कुम्भ पर्व : एक अनूठी भारतीय परम्परा


गंगाहमारा देश विविध संस्कृतियों का संगम स्थल है। यहाँ यह भी एक सर्वमान्य तथ्य है कि संस्कृतियों के पनपने में मेलों और विभिन्न पर्वों का विशेष योगदान है। यदि हम यह कहें कि तीज-त्यौहारों और मेलों आदि ने ही सच्चे अर्थों में हमारे सांस्कृतिक विकास में मदद दी है और उसे हर पल जीवंत बनाये रखा है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। एक ऐसा ही पर्व-कुम्भ मेला पुनः हमारे सामने है जो सिर्फ हिन्दु संस्कृति का ही नहीं वरन पूरे भारतवर्ष की समस्त संस्कृतियों के उनयन का प्रबल प्रतीक है। इस बार जन-जन का यह पर्व कुछ विशिष्टता लिये हुये है। यह इस शताब्दी का अन्तिम कुम्भ पर्व भी है। इस कारण इसे देखने-परखने और अगली सदी के कुम्भ पर्वों की तैयारियों के लिये पर्व का आकलन करने के उद्देश्य से भी यह कुम्भ मेला महत्त्वपूर्ण है।

पौराणिक महत्व


पर्व जितना पुरातन माना जाएगा, उसकी आधार गाथाएँ भी उतनी ही प्राचीन ठहरेंगी। यही कारण है कि इस प्राचीन पर्व-कुम्भ की मान्यताओं की बेल वेद-पुराणों के पृष्ठों तक पहुँचती है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में ‘कुम्भ’ शब्द की व्याख्या करते हुये कुछ ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें परोक्षतः कुम्भ पर्व से जोड़ा जाता है अथर्ववेद के काण्ड-19, सूक्त-53 के तीसरे मन्त्र में कुम्भ के बारे में कहा गया है-

पूर्ण कुम्भोऽधि कालं आहितस्तं, वै पश्यामो बहुधानु संतः।
स इमा विश्वास भुवनानि प्रत्यंड, कालं तमाहुः परमे व्योमन्।।


अर्थात काल यानी समय के ऊपर भरा हुआ कुम्भ रखा हुआ है और हम उस घड़े को विविध दृष्टियों से देखते हैं। ऐसे में वह अर्थात समय सभी सत्ता वालों के सम्मुख चलता है। उस काल को लोग अति उच्च रक्षा स्थान में बताते हैं।

वेदों में कुम्भ सम्बन्धी जो भी उल्लेख हैं वे प्रायः सांकेतिक ही हैं और उनसे कुम्भ पर्व की स्पष्ट व्याख्या नहीं मिलती। ऐसे में पुराण सामने आते हैं। पुराणों में विभिन्न कथाओं के माध्यम से कुम्भ पर्व की मान्यताएँ स्थापित की गई हैं। पुराणों में जो कथाएँ वर्णित हैं वे स्पष्ट करती हैं कि कुम्भ पर्व कैसे प्रारम्भ हुआ। ऐसी कथाओं में ‘श्रीमद्भागवतपुराण’, व ‘स्कंध पुराण’ के कुम्भ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। श्रीमद्भागवतपुराण में सागर-मंथन की जो कथा मिलती है वह प्रायः सभी सम्बन्धित पुराणों में समान रूप से थोड़े-बहुत फेर बदल के साथ विद्यमान है। इस कथा के अनुसार देवासुर संग्राम के मध्य अमृत प्राप्ति के ध्येय को लेकर सागर मंथन की प्रक्रिया सम्पन्न हुई। सागर मंथन के फलस्वरूप जो चौदह रत्नक्रमशः कालकूट विष, कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभ मणि, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, रंभ अप्सरा, वारुणि, लक्ष्मी, चंद्रमा, शंख, वैद्यराज धन्वंतरि एवं अमृत निकले, उनमें पहले ही रत्न अर्थात विष ने समस्त ब्रह्मांड में हाहाकार मचा दिया।

