26 जुलाई यानी विश्व मैंग्रोव एक्शन दिवस। इस दिन दुनिया भर में बहुमूल्य मैंग्रोव वनों की रक्षा करने के लिए और उनकी उपयोगिता के बारे में जागरूकता लाने के लिए प्रयास किए जाते हैं। आइए हम भी इन कुदरती तटरक्षकों के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करें।
महाद्वीपों के किनारे समुद्रों की लहरों के प्रचंड थपेड़ों से निरंतर टूटते-बिखरते रहते हैं। इन्हीं किनारों पर अनेक बड़ी-बड़ी नदियां समुद्र-समाधि लेती हैं। इसलिए वहां खारे और मीठे पानी का अद्भुत संगम होता है। इन विशिष्ट प्रकार के जलों में एक अनोखी वनस्पति उगती है, जिसे मैंग्रोव अथवा कच्छ वनस्पति कहते हैं। बंगलादेश और पश्चिम बंगाल के दक्षिणी भागों में स्थित सुंदरवन इस प्रकार की वनस्पति का अच्छा उदाहरण है। वस्तुतः इस प्रदेश का नाम सुंदरवन इसलिए पड़ा है क्योंकि वहां सुंदरी नामक कच्छ वनस्पति के वन पाए जाते हैं।
मैंग्रोव वन पृथ्वी के गरम जलवायु वाले प्रदेशों में ही मिलते हैं। उनके पनपने के लिए कुछ मूलभूत परिस्थितियों का होना अत्यंत आवश्यक है, जैसे जल का निरंतर प्रवाह, मिट्टी में ऑक्सीजन कम मात्रा में होना, और सर्दियों में औसत तापमान 16 डिग्री से अधिक रहना। इस सदी के पहले वर्षों में जितने मैंग्रोव वन थे, आज उनका 60 प्रतिशत नष्ट हो चुका है। फिर भी पृथ्वी पर इस प्रकार के जंगलों का विस्तार 1 लाख वर्ग किलोमीटर है। मैंग्रोव वन मुख्य रूप से ब्राजील (25,000 वर्ग किलोमीटर पर), इंडोनीशिया (21,000 वर्ग किलोमीटर पर) और आस्ट्रेलिया (11,000 वर्ग किलोमीटर पर) में हैं। केवल ब्राजील में विश्वभर में पाए जाने वाले मैंग्रोव वनों का लगभग आधा मौजूद है। भारत में 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन फैले हुए हैं। यह विश्व भर में मौजूद मैंग्रोव वनों का 7 प्रतिशत है। इन वनों में 50 से भी अधिक जातियों के मैंग्रोव पौधे पाए जाते हैं। भारत के मैंग्रोव वनों का 82 प्रतिशत देश के पश्चिमी भागों में पाया जाता है।
मैंग्रोव वृक्षों के बीजों का अंकुरण एवं विकास मातृ-वृक्ष के ऊपर ही होता है। जब समुद्र में ज्वार आता है और पानी जमीन की ओर फैलता है, तब कुछ अंकुरित बीज पानी के बहाव से टूट कर मातृ-वृक्ष से अलग हो जाते हैं और पानी के साथ बहने लगते हैं। ज्वार के उतरने पर ये जमीन पर यहां-वहां बैठ जाते हैं और जड़ें निकालकर वहीं जम जाते हैं। मैंग्रोव वनों का विस्तार इसी प्रक्रिया से होता है। इसी कारण उन्हें जरायुज कहा जाता है, यानी सजीव संतानों को उत्पन्न करने वाला। जरायुज प्राणियों के बच्चे माता के गर्भ में से जीवित पैदा होते हैं।
चूंकि ये पौधे अधिकतर क्षारीय पानी से ही काम चलाते हैं, इसलिए उनके लिए यह आवश्यक होता है कि इस पानी में मौजूद क्षार उनके शरीर में एकत्र न होने लगे। इन वृक्षों की जड़ों और पत्तियों पर खास तरह की क्षार ग्रंथियां होती हैं, जिनसे क्षार निरंतर तरल रूप में चूता रहता है। बारिश का पानी इस क्षार को बहा ले जाता है। इन पेड़ों की एक अन्य विशेषता उनकी श्वसन जड़ें हैं। सागर तट के पानी पर काई, शैवाल आदि की मोटी परत होती है, जिससे पानी में बहुत कम ऑक्सीजन होती है। इसलिए इन पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाता। इस समस्या से निपटने के लिए उनमें विशिष्ट प्रकार की जड़ें होती हैं, जो सामान्य जड़ों के विपरीत ऊपर की ओर जमीन फोड़कर निकलती हैं। ये जड़ें अपने चारों ओर की हवा से आक्सीजन सोखकर उसे नीचे की जड़ों को पहुँचाती हैं। इन जड़ों को श्वसन जड़ कहा जाता है। उनका एक दूसरा काम वृक्ष को टेक देना भी है।
मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें अंदर से खोखली होने के कारण जल्दी सड़ जाती हैं। वृक्ष के नीचे पत्तों का कचरा भी बहुत इकट्ठा हो जाता है। मैंग्रोव वनों की भूमि में हर साल 8-10 टन जैविक कचरा प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में बन जाता है। उन्हें सब मैंग्रोव वनों के वृक्षों की जड़ें बांधे रखती हैं। इस कारण जहां मैंग्रोव वन होते हैं, वहां तट धीरे-धीरे समुद्र की ओर बढ़ने लगता है। यह कृत्रिम तट पीछे की जमीन को समुद्र के क्षरण से बचाता है। लेकिन यह सब क्षेत्र अत्यंत नाजुक होता है और मैंग्रोव वृक्षों के काटे जाने पर बहुत जल्द बिखर जाता है। मैंग्रोव क्षेत्र के विनाश के बाद उनके पीछे की जमीन भी समुद्र के क्षरण का शिकार हो जाती है।
मैंग्रोव क्षेत्र का एक अन्य उपयोग यह है कि वह अनेक प्रकार के प्राणियों को आश्रय प्रदान करता है। चिरकाल से मछुआरे इन समुद्री जीवों को पकड़कर आजीविका कमाते आ रहे हैं। मैंग्रोवों से पीट नामक ज्वलनशील पदार्थ भी प्राप्त होता है, जो कोयला जैसा होता है। मैंग्रोव टेनिन, औषधीय महत्व की वस्तुओं आदि का भी अक्षय स्रोत है। आजकल इन जंगलों से कागज के कारखानों, जहाज-निर्माण, फर्नीचर निर्माण आदि के लिए लकड़ी प्राप्त की जाने लगी है। खेती योग्य जमीन तैयार करने के लिए भी मैंग्रोव वनों को साफ किया जा रहा है। मैंग्रोव वृक्षों के पत्ते चारे के रूप में भी काम आते हैं। इन वनों में शहद का उत्पादन भी हो सकता है। जलावन की लकड़ी भी प्राप्त हो सकती है। लकड़ी का कोयला बनाने वाले उद्योग भी मैंग्रोव वनों का दोहन करते हैं।
आजकल मैंग्रोव वनों के सामने अनेक खतरे मंडरा रहे हैं। विदेशी मुद्रा कमाने का एक सरल जरिया झींगा आदि समुद्री जीवों को कृत्रिम जलाशयों में पैदा करके उन्हें निर्यात करना है। आज तटीय इलाकों में जगह-जगह इन जीवों के लिए जल-खेती (एक्वाकल्चर) होने लगी है। इसके दौरान जो प्रदूषक पदार्थ निकलते हैं, वे मैंग्रोवों को बहुत नुकसान करते हैं। मोटरीकृत नावों से मछली पकड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण भी मैंग्रोव नष्ट हो रहे हैं। पर्यटन भी मैंग्रोव के नाजुक पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि के कारण इस सदी में ही सागर तल 10-15 सेंटीमीटर ऊपर उठ आया है। इससे पानी के प्रवाह, क्षारीयता, तापमान आदि में जो परिवर्तन आया है वह मैंग्रोव वृक्षों की वृद्धि पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। औद्योगिक प्रदूषण भी उन्हें नष्ट कर रहा है। आज गुजरात का तटीय इलाका, जहां सबसे अधिक मैंग्रोव वन हैं, तेजी से उद्योगीकृत हो रहा है। वहां कई सिमेंट कारखाने, तेल शोधक कारखाने, पुराने जहाजों को तोड़ने की इकाइयां, नमक बनाने की इकाइयां, आदि उठ खड़े हो गए हैं। इनके आसपास अच्छी खासी बस्ती भी आ गई है, जो अपनी ईंधन-जरूरतें मैंग्रोवों को काट कर पूरा करती हैं। इन सब गतिविधियों से मैंग्रोव धीरे-धीरे मिटते जा रहे हैं। इन विशिष्ट प्रकार के वनों को विनाश से बचाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, क्योंकि उनके अनेक पारिस्थितिकीय उपयोग हैं। उनका आर्थिक मूल्य भी कुछ कम नहीं है।
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