कुएँ में खजाना

कर्नाटक राज्य के कोने-कोने में सर्वव्यापी सामुदायिक कुएँ पाए जाते हैं। कुओं के निर्माण में तरह-तरह की डिज़ाइन और तकनीकों का इस्तेमाल होता है। पानी का मुख्य स्रोत समझे जाने वाले कुओं से ग्रामीण समुदायों का अपने–अपने इलाके में दीर्घकालिक रिश्ता है। यह लेख राज्य में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कुओं में से कुछ कुओं का खाका खींचने के साथ उनसे जुड़ी आदतें और रीति रिवाजों का वर्णन करता है।

मलनाड के घरों में बने कुएँ वातावरण को ठंडा रखते हैं। इन कुओं का इस्तेमाल पान के पत्तों, नीम की पत्तियों और नीबू को ताजा रखने के लिये होता है। क्या आप इसका अनुमान लगा सकते हैं? पान के पत्तों, नीम की पत्तियों और नीबुओं को बाल्टी में भरकर एक रस्सी से बाँध कर कुएँ के बीचोबीच लटका दिया जाता है। इससे उनकी ताजगी कम-से-कम एक पखवाड़े तक बनी रहती है। खोदे जाने वाले कुएँ जो कभी सिंचाई प्रणाली और कृषक समुदाय के जीवन के अविभाज्य अंग थे, वे समय के साथ ग्रामीण समाज के सामाजिक ताने-बाने की पृष्ठभूमि में चले गए हैं। कर्नाटक सरकार के सांख्यिकी विभाग के आँकड़ों के अनुसार राज्य में तकरीबन चार लाख खुदे हुए कुएँ हैं। इन कुओं में 3,50,000 का इस्तेमाल खेती के कामों के लिये और बाकी का इस्तेमाल पानी के लिये किया जाता है। इन आँकड़ों में निजी कुओं और फ़ैक्टरियों व घरों के भीतर स्थित कुओं का हिसाब नहीं रखा गया है। वास्तव मे रिकार्ड बताता है कि हर कस्बे में एक सार्वजनिक कुआँ होता है जिसका पानी सभी समुदायों के लिये मुक्त रूप से उपलब्ध रहता है। सार्वजनिक कुएँ यात्रियों और बनजारों की पानी की जरूरतों को पूरा करते थे।

वास्तव में हर कस्बा जिसमें एक तालाब होता है उसमें 50 से 100 कुएँ होते हैं। इन कुओं से पानी खींचने के लिये पारम्परिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है जैसे कि पिकाट, घिरनी, फारसी चकरी, कताई वाली चरखी। इसके अलावा डीजल व बिजली की मशीनों का भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। कुओं के पानी की नियमित उपलब्धता के कारण धान, ज्वार, मक्का, दालें, मूँगफली, गन्ना, फल, सब्जियाँ, शहतूत और बगीचों के उत्पाद बड़ी संख्या में पैदा होते थे। अनुभव बताता हैं कि जब पोखर सूख जाते थे, तब भी कुएँ पानी के विश्वसनीय स्रोत हुआ करते थे, इस सुविधा की तुलना लोग बैंक के फिक्स डिपॉजिट से किया करते थे।

कर्नाटक राज्य विभिन्न किस्म के कुओं के लिये मशहूर है। इनमें पिकाट कुएँ, चरखे वाले कुएँ, ईंट वाले कुएँ, पत्थर वाले कुएँ, बावड़ियाँ, पहले से ढाले गए या मिट्टी के छल्ले वाले कुएँ, पर्वतीय कुएँ, सुरंग वाले कुएँ और अन्य कई प्रकार के कुएँ शामिल हैं। कोलार में खुले कुओं की संख्या सबसे ज्यादा है। कुओं के मामले में बेलगाम का दूसरा और बीजापुर का तीसरा नम्बर है।

बीजापुर के कुएँ


रोचक तथ्य यह है कि बीजापुर कुओं के मामले में तीसरे नम्बर पर है लेकिन ज़मीन के सबसे बड़े हिस्से को पानी सप्लाई करने में इसका नम्बर पहला है। आदिलशाही शासकों द्वारा 1620 के बाद से बनाए गए कुओं के ब्योरों से इतिहास भरा पड़ा है। बीजापुर की स्थानीय बावड़ियों के साथ यहाँ के कुएँ भी मशहूर हैं।