तब भगवान शंकर ने उसे अपने कंठ में स्थान दिया और संसार को उसके भय से मुक्त कर दिया। शेष अन्य रत्नों पर तो नहीं किन्तु अमृत की प्राप्ति को लेकर देवताओं और असुरों में एक बार पुनः विवाद उत्पन्न हो गया। इस अमृत कुम्भ से अमृत देवलोक और भूलोक के कुल बारह स्थानों पर कैसे छलक कर गिरा, इस सन्दर्भ में दो-तीन पुराण कथाएँ प्रचलित हैं। इनमें से एक ‘भगवान पुराण’ के कथानुसार आचार्य बृहस्पति का संकेत पाकर इन्द्र-पुत्र जयंत अमृत-घट छीनने में सफल रहा और उसे लेकर चतुर्दिक ब्रह्मांड में भागने लगा। दैत्य भी उसके पीछे भागे और इस प्रकार कुल बारह दिनों तक उनमें परस्पर संघर्ष होता रहा। इस संघर्ष के दौरान ही आकाश यानी देवलोक के आठ स्थानों और भूलोक के चार स्थानों- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में अमृत की कुछ बूँदें छलक कर गिर पड़ी। जिन घट-पलों में ये अमृतकण इन स्थानों पर गिरे, उन घड़ियों और नक्षत्रा-योगों में ये चारों स्थान अमृत-तुल्य कुम्भ-तीर्थ बन गये और यहाँ कुम्भ पर्व मनाने की परम्परा विकसित हो गई। सागर मंथन की कथा का उल्लेख ‘स्कंध पुराण’ में भी देखने को मिलता है।

खगोलशास्त्रीय मान्यताएँ


यह तो प्रायः स्पष्ट है कि अमृत की बूँदें गिरने के कारण ही उक्त चारों स्थान कुम्भ तीर्थ कहलाये लेकिन यहाँ कुम्भ पर्व कब मनाया जाए- इसकी अनेक खगोलशास्त्रीय मान्यताएँ हैं। अलग-अलग स्थानों पर विविध नक्षत्र योग ही यह बताते हैं कि किस अवधि अथवा किस दिन कुम्भ पर्व मनाया जाए। जैसे हरिद्वार में कुम्भ पर्व का योग तब पड़ता है जब बृहस्पति कुम्भ राशि में हो तथा सूर्य मेषस्थ हो। ‘स्कंध पुराण’ भी इस मान्यता को पुष्ट करता है-

पद्मिनी नायके मेषे कुम्भ राशि गते गुरो।
गंगा द्वारे भवेद्योग कुम्भनान्मातदोत्तमः।।


अर्थात सूर्य मेष राशि में हो और बृहस्पति कुम्भ राशि में प्रविष्ट हो चुका हो तभी हरिद्वार में पूर्ण कुम्भ का सुयोग बनता है।

प्रयाग में यह पर्व तब पड़ता है जब सूर्य मकर राशि में और बृहस्पति वृष राशि में तथा माघ मास हो जबकि उज्जैन में इस पर्व की अवधारणा तब साकार रूप धारण करती है जब सूर्य मेष राशि में तथा बृहस्पति सिंह राशि में हो। उज्जैन में कुम्भ पर्व के लिये दस अन्य योग होना भी अनिवार्य है। बृहस्पति के सिंह राशि में होने से यहाँ का पर्व ‘सिंहस्थ पर्व’ कहलाता है। उधर नासिक में कुम्भ पर्व का आयोजन तब होता है जब सूर्य और बृहस्पति दोनों ही सिंह राशि में हों। इसके अतिरिक्त पूर्णिमा की तिथि और दिन बृहस्पतिवार होना भी यहाँ के पर्व के लिये एक अनिवार्य शर्त है।

यहाँ एक ओर तथ्य उल्लेखनीय है कि चारों स्थानों पर कुम्भ पर्व के लिये जो नक्षत्र-योग निर्धारित किये गये हैं उनमें सर्वप्रमुख भूमिका बृहस्पति की है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि समस्त योग बृहस्पति की चाल और राशियों में उसकी स्थिति पर निर्भर करते हैं। अब चूँकि बृहस्पति 4332.5 दिनों अर्थात 11 वर्ष 11 महीने और 27 दिनों में सभी 12 राशियों में अपनी परिक्रमा पूरी करता है अतः इस वजह से सामान्यतः 48 कुम्भ पर्वों की अवधि में इसकी परिक्रमा 6 वर्ष पहले पूरी हो जाती है। इस कारण प्रत्येक शताब्दी में कोई एक कुम्भ, सामान्यतः हर आठवाँ कुम्भ बारह वर्ष के स्थान पर ग्यारह वर्ष में ही पड़ जाता है।

ऐतिहासिक पहलू



भारत के सांस्कृतिक तथा सामाजिक जीवन में कुम्भ मेले का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हर 12 साल में आयोजित होने वाले कुम्भ पर्व से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलता है और इसमें भारतीय जीवन की विविधता की सुन्दर झाँकी पेश होती है। इन दिनों हरिद्वार में इस शताब्दी का अन्तिम कुम्भ चल रहा है। लेखक ने इस अनूठे आयोजन के धार्मिक, खगोलशास्त्रीय और ऐतिहासिक पहलुओं का परिचय देते हुये वर्तमान कुम्भ को सफल बनाने के व्यापक प्रबन्धों पर प्रकाश डाला है।

