का खतरा उतना ही भयावह होता चला गया है। लोग अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो गये हैं कि उन्हें अपना विनाश भी नजर नहीं आ रहा। पर्यावरण संरक्षण के लिए बातें और दावे तो बहुत किए जा रहे हैं, लेकिन कुछ ठोस पहल नहीं की जा रही है। हमारे देश में भी पिछले दो दशक से पर्यावरण आन्दोलन चल रहा है, लेकिन प्रदूषण कम होना तो दूर उनकी वृद्धि की रफ्तार और तेज हुई है।
लेकिन यदि हमें वास्तव में पृथ्वी को विनाश से बचाना है और इस धरती को फिर से रहने लायक बनाना है तो उसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे। वनारोपण कर उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी। वाहनों का प्रयोग कम करना होगा। कारखानों से निकलने वाले धुएं तथा कचरे के लिए विशेष प्रबन्ध करना पड़ेगा। लेकिन इन सबसे पहले हमें महानगरों पर जनसंख्या का दबाव कम करना पड़ेगा। ये सारी समस्याएं महज कानूनन बना कर नहीं रोकी जा सकतीं। इसके लिए सरकार की इच्छा-शक्ति और जनता की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है।
स्रोत :-दैनिक ट्रिब्यून , 15 जुलाई,1997
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