इतिहास बताता है कि बावड़ियों का निर्माण शाही रानियों के लिये होता था जहाँ वे विलासी स्नान करती थीं और ठंडे पानी में उछल कूद मचाती थीं। बीजापुर की बावड़ियों के निर्माण में एक बड़े तालाब को चारों ओर से चौकोर पत्थरों की दीवार से घेरा जाता है, पानी में उतरने के लिये सीढ़ियाँ बनाई जाती हैं, तालाब के चारों ओर चलने के लिये रास्ता बनाया जाता है, आराम करने के लिये कुर्सियाँ बनाई जाती हैं, आराम कक्ष बनाए जाते हैं और ऐसी व्यवस्था बनाई जाती है कि सीवेज का पानी तालाब में न घुसे। हालांकि बावड़ियों में समानताएँ होती हैं लेकिन हर बावड़ी अपने आप में अलग होती है।

अपनी भौगोलिक स्थितियों के कारण बीजापुर गर्मियों में काफी गर्म होता है और मौसम के बीच में तापमान 45 डिग्री तक पहुँच जाता है। ऐसे में बावड़ियों की दोहरी भूमिका होती है, एक तरफ तो वे समुदाय को पानी उपलब्ध कराती हैं तो दूसरी तरफ शहर को ठंडा रखती हैं।

ऐतिहासिक रिकार्ड


कैप्टन साइक नाम के एक यात्री ने लिखा है कि 1815 में बीजापुर शहर में 200 बावड़ियाँ और 300 कुएँ थे। कैप्टन साइक ने बीजापुर के उत्तर के गाँवों में स्थित तम्बू वाले कुओं का खाका प्रस्तुत किया है। कनूत कहे जाने वाले इन कुओं की एक शृंखला होती थी जिसमें आखिरी कुआँ सबसे निचले स्थल पर होता था और उसे बाकी कई कुओं से पानी मिलता था। पानी की वह धारा सुरंग के माध्यम से आती थी। सभी कुओं में पानी का स्तर कायम रखा जाता था और शुद्ध व स्वच्छ पानी आखिरी कुएँ में भी उपलब्ध होता था। दुर्भाग्य से इन तम्बू वाले कुओं के बारे में अब ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। बीजापुर के किसान मानते हैं कि इन पारम्परिक कुओं के गायब होने के पीछे बोरवेल जिम्मेदार हैं।

बीजापुर जिले में बसावनाबागेवाड़ी नाम का एक मन्दिरों का शहर है जहाँ पर भगवान शिव के सैकड़ों मन्दिर हैं। इनमें से हर मन्दिर के पास काले पत्थरों का एक कुआँ है जहाँ के पानी का स्तर ज्यादा नहीं रहता। पानी का इस्तेमाल आमतौर पर धीरे-धीरे मन्दिर के कामों और पीने के लिये होता है। इतिहास बताता है कि सामन्तों के सरदार मन्नेसाहिब ने लिंगासुगूर इलाके में 1200 कुओं का निर्माण करवाया। हालांकि लिंगासुगूर के गुरुकुंटा के लोगों ने उनके बारे में सुन तो रखा था लेकिन सरदार या उनके कुओं के बारे में कोई सूचना इकट्ठा नहीं की गई। कुछ बुजुर्गों का मानना है कि डिज़ाइन, संरचना, चौकोर आकार, शाहपुरा के पत्थर, पानी के स्तर को छूने वाली सीढ़ियाँ, तालाब के चारों तरफ बनाया गया परिसर और उसे सार्वजनिक सम्पत्ति बताने वाला तथ्य यह साबित करता है कि इसे मन्ने साहिब ने बनवाया था। इस डिज़ाइन के आठ कुएँ पहचाने गए हैं लेकिन उनके निर्माण का सही काल निर्धारित नहीं किया गया है।

चूने के पत्थरों (लाइमस्टोन) के लिये मशहूर शाहपुरा में ऐसे कुएँ हैं जो महज पाँच मीटर गहरे हैं लेकिन वहाँ पानी हमेशा उपलब्ध रहता है। पास के गाँव सुरपुरा में भी कई कुएँ हैं इतिहास बताता है कि राजा वेंकटप्पा नायक तालाब, बाँध, कुएँ और पानी ठहरने के स्थल बनवाने में प्रमुख भूमिका निभाते थे। उन्होंने वनीकरण को प्रोत्साहित किया और मृदा व भूमि संरक्षण के लिये कई कदम उठाए। आज भी सुरपुरा की हरियाली देखकर यह लगता है कि यह पश्चिमी घाट के हरे जंगलों की भूमि मलनाड का हिस्सा है।