कुम्भ पर्व का ऐतिहासिक स्वरूप भी है। यह ऐतिहासिक स्वरूप उपलब्ध अभिलेखों व प्रमाणों की दृष्टि से कहीं अधिक सार्थक है। ‘प्रयागदीप’ के लेखक महाराज हर्षवर्धन और समकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो सन 629 से 645 तक भारत भ्रमण पर रहा, से सम्बद्ध एक उल्लेख ऐसा है जिसे कुम्भ की प्राचीनता के बारे में प्रस्तुत किया जाता है। हर्षवर्धन सन 606 में कान्य-कुब्जेश्वर के महाराजा बने थे। इसी दौरान सन 634 में ह्वेनसांग प्रयाग पहुँचा। इस वर्ष प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर उसने एक स्नान पर्व के दौरान महाराज हर्षवर्धन को अपना सर्वस्व दान करते हुये देखा। इस घटना को ह्वेनसांग ने अपने अनुभव में विस्तृत रूप से लिखा। हालाँकि इतिहासकारों में उक्त स्नान पर्व को ‘कुम्भ पर्व’ मानने के बारे में मतैक्य नहीं है फिर भी कुम्भ के इतिहास में ह्वेनसांग के उक्त संस्मरण का प्रायः उल्लेख किया जाता है। इसके पश्चात कुम्भ सम्बन्धी एक प्रमाण 13वीं सदी का मिलता है। यह उल्लेख नागा सन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के बीच कुम्भ मेले पर हुये व्यापक संघर्ष के सम्बन्ध में है। इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक- ‘नागा सन्यासियों का इतिहास’ में इस घटना का वर्णन करते हुये उक्त कुम्भ पर्व का आयोजन वर्ष सन 1235 बताया है। इस संघर्ष में नागा सन्यासियों ने वैरागियों पर महत्त्वपूर्ण जीत दर्ज की थी।

कुम्भ सम्बन्धी एक विशुद्ध ऐतिहासिक प्रमाण यह है कि कुम्भ के महत्व को देखते हुये मुगल बादशाह अकबर ने हिन्दुओं की भावनाओं का आदर करते हुये सन 1564 में जजिया कर समाप्त कर दिया था। हालाँकि इस घटना के 110 वर्ष बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठे तत्कालीन मुगल शासक औरंगजेब ने 1678-79 में कुम्भ मेले से कुछ ही समय पूर्व जजिया कर पुनः लागू कर दिया।

कुछ धार्मिक पुस्तकों में भी कुम्भ सम्बन्धी पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। जैसे- 17वी शताब्दी के दौरान फारसी भाषा की एक धार्मिक पुस्तक - ‘दबिस्तान-ए-मुजाहिब’ में एक कुम्भ मेले पर हुये संघर्ष का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार 1640 में कुम्भ पर्व के आयोजन के समय हरिद्वार में नागा सन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के मध्य एक बार पुनः युद्ध हुआ था। इसी प्रकार मराठी भाषा की एक पुस्तक- ‘गुरुचरित्र’ में भी 15वीं सदी में नासिक में हुये कुम्भ पर्व का वर्णन किया गया है। नासिक में खुदाई के दौरान एक ताम्रपत्र भी मिला था जिसके अनुसार सन 1690 में एक अज्ञात कारण, सम्भवतः पारस्परिक संघर्ष से हजारों की संख्या में वैरागी सम्प्रदाय के साधु मारे गये थे। हरिद्वार में कुम्भ मेले का एक प्रमाण सन 1678 की एक घटना का उल्लेख करता है। इस प्रमाण के अनुसार गुजरात के प्रमाणी संत महामति प्राणनाथ यहाँ के कुम्भ मेले में अपने तमाम शिष्यों सहित सम्मिलित हुये और यहाँ के विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्होंने ‘निष्कलंक बुद्ध’ की पदवी प्राप्त की।

