कुदरती रूप से हो जल भण्डारण

कुदरती रूप से हो जल भण्डारण।
कुदरती रूप से हो जल भण्डारण।

कुदरती रूप से हो जल भण्डारण।

नदियों की बाढ़ जल भण्डारण को जरूरी बताती है। बड़े बाँधों की जगह प्राकृतिक स्रोतों पर आश्रित होने की दरकार है। जब तक हम अपने तरीकों में बदलाव नहीं लाएँगे, बाढ़ और सूखे के कुचक्र से निजात नहीं पाएँगे।

 
बाँधों की पैरवी करने वाले लोग बाढ़ वाली नदियों को एक अवसर के रूप में देखते हैं। ये अवसर उन्हें ज्यादा बाँध बनाने के रूप में दिखता है, जबकि वास्तविकता इससे एकदम उलट है। बाढ़ वाली नदियाँ हमें बताती हैं कि हमें बारिश के पानी के भण्डारण की जरूरत है, लेकिन यह भण्डारण बाँध बनाए जाने के रूप में नहीं होना चाहिए। सूखा पड़ने के तुरन्त बाद बाढ़ वाली नदियाँ हमें भविष्य में सूखे की आहट देती हैं। अगर हम उनके इस संकेत को समझ नहीं पाते तो हम अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
 
चेन्नई और तमिलनाडु में पानी संकट ने इस साल काफी सुर्खियाँ बटोरीं, लेकिन पिछले साल जुलाई 2018 को तमिलनाडु की सबसे महत्त्वपूर्ण कावेरी नदी पर बने बाँध इतने भर गए कि बाढ़ का पानी नीचे की ओर बहने वाली नदियों में छोड़ा जाने लगा। मुल्लापेरियार बाँध ने तमिलनाडु को अगस्त 2018 में एक और उपहार दिया। जब कावेरी के बाँध 24 जुलाई 2018 के आस-पास ओवरफ्लो हो गए, तब कावेरी बेसिन में दक्षिण पश्चिम मानसून वर्षा वास्तव में सामान्य से नीचे थी। आधे मानसूनी सीजन के दौरान बाँधों के ओवरफ्लो होने की यह घटना, वह भी सामान्य से कम मानसून में क्या कहती है ? इसके तुरन्त एक वर्ष से कम समय बाद अभूतपूर्व जल संकट का सामना करना पड़ता है। यह प्रश्न भारत के अधिकांश नदी बेसिन के लिए समान रूप से प्रासंगिक है।  इसका मतलब यह है कि हमारे जलग्रहण में वर्षा जल को सग्रहित करने की और पुनर्भरण की क्षमता कम होती जा रही है। इसलिए जलग्रहण क्षेत्रों का पानी शीघ्रता से नदियों और जलाशयों में पहुँचता जा रहा है। जिससे मानसून की शुरुआत में ही बाढ़ की नौबत आ जा रही है। लेकिन उसके बाद जल्द ही नदियाँ सूख जाती हैं और पानी की कमी हो जाती है।
 
वनों की कटाई, वेटलैंड्स का विनाश, और अन्य जल स्रोतों की मिट्टी की नमी धारण क्षमता कम होती जा रही है। इससे नदियों के कैचमेंट की क्षमता कम हो रही है। अगर इस पूरी समस्या को ठीक करना है तो इस प्रक्रिया से जुड़ी सभी चीजों को दुरुस्त करना होगा, लेकिन जब जल संसाधन प्रतिष्ठान ही सब कुछ खिलाफ कर रहा है तो आशा करना व्यर्थ है। 17 जुलाई 2019 को जिस दिन ब्रह्मपुत्र नदी का जल स्तर अब तक के अपने शीर्ष स्तर 30.36 मीटर को पार कर गया, भारत सरकार ने उच्चतम बाँध और उच्चतम क्षमता वाली जल विद्युत परियोजना के निर्माण के लिए उसी ब्रह्मपुत्र बेसिन पर दिबांग बाँध के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। इसमें 4550 हेक्टेयर में फैले वनों की कटाई की जाएगी। अब यह अच्छी तरह से स्थापित है कि बड़ी जल विद्युत परियोजनाएँ आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है। यह परियोजना ब्रह्मपुत्र बेसिन में बड़ी बाढ़ आपदाओं के लिए निमंत्रण है।
 
एक अन्य उदाहरण, केन बेतवा नदी लिंक परियोजना, सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता वाली नदी लिंक परियोजना है, जिसमें सूखे से ग्रस्त बुंदेलखण्ड के 46 लाख पेड़ों की कुर्बानी देकर बुंदेलखण्ड के सुदूर इलाकों में पानी पहुँचाने की योजना है। कल्पना कीजिए कि ये 46 लाख पेड़ पानी भण्डारण के लिए कितने अहम हो सकते हैं। निश्चित तौर पर बारिश के पानी के भण्डारण की बहुत जरूरत है, लेकिन बड़े बाँध इसके उपयुक्त माध्यम नहीं हैं। इसके लिए भूजल एक्वीफर्स प्राकृतिक रूप से मिले वरदान हैं। इसमें किसी भी प्रकार का नुकसान या लागत नहीं आती है। वेटलैड्स, स्थानीय जल निकाय, और मिट्टी की नमी जल संग्रहण के अन्य विकल्प हैं। देश में भूजल की सबकी जीवन रेखा है लिहाजा ये तीनों विकल्पों पर अमल करना अपरिहार्य हो जाता है। साथ ही भूजल इस्तेमाल के नियमन भी जरूरी है, लेकिन जब तक हमारे जल संसाधन प्रतिष्ठान बड़े बाँधों और बड़ी परियोजनाओं के लिए इस पूर्वाग्रह से बाहर नहीं निकलते, तब तक इस बात की उम्मीद कम ही है कि हम कभी सूखे और बाढ़ के चक्र से छुटकारा पा सकेंगे। 

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Post By: Shivendra
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