बेलगाम जिले के बेलहोंगाला के कुएँ जो कभी खेती मुख्यतौर पर गन्ने की खेती में सहायक होते थे आज सूख गए हैं। किसानों का मानना है कि गन्ना पैदा करने के लिये कुएँ का पानी पर्याप्त नहीं है इसलिये बोरवेल ही एकमात्र समाधान है। इलाके की काली मिट्टी में ऐसी फसल उगानी चाहिए जिसे कम पानी की जरूरत हो लेकिन आज कुओं में जितना पानी है वो इस फसल के लिये भी पर्याप्त नहीं है।

हावेरी जिले की लिफ्ट सिंचाई प्रणाली में कप्पाली नाम की लोक परम्परा का पालन किया जाता है। रस्से के एक किनारे पर चरस बाँध दिया जाता है जो कि एक घिरनी पर घूमता है। दूसरा सिरा एक लकड़ी से बाँधा जाता है जिसे बैल खींचते हैं। बैल जब आगे बढ़ते हैं तो चरसे में भरा हुआ पानी बाहर आता है और उसका इस्तेमाल सिंचाई के लिये किया जाता है।

खुले कुओं को पुनर्जीवित करना


पानी को मीठा बनाए रखने के लिये लोग काकबदरी/मकोय/रसभरी (Strawberry) की टहनी पानी में डाल देते हैं। इससे कुएँ के पानी में किसी भी प्रकार मिट्टी साफ हो जाया करती है। अगर काकबदरी उपलब्ध नहीं होती तो लोग विकल्प के तौर पर जामुन की टहनी पानी में डाल देते हैं।हावेरी जिले के ककोला गाँव के चन्नाबसप्पा अपने इलाके में सूख चुके कुओं को नया जीवन देने के लिये गम्भीर प्रयास कर रहे हैं। पच्चीस साल पहले ककोला के किसान गरारी वाले कुओं से अपनी जमीन की सिंचाई करने में सक्षम थे। हालांकि हरित क्रान्ति के बाद खेती की माँग बढ़ने लगी और घिरनी के कुओं की जगह पर बोरवेल आ गए जो पूरी जमीन पर अन्धाधुन्ध लगवा दिये गए। धीरे-धीरे पारम्परिक कुएँ बेकार हो गए और तालाब सूख गए।

सन् 2002 में कोंबाली ने स्थिति का जायजा लिया और फैसला किया कि पारम्परिक कुओं को उनकी मौलिक स्थिति में बहाल किया जाएगा। इसके लिये उन्होंने समुदायों के साथ विशेष तौर पर बुजुर्गों के साथ सटकर काम किया। धरती के तत्वों का सर्वे किया गया और कुओं तक बारिश के पानी को ले जाने वाली नहरों का निर्माण किया गया। धीरे-धीरे कुएँ ढलान से आने वाले पानी से भर गए। धीरे-धीरे समुदायों की सहायता से वे 70 कुओं का जीर्णोंद्धार और तीन तालाबों का निर्माण कर सके। लेकिन कोंबाली का काम अभी खत्म नहीं हुआ है। उन्हें आशा है कि वे एक दिन गरारी वाले कुओं को फिर चलता देखेंगे।

किंवदन्ती है कि विदुरास्वत्त कुआँ कभी भी नहीं खाली होगा चाहे उससे एक हजार घड़ा पानी निकाल लिया जाए। हर दिन यहाँ सैकड़ों तीर्थयात्री स्नान करते हैं और रीति रिवाज के लिये पानी निकाला जाता है। इसके बावजूद पानी भरपूर रहता है। दक्षिण कन्नड़ अपने वृक्षारोपण के लिये कुओं के पानी पर निर्भर रहता है। हालांकि जिस तरह बगीचों की संख्या बढ़ी है उसी तरह से कुओं की संख्या बढ़ी है। बगीचों के मालिकों को अपने कुओं की कीमत अच्छी तरह से मालूम है और उन्होंने इस बात की गारंटी की है कि उनका रखरखाव अच्छी तरह से हो। वे पानी की गुणवत्ता का भी संरक्षण करते हैं।