दुर्घटना और हैजा संक्रमण जैसी आपदाकारी परिस्थितियों ने भी कुम्भ पर्व को उसके आरम्भ से लेकर अब तक प्रायः हर बार अपना निशाना बनाया है। ऐसी घटनाओं की वजह से भी कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों की उपलब्धता ने कुम्भ पर्व की प्राचीनता सिद्ध की है। हरिद्वार में ही सन 1783, 1879, 1927, 1938, 1950, 1966, 1986 और 1991 के कुम्भ व अर्द्ध कुम्भ मेले ऐसे रहे हैं जब यहाँ कभी संकरी गलियों में फंसकर अनेक तीर्थयात्री कुचलकर मारे गये तो कभी स्नान-घाटों पर मची भगदड़ में उनकी कष्टदायक मौत हो गई। महात्मा गाँधी सन 1915 और 1927 के कुम्भ मेलों में हरिद्वार आये थे और यहाँ फैली अव्यवस्थाओं से चिन्तित भी हुये थे। गौरतलब है कि सन 1927 में ही ‘हर की पौड़ी’ के निकट तांगा स्टैंड पर बना लकड़ी का एक अवरोधक भीड़ के दबाव से टूट गया था। जिस कारण मची भगदड़ में कुचलने से अनेक तीर्थयात्रियों की जानें चली गई थीं।

व्यवस्थाएँ और प्रबंध


शताब्दी के इस आखिरी कुम्भ पर्व की प्रशासनिक तैयारियों का पहला ध्येय यही था कि आने वाले एक करोड़ तीर्थयात्रियों को समस्त नागरिक सुविधाएँ यहाँ मिलें और मेले में न तो किसी प्रकार की कोई दुर्घटना हो और न ही संक्रमण अथवा प्रदूषण फैले। इस दृष्टि से सम्पूर्ण मेला क्षेत्र, जो 130 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, कुल 31 सेक्टरों में बाँटा गया है। इन सभी सेक्टरों में चिकित्सकीय प्रबंध के साथ-साथ पुलिस थाना, सेक्टर मजिस्ट्रेट आदि की भी तैनाती की गई है।

चूँकि कुम्भ नगरी में मेला अवधि के दौरान हजारों वाहन भी आ रहे हैं, अतः उनकी पार्किंग-स्थल के लिये 28 पार्किंग स्थल बनाये गये हैं। कुल मिलाकर 2600 बसें उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग तथा अन्य प्रदेशों से यहाँ के लिये चलाई गई हैं। चूँकि स्नान के लिये घाट बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं अतः यहाँ इस बार तीन किलोमीटर लम्बे नये घाटों के निर्माण सहित सभी पुराने घाटों में सुधार किया गया है। इसी प्रकार गंगा पर स्थायी एवं अस्थायी दोनों तरह के लगभग 39 नये पुल बनाये गये हैं। मेला क्षेत्र में रिक्त स्थानों की कमी के कारण उत्पन्न भीड़ के दबाव से पूर्व के कई कुम्भ मेलों में भीषण दुर्घटनाएँ हुई हैं। इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुये यहाँ रोड़ी नामक एक आवासीय कालोनी को पूरी तरह ध्वस्त करके तथा पंत द्वीप व कांगड़ा द्वीप का विस्तार करके भीड़-भाड़ कम करने के लिये खाली जगह तैयार की गई है। मेले में यात्रियों की सुरक्षा के लिये इलेक्ट्रॉनिक आँख, मेटल डिटेक्टर, निगरानी टावर्स तथा डाग स्क्वायड आदि का भी इन्तजाम किया गया है।

इस बार हरिद्वार के कुम्भ मेले को ‘मक्खी विहीन मेला’ मेला घोषित किया गया है। इस दृष्टि से न सिर्फ मेला क्षेत्र में प्लास्टिक थैलों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है वरन गंदगी फैलाने से रोकने के अनेक प्रबंध किये गये हैं। मुख्य स्नान पर्वों के दौरान गंगा में प्रदूषण न फैलने पाये, इसे निश्चित करने की जिम्मेदारी प्रदूषण नियन्त्रण इकाई को सौंपी गई है। इस इकाई ने पुरानी सीवर लाइनों व सभी नालों की सफाई करने के साथ-साथ 18 किलोमीटर लम्बी नई सीवर लाइनें भी बिछाई हैं। इसी तरह पूरे मेला क्षेत्र सहित प्रमुख स्नानघाट-हर की पौड़ी पर उत्कृष्ट कोटि की प्रकाश व्यवस्था ‘हाईमास्ट लाइटिंग’ के तहत की गई है।

इन व्यापक तैयारियों को देखते हुये कहा जा सकता है कि 29 अप्रैल, 1998 तक चलने वाला शताब्दी का यह अन्तिम महाकुम्भ पर्व न सिर्फ बाधारहित निपटेगा बल्कि अपनी सफलता के नये कीर्तिमान भी स्थापित करेगा।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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