कुओं और तालाबों की सर्वाधिक संख्या कोलार जिले में है, जहाँ के रिकार्ड बताते हैं कि यहाँ 60,000 जलराशियाँ हैं। तकरीबन 25,000 कुओं से पानी खींचने के लिये पारसी चकरी का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन पानी का स्तर नीचे होने पर यह पद्धति काम नहीं करती। दुर्भाग्य से अब कोलार शहर में कुएँ दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ अंतारगंगा पहाड़ियों से पानी लाने के लिये अपने–अपने बर्तन लेकर जाने वालों के दृश्य आम हैं। पहाड़ी की ऊँचाई पर पारसी चकरी अभी भी चलती है क्योंकि पानी का स्तर ऊँचा है।

घरों के भीतर के कुएँ


अर्थशास्त्र और सांख्यिकी विभाग के अनुसार शिमोगा जिले में 4000 कुएँ हैं, इनमें ज्यादातर निजी घरों में हैं। ब्राह्मण आमतौर पर घर बनाने से पहले कुएँ खोदते हैं। अगर कुआँ खोदने की गुंजाईश नहीं रहती तो वे वहाँ घर बनाना छोड़ देते हैं। पानी का स्रोत रखिए, जीविका चलाइए-सभी बुजुर्गों ने इस सिद्धान्त का पालन किया है। नतीजतन सागर, सोराबा, होसनागारा, तीरथहल्ली, शिमोगा, शिमोगा जिले के शिरालाकोप्पा और उत्तर कन्नड़ के शिद्दापुरा में घरों के भीतर कुएँ पाए जाते हैं। कुएँ आमतौर पर रसोई में या फिर सहन के मैदान में खोदे जाते हैं। कभी-कभी बाहरी अहाते, भीतरी आँगन, पिछवाड़े, केन्द्रीय आँगन या मकान के दूसरे खाली हिस्सों का भी इस्तेमाल कुओं की जगह के लिये किया जाता है। रसोई और स्नानघर का निर्माण कुएँ के पास ही किया जाता है ताकि उनकी जरूरत का पानी उपलब्ध रहे।

इस इलाके में कुएँ की गहराई 20 से 60 फुट के बीच होती है और उन्हें रोशनी व धूप से बचाकर रखा जाता है। जैसे ही कुआँ खोद दिया जाता है वैसे ही उसकी दीवारों की ईंट या पत्थर से चिनाई कर दी जाती है और ज़मीन से एक मीटर ऊपर पत्थर या ईंट का चबूतरा बना दिया जाता है। हाल में सोराबा के उलावी में खुदाई के दौरान एक कुआँ मिला जिसे मिट्टी के छल्लों से मजबूती प्रदान की गई थी। स्थानीय लोग इसे कुंदानन्द भावी कहते हैं।

इस इलाके के केलाडी राज्य के शासकों ने तालाब और कुओं के निर्माण को सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व माना था और तकरीबन 6000 तालाबों का निर्माण किया था। हर शहर में कम-से-कम एक या दो तालाब होते थे। हालांकि कुछ ऐसे कस्बे थे जिनमें दस तालाब होते थे। मलनाड के कुएँ वर्ष भर पानी के स्रोत के तौर पर काम करते थे लेकिन पानी की असाधारण माँग के कारण पम्प सेट लगाए जाने लगे। इस दौरान जंगलों के पतन के साथ पानी की अतिरिक्त खपत और मांग, अपर्याप्त वर्षा और कुओं के सूखने के साथ जल चक्र टूट गया।

सन् 2002 में बदामी में एक कुआँ अचानक सूख गया। दस मीटर गहराई और पाँच मीटर परिधि वाले इस कुएँ में पानी के स्तर तक पहुँचने के लिये चक्राकार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। ऊपर के चबूतरे में पानी खींचने के लिये तीन चकरियाँ बनी हुई थीं। बुजुर्गों का कहना है कि उनके जीवन में पहली बार इस कुएँ का पानी सूखा है।

हावेरी जिले के काकोला जैसे गाँव में हर जाति के लिये अलग-अलग कुएँ खोदे गए थे। मांड्या के पास मंगल गाँव में भी अलग-अलग जाति के लिये अलग कुआँ खोदे जाने की प्रणाली 85 साल पहले तक थी। दुर्भाग्य से इस प्रणाली में पिछड़े समुदाय को कुएँ से पानी लेने की इजाज़त नहीं थी। छुआछूत और धार्मिक भावनाओं के कारण कुओं से पानी लेने पर मनाही के चलते दंगे और तनाव होते रहे हैं। राज्य में कई जगहों पर कुओं के पानी के प्रयोग को लेकर हिन्दू और मुस्लिम दंगे भड़कने का इतिहास मौजूद है।

कुओं के पानी से त्योहार


मलनाड के उरोत्ती में कुओं के चबूतरों या जगत का इस्तेमाल धार्मिक उत्सवों के लिये होता है और इस दौरान इस स्थल पर महिलाएँ जमा होती हैं। उदाहरण के लिये दीवाली समारोह के पहले दिन कुएँ की जगत (चबूतरे) को लाल मिट्टी यानी रंगोली की मिट्टी से सजाया जाता है। मिट्टी के नए बर्तन के माध्यम से कुओं से पानी खींचा जाता है। उसे कपास के फूलों व ताजा फूलों की मालाओं से सजाया जाता है और हल्दी व सिन्दूर लगाया जाता है। उसके सामने एक दीप प्रज्ज्वलित किया जाता और बाद में उसे घर के भीतर ले जाया जाता है। दीप को पूजा घर में रखा जाता है और उसे पान के पत्तों, नारियल व आम की ताजा पत्तियों से सजाकर तीन दिन तक पूजा जाता है। चौथे दिन कलश का पानी खाद के ढेर पर इस विश्वास के साथ छिड़का जाता है कि इससे खाद समृद्ध होगी। कलश का पानी कुछ लोग पहले ही दिन नहाने वाले पानी में मिला लेते हैं। लोगों का मानना है कि पवित्र जल का इस तरह के प्रयोग से मानव का शरीर और मस्तिष्क शुद्ध होता है। यह अपने में अकेला मामला नहीं है। राज्य के कई जिलों में जल उत्सव जीवन के अविभाज्य अंग रहे हैं। इसकी प्रशंसा में कई गाने लिखे गए हैं।

जल खोजी (वाटर डिवाइनर)


तालाबों और नहरों की तरह ही कुओं का भी इस्तेमाल खेती की ज़मीन की सिंचाई के लिये होता है। कुछ कुएँ एक फसल के लिये पानी देते हैं और कुछ ऐसे हैं जो साल में दो से ज्यादा फसलों के लिये पानी देते हैं। सन् 2006 में एक लाख से ज्यादा ऐसे कुएँ थे जो तीन फ़सलों को पानी देने की क्षमता रखते थे। 2,70,000 से ज्यादा कुएँ आठ मीटर से कम गहरे हैं। इसलिये यह सुझाव दिया गया कि सरकार को छह लाख और कुएँ खोदने चाहिए जो 6,50,000 अतिरिक्त भूमि की सिंचाई करें।कुआँ खोदने से पहले पानी की उपलब्धता का पारम्परिक ढंग से पता लगाने वाले जल खोजियों को हमेशा बुलाया जाता था। इस प्रथा में धरती के भीतर के पानी की आवाज सुनी जाती है और उस मिट्टी को पहचाना जाता है जहाँ पर कुआँ खोदने का प्रस्ताव होता है। एक और पारम्परिक तरीका है हथेली पर नारियल रखने का। अगर किसी जगह पर पानी होता है तो वहाँ नारियल सीधा खड़ा होता है। पानी की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है नारियल किस गति से सीधा खड़ा होता है।

कुछ और जल खोजी होते हैं जो कुआँ खोदने का जगह पर दो लकड़ी के सहारे महज सतह पर चल कर बता देते हैं कि पानी कहाँ पर हो सकता है। वे दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी के सहारे दो लकड़ियों को पकड़ते हैं और उन लकड़ियों के सिरे को जोड़कर पानी की तलाश करते हैं। जहाँ पर पानी होता है वहाँ लकड़ियाँ तेजी से घूमने लगती हैं और वे बता देते हैं कि पानी का सही ठिकाना कहाँ है और उसकी सटीक गहराई क्या है। हालांकि इसके लिये कौशल और वर्षों का अनुभव आवश्यक है। हालांकि इस बारे में कोई लिखित वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि यह प्रणाली कैसे काम करती है लेकिन इस प्रणाली में विफलता की गुंजाईश बहुत कम होती है।

पारम्परिक तौर पर कुआँ खोदना आसान काम है और अनुभवी कारीगर इस काम को एक महीने के भीतर कर देते हैं। आज भी एक कुआँ खोदने में ज्यादा अनुभव की जरूरत नहीं होती। इससे खेती को पानी देने की लागत भी बहुत कम होती है। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिये वह पानी पीने और सिंचाई के योग्य है, पानी का परीक्षण किया जाना चाहिए।

कुओं का निर्माण


कुओं की खुदाई के लिये अनुभव की आवश्यकता होती है। कुओं की खुदाई से जुड़े तमाम मुद्दे हैं और उसके लिये पूरी प्रक्रिया का ज्ञान होना जरूरी है।

इस बारे में निम्नलिखित सवाल उठते हैं

1. क्या पानी का प्रवाह क्षैतिज है या उर्ध्व?
2. क्या यह अन्तर्भौमिक है या सतह के ठीक नीचे है?
3. अधिकतम उपलब्धता का स्थान क्या होगा?
4. एक बार जब कुआँ खोद दिया गया तो क्या उसे पत्थरों पर बनाया जाए, ईंटों पर या सीमेंट के छल्लों पर?

कुआँ खोदने वाले को उसके आसपास की मिट्टी और चट्टान के चरित्र के बारे में जानना चाहिए। कुछ मिट्टी ऐसी होती है जहाँ पर कुआँ गोलाई में होना चाहिए, चट्टानी इलाके में खोदे गए कुएँ का आकार चौकोर होना चाहिए और जहाँ की मिट्टी लाल है वहाँ कुएँ की चिनाई तुरन्त हो जानी चाहिए। इन तमाम बातों को मद्देनज़र रखना होता है। कुआँ बनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जल स्रोत को बाधित न किया जाए। बरसाती पानी का हर स्रोत कुएँ से मिलना चाहिए। इस बात का भी आकलन किया जाना चाहिए कि प्रति घंटा कितना पानी इकट्ठा होता है।

अगर पानी उच्च स्तर पर उपलब्ध है और मिट्टी कड़ी और टिकाऊ है तो ऐसी जगह पर कुएँ की खुदाई का खर्च ज्यादा नहीं आता। मलनाड में तीस फुट यानी आठ मीटर कुएँ की खुदाई और उसकी पत्थरों से चिनाई का खर्च तकरीबन 50,000 तक आता है।

कुआँ खोदने के लिये कुल्हाड़ी, बेलचा, फावड़ा, टोकरी, रस्सा, टेकरी जैसे कुछ जरूरी उपकरण काम में आते हैं। पानी खींचने के लिये पिकाट, चकरी, फारसी घिरनी, टेकरी और पम्प सेट कुछ महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। इसके अलावा कुएँ में गलती से किसी बर्तन के गिर जाने पर उसे निकालने के लिये जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है उसे पटाला गरुण कहते हैं।

कुएँ परिवार, समुदाय और कस्बे की सम्पत्ति होते हैं। उनकी रक्षा करना और पानी का किफायती इस्तेमाल हर किसी का कर्तव्य है। एक बार कुएँ से पानी निकाल लिया जाए तो उसे फिर से उसमें नहीं डाला जाता। कुएँ के आसपास का क्षेत्र साफ होना चाहिए। उसके चारों ओर पेड़ और पौधे उगाए जाने चाहिए। कुएँ तुलनात्मक रूप से पानी के सस्ते स्रोत हैं और अगर उनका अच्छी तरह से रखरखाव किया जाए तो समुदाय की बेहतरी और समृद्धि की गारंटी हो जाती है।

पूर्णप्रज्ञा बेलूर की एक कृषि विशेषज्ञ हैं जिनकी पत्रकारिता में ज्यादा रुचि है। उनके लेख यहाँ के प्रमुख अखबारों में छपते हैं और वे श्री समृद्धि के मानद सम्पादक हैं। उन्होंने काकोला के कुओं पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है—तेरेदाभावी मारूपूर्णा—काकोलडा याशोगाठे